बिहार में खेती-किसानी के वजूद पर संकट, फिर भी क्यों नहीं खड़ा हो रहा कोई आंदोलन

ऐसा भी नहीं है कि बिहार के किसान कोई धनाढ्य हैं या उन्हें कोई समस्या नहीं है, बल्कि आंकड़े तो यह बताते हैं कि बिहार में एक तरह से खेती-किसानी बस कहने भर की रह गई है..

Update: 2020-12-13 04:36 GMT

File photo

जनज्वार ब्यूरो, पटना। नए कृषि कानूनों के खिलाफ जहां किसान आंदोलन पर हैं, वहीं एपीएमसी और एमएसपी का मुद्दा भी लगातार सुर्खियों में है। इन सबके बीच बार-बार यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि आखिरकार बिहार में ऐसा कोई किसान आंदोलन क्यों नहीं हो रहा, वह भी तब, जब बिहार में 14 साल पहले ही वर्ष 2006 में एपीएमसी व्यवस्था को खत्म कर दिया गया था।

ऐसा भी नहीं है कि बिहार के किसान कोई धनाढ्य हैं या उन्हें कोई समस्या नहीं है, बल्कि आंकड़े तो यह बताते हैं कि बिहार में एक तरह से खेती-किसानी बस कहने भर की रह गई है और जो लोग किसान कहे भी जा रहे, उनकी दशा खराब है।

बिहार को एक कृषि प्रधान राज्य माना जाता है, पर विपक्ष द्वारा जारी किए गए आंकड़ों पर भरोसा करें तो सरकार के बही खाते में मात्र 1 लाख 37 हजार 55 किसान ही हैं और अनाज की खरीददारी भी इन्हीं से की जाती है, चूंकि सिर्फ इतने किसान ही अनाज बिक्री के लिए निबंधित हैं। हालांकि किसान सम्मान निधि के लिए राज्य के लगभग 41 लाख किसानों ने अपना पंजीकरण कराया है।

वैसे बिहार में किसानों की अनुमानित संख्या 1 करोड़ आंकी जाती है। राज्य के सहकारी विभाग में 45 लाख मीट्रिक टन धान खरीद का लक्ष्य है, पर कांग्रेस का कहना है कि हालिया आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर माह शुरू होने तक कुल जमा 23500 मीट्रिक टन धान की खरीददारी ही की गई है। वह भी तब, जब सरकारी स्तर पर 5118 एजेंसियों को धान खरीद का जिम्मा दिया गया है।

कांग्रेस ने बिहार के किसानों की खराब हालत के लिए 15 वर्षों से राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी और जेडीयू को जिम्मेदार ठहराया है। पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता असित नाथ तिवारी ने कहा कि बिहार में जदयू और भाजपा की सरकार ने‌ किसानों के साथ लगातार धोखाधड़ी की है और किसानों को बर्बाद कर दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करने के लिए विवश कर दिया है।

उन्होंने कुछ आंकड़े पेश करते हुए कहा कि बिहार के सहकारी विभाग के हालिया आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर तक राज्य में सिर्फ 2922 किसान ही अपनी धान की फसल सरकारी क्रय केंद्रों में बेच पाये हैं। उन्होंने कहा कि जमुई, लखीसराय, सारण, शेखपुरा और सीतामढ़ी जैसे जिलों में तो सरकारी क्रय केंद्रों में धान बेचने वाले किसानों की संख्या दहाई में भी नहीं पहुंच पायी है।

राज्य में अभी तक सिर्फ 23500 मीट्रिक टन धान की ही खरीद हुई है, जबकि सरकार का दावा है कि उसने इस बार कुल 45 लाख मीट्रिक टन धान खरीद का लक्ष्य रखा है।

उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार ने कुल 5118 एजेंसियों को धान खरीद का जिम्मा दिया है। असित नाथ तिवारी ने कहा कि अगर यह माना जाये कि हर एजेंसी में एक किसान ने ही अब तक अपना धान बेचा होगा तो भी आधे के करीब एजेंसियों में अब तक धान की खरीद शुरू नहीं हो पायी है। ऐसे में यह समझा जा सकता है कि राज्य में धान की सरकारी खरीद की स्थिति कैसी है।

ताजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य में सिर्फ 1,37,055 किसानों का ही निबंधन हुआ है। विपक्षी दलों का आरोप है कि अधिकारी जानबूझ कर किसानों का निबंधन नहीं होने दे रहे हैं। जबकि सरकारी आंकड़े कहते हैं कि राज्य में किसान सम्मान निधि के लिए ही 41 लाख के अधिक किसानों ने पंजीकरण कराया है और राज्य में किसान परिवारों की संख्या लगभग एक करोड़ है। बावजूद इसके सहकारी विभाग सिर्फ 1 लाख 35 हजार 55 लोगों को ही किसान मानता है और उन्हीं से उपज खरीदता है।

कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि ये बिहार के किसानों को बर्बाद करने की एक बड़ी साज़िश है। बिहार के किसान एमएसपी के बारे में सोच तक नहीं पा रहे हैं। जदयू और भाजपा की सरकार में बिहार के किसान देश में सबसे पिछड़े किसान बन गए हैं।

नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक पंजाब में किसानों की औसत मासिक आय 16,020 रुपये हैं, वहीं बिहार में किसानों की औसत मासिक आय सिर्फ 3558 रुपये है। यही वजह है कि बिहार के बड़े पैमाने पर मजदूर खेती के काम में रोजगार तलाशने हर साल पंजाब और देश के बाकी राज्यों में जाते हैं।

उन्होंने कहा कि कांग्रेस की ये मांग है कि नीतीश सरकार बिहार के किसानों के साथ महाधोखा बंद करे और अब तक की धोखाधड़ी के लिए राज्य की जनता से माफी मांगे।

कहा जा सकता है कि बिहार में खेती-किसानी का वजूद ही धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। पंजाब और हरियाणा के किसानों की तरह बिहार में किसानों के पास बड़े जोत नहीं हैं, बल्कि किसानों के पास जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े हैं, जहां वे अपने परिवार के खाने भर का अनाज किसी तरह उपजा पाते हैं।

हालांकि लगभग तीन दशक पूर्व राज्य में चकबन्दी की पहल शुरू की गई थी। इसके तहत कई जगह पर बंटे जमीन के छोटे टुकड़ों को मिलाकर भूमालिकों को एक जगह जमीन देने की कोशिश की गई थी, पर फिर यह ठंढे बस्ते में चला गया और बाद में राज्य के चकबंदी विभाग को ही बंद कर दिया गया। कालक्रम में खेती घाटे का सौदा बनता गया और खेती से जुड़े लोग अपनी आजीविका के लिए प्रवासी मजदूर बनकर दूसरे प्रदेशों में जाते रहे।

साल 2006 में यहां की कृषि उत्पादन बाजार समितियों को भी बंद कर दिया गया। अब खेती यहां के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन रहा नहीं, सँभवतः यह बड़ा कारण है कि केंद्रीय कृषि कानूनों को लेकर यहां के किसानों में कोई खास उत्सुकता नहीं है।

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