'मजदूर फिर दूसरे राज्य वापस जाने के लिए तड़प रहा है, यहां तो नमक-रोटी मिलने में भी मुश्किल है'

अररिया में मनरेगा की स्थिति के बारे में एनजीओ- जन जागरण शक्ति संगठन के आशीष रंजन हमें बताते हैं कि इस साल बरसात से पहले मनरेगा में लोगों को काम मिला था लेकिन इनमें प्रवासी मजदूर नहीं थे, ये अप्रैल- मई महीने में आए थे, फिर इनको दो हफ्ते तक क्वारांटीन किया गया, इसके बाद बरसात शुरू हो गई, अभी इसका काम ठप्प है..

Update: 2020-08-25 12:42 GMT

(जाकिर हुसैन और मोहम्मद जहांगीर)

हेमंत कुमार पाण्डेय की रिपोर्ट

अररिया। 'गांव में छोटा-मोटा काम मिल जाता है, लेकिन यहां पैसा बहुत कम मिलता है। इससे घर-परिवार का गुजारा मुश्किल से ही हो पाता है, इसलिए अधिक मजदूरी (पैसे) के लिए बाहर जाना होता है। अभी तो यहां भी कोई काम नहीं है......(थोड़ा रूककर) बहुत गरीबी है।'

जब हम बिहार के अररिया जिले स्थित पतराहा गांव के 60 वर्षीय मोहम्मद जहांगीर के दरवाजे पर करीब 11 बजे पहुंचे तो कुछ लोगों के साथ वे बातचीत कर रहे थे। आमतौर पर इस वक्त सभी अपने काम-धंधे में लगे होते हैं, लेकिन फिलहाल इन सब के पास कोई काम नहीं है। मोहम्मद जहांगीर के पास ही उनका 30 साल का बेटा मोहम्मद जाकिर हुसैन भी बैठा दिखा।

बीते मार्च में देशव्यापी लॉकडाउन से पहले जाकिर मुम्बई में सिलाई का काम किया करता था। शुरूआत के करीब डेढ़-महीने उन्होंने लॉकडाउन खुलने का इंतजार किया, लेकिन जब उसके पैसे खत्म हो गए तो उन्हें घर वापस आने के लिए पिता से 5,000 रुपये मंगाने पड़े। इस तरह की कहानी गांव के करीब-करीब हर परिवार की है।

स्थानीय लोगों की मानें तो यहां के हर घर से कोई न कोई सदस्य बाहर कमाने जाता है और उसकी कमाई से पूरे घर का चूल्हा जलता है। अररिया जिले की गिनती देश के सबसे पिछड़े जिलों में की जाती है और यहां से बड़ी संख्या में मजदूर अपनी आजीविका की तलाश में दूसरे राज्यों का रास्ता मापते हैं।

वहीं, वैसे मजदूर जो देश के अन्य राज्यों में नहीं जा पाते, वे पड़ोसी देश नेपाल में कमाने जाते हैं लेकिन भारत-नेपाल के बिगड़ते संबंध और कोरोना महामारी के चलते फिलहाल इनका नेपाल जाना भी बंद है। भारत-नेपाल की खुली सीमा मोहम्मद जहांगीर के घर से केवल आधे किलोमीटर की दूरी पर ही है।

'मुंबई में हर महीने कम से कम 10,000 रुपये कमा लेते थे और इसमें से 8,000 रुपये घर भी भेज देते थे लेकिन अभी ये हालत हो गई है कि लोगों से कर्ज लेकर घर चलाना पड़ रहा है।' जाकिर ने हमें बताया कि उनके परिवार में कुल छह सदस्य हैं और घर चलाने में महीने का कम से कम 6,000 रुपये खर्च हो जाता है।

जाकिर का कहना था कि जब उन्हें कंपनी वाले बुलाएंगे तो वे वापस मुंबई चले जाएंगे क्योंकि घर बैठने से तो गुजारा नहीं होगा। इस पर मोहम्मद जहांगीर भी अपने बेटे के सुर में सुर मिलाकर कहते हैं, 'जो लॉकडाउन में बाहर से गांव आया है, वह फिर वापस जाने के लिए तड़प रहा है। यहां तो नमक-रोटी मिलने में भी मुश्किल है।' रिपोर्ट लिखे जाने के दौरान हमें ये जानकारी मिली है कि जाकिर बिहार से नाउम्मीद होकर एक बार फिर महाराष्ट्र के लिए निकल चुका है।

हालांकि दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से वापस लौटे 28 साल के सद्दाम हुसैन अब वापस नहीं जाना चाहते हैं। चेन्नई में वे एक होटल में काम करते थे और 7,000 रुपये बचत करके अपने घर भेजते थे। फिलहाल एक बीघे से भी कम खेत की जमीन पर खेती-बाड़ी कर रहे हैं और पहले की बचत से अपना घर चला रहे हैं। चेहरे पर निराशा ओढ़े सद्दाम कहते हैं, 'अब हम चेन्नई वापस जाना नहीं चाहते, यहीं रहकर मजदूरी करेंगे। वहां तो पैसे लेकर भी मालिक भाग जाते हैं।'

(सद्दाम हुसैन अपनी मां के साथ)

दरअसल, चेन्नई स्थित जिस होटल में काम करते थे, उसका मालिक लॉकडाउन के बीच ही भाग गया और अपने स्टाफ को बकाया मजदूरी भी नहीं दिया। इनमें सद्दाम भी शामिल है। वहीं, जब सद्दाम घर पर ही रहकर मजदूरी करने की बात करते हैं तो हम उनसे पूछते हैं कि क्या उन्होंने मनरेगा में जॉब कार्ड बनाया है? इस पर उनका जो जवाब हमें मिलता है, वह तो हमें चौंकाता ही है, साथ ही सरकारी की नीतियों या योजनाओं को भी कटघरे में खड़ा करता है।

सद्दाम कहते हैं, 'हमने तो उसका नाम भी नहीं सुना है।' मनरेगा के बारे में हमारे बताने पर वे कहते हैं कि गांव में तो इस तरह का कोई काम नहीं चल रहा है। वहां मौजूद अन्य लोग भी सद्दाम की इस बात की सहमति में अपना सिर हिलाते हैं।

अगर हम सद्दाम की बातों को सरकारी आंकड़ों के साथ देखें तो लोगों को 100 दिनों तक रोजगार की गांरटी देने वाली योजना मनरेगा की स्थिति कहीं अधिक साफ होती है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक बिहार में कुल 2.71 करोड़ मजदूर मनरेगा में पंजीकृत हैं। लेकिन इनमें से सक्रिय मजदूरों (जिन्हें काम मिल रहा है) की संख्या केवल 75 लाख है। इन 75 लाख मजदूरों को भी चालू वित्तीय वर्ष में अब तक औसतन 31.5 दिन ही काम मिल पाया है।


वहीं, अररिया जिले की बात करें तो 9.56 लाख पंजीकृत मजदूरों में से केवल 2.86 लाख मजदूर ही सक्रिय हैं और इन्हें भी रोजगार की कमी के बीच अब तक औसतन 31 दिन का काम मिल पाया है।

अररिया में मनरेगा की स्थिति के बारे में एनजीओ- जन जागरण शक्ति संगठन के आशीष रंजन हमें बताते हैं, 'इस साल बरसात से पहले मनरेगा में लोगों को काम मिला था। लेकिन इनमें प्रवासी मजदूर नहीं थे। ये अप्रैल- मई महीने में आए थे। फिर इनको दो हफ्ते तक क्वारांटीन किया गया। इसके बाद बरसात शुरू हो गई। अभी इसका काम ठप्प है।' वे आगे बताते हैं कि इस योजना के तहत पिछले साल के मुकाबले बेहतर काम तो मिला है, लेकिन परिस्थितियों को देखते हुए ये कम है।'

वहीं, सरकारी जॉब पोर्टल- आत्मनिर्भर स्किलल्ड एंप्लॉयज एंप्लोयर मैपिंग (असीम) पोर्टल के हवाले से द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट की मानें तो इस पोर्टल पर केवल 40 दिनों के भीतर 69 लाख से अधिक लोगों ने रोजगार के लिए पंजीकरण कराया था। लेकिन इनमें से केवल 1.49 लाख लोगों को ही कंपनियों द्वारा नौकरी की पेशकश की गई। इसके बाद भी आखिर में इनमें से केवल 7,700 लोग ही काम पा सकें। बीती 11 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पोर्टल को लॉन्च किया था।

असीम पोर्टल के मुताबिक जिन राज्यों में श्रमिकों की भारी कमी है, उनमें दिल्ली, हरियाणा, तेलंगाना और तमिलनाडु जैसे राज्य हैं। इन राज्यों से लॉकडाउन के दौरान बड़ी संख्या में मजदूर वापस अपने घर लौटे थे। फिलहाल वे सामान्य रूप से ट्रेनें शुरू न होने और यातायात के अन्य साधनों के अभाव के चलते वापस नहीं लौट पा रहे हैं। वहीं, शहरों में उद्योग-धंधे चौपट होने के चलते पहले की तरह रोजगार के मौके भी उपलब्ध नहीं हैं।

हालांकि, रिपोर्टिंग के दौरान हमने पाया कि हरियाणा और पंजाब की कई बसे गांवों में मजदूरों को वापस ले जाने के लिए आ रही हैं। लेकिन, इनमें भी अधिकांश बसें खेत मजदूरों के लिए भेजी गई थीं। बताया जाता है कि इन राज्यों में धान की रोपाई के लिए मजदूरों की भारी कमी हो गई थी, जिससे बड़े-बड़े किसानों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

दूसरी ओर, बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर हैं, जो सिलाई-बुनाई या फिर इस तरह के अन्य स्किल्ड कामों को करते आ रहे हैं। इन्हें अपनी बारी का अब तक इंतजार है। इनके लिए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीती 20 जून को 'गरीब कल्याण रोजगार अभियान' की शुरूआत बिहार के ही खगड़िया जिले से की थी। इस अभियान को देश के छह राज्यों के 116 जिलों में चलाया जा रहा है। इनमें बिहार के 38 में से 32 जिले शामिल हैं। इसके तहत हर जिले में न्यूनतम 25,000 लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया है। 125 दिनों तक चलने वाले इस अभियान के लिए केंद्र सरकार ने 50,000 करोड़ रुपये आवंटित की है।

प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआईबी) द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक आधी से अधिक सफर (दो महीने से अधिक) पूरा करने के बाद भी पूरे देश में इस अभियान के तहत केवल 6.4 लाख दिन ही श्रमिकों को काम मिल पाया है। वहीं, इस अभियान से जुड़ने वाले श्रमिकों की संख्या भी केवल 12,276 मजदूर ही जुड़ पाए हैं। इसके अलावा 50,000 करोड़ में से 1,410 करोड़ रुपये ही जारी किए गए हैं।

वहीं, जब हमने प्रवासी मजदूरों और अन्य बेरोजगारों के लिए चलाई जा रही योजनाओं के बारे में स्थानीय लोगों से पूछा तो इस बारे में अधिकांश को कोई जानकारी नहीं थी। इस बारे में आशीष रंजन का कहना है, 'मजदूरों के रोजगार के लिए सरकार की ओर से केवल दो प्रोग्राम है- प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना और मनरेगा। इनमें मनरेगा पहले की ही योजना है, जबकि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का जमीन पर कुछ नहीं है। इसमें बहुत सारा काम मनरेगा के अंदर ही है। अब इस बारे में सरकार डेटा जारी करेगी तो ही कुछ पता चलेगा।'

अररिया और इसके आस-पास के इलाके (सीमांचल क्षेत्र) के बारे में आशीष बताते हैं, 'हमारे इलाके में इस योजना के तहत काम नहीं मिला है। बहुत सारे वापस चले गए हैं। जिसको जहां मौका मिल रहा है, वह जा रहे हैं।'

बिहार में काम के अभाव में फिर से रोजगार की अनिश्चितता के बीच फिर से वापस जाने वालों में मोहम्मद सालीम और उनके छोटे भाई मोहम्मद जमील भी हैं। बीते दिसंबर, 2019 में वे जम्मू से पतराहा आए थे। मार्च में उनकी बहन की शादी थी। उन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी इस शादी में खर्च कर दी। उन्हें इस बात की तनिक भनक भी नहीं थी कि आने वाले वक्त किन मुश्किलों के साथ आ रहा है। वे तो शादी के बाद फिर वापस जम्मू जाने की तैयारी में थे।

बीते चार साल से दोनों भाई जम्मू में रहकर सिलाई का काम करते थे। उनके घर में 13 सदस्य हैं और लॉकडाउन के दौरान जब न तो इनके पास कोई काम था और न ही पैसा। उस वक्त इन्हें घर का खर्चा चलाने के लिए महाजन से ब्याज पर पैसे लेने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था।

मोहम्मद सालीम ने हमें बताया था, 'परिवार में 13 सदस्य हैं। परिवार चलाने के लिए महीने में 10,000 रुपये खर्चा हो जाता है। चार रुपये सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज पर कर्ज ले रहे हैं। इससे ही घर चल रहा है।'

मोहम्मद सलीम जैसे मजदूरों के एक बार फिर दूसरे राज्यों में काम करने जाने के बाद ये उम्मीद दिखती है कि उनकी फिर से जिंदगी सामान्य हो पाएगी और बिना कर्ज लिए उनके घर का चूल्हा चल पाएगा। लेकिन सद्दाम हुसैन जैसे मजदूर भी हैं, जो अब बाहर काम के लिए जाना नहीं चाहते या फिर बाहर जाने के उनके दरवाजे बंद हो चुके हैं। इन लोगों की जिदंगी के सामने अनिश्चितता के काले बादल ही छाए हुए हैं। और दूसरी ओर डबल इंजन वाली नीतीश सरकार की ओर से भी उन्हें नाउम्मीदी ही दिखती है।

Tags:    

Similar News