बिहार चुनाव परिणाम पर क्यों खामोश हैं नीतीश, दिग्विजय ने क्यों दिया राष्ट्रीय राजनीति में आने का न्यौता?

नीतीश कुमार ने चुनाव परिणाम पर रहस्यमयी चुप्पी साध रखी है। उधर, दिग्विजय सिंह ने उन्हें तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव देते हुए कहा है कि बिहार आपके लिए अब छोटा हो गया है और देश की राजनीति में आकर धर्मनिरपेक्ष ताकत को एकजुट करने में योगदान दें...

Update: 2020-11-11 04:27 GMT

जनज्वार। बिहार विधानसभा चुनाव की अबतक की सबसे मुश्किल लड़ाई लड़ रहे नीतीश कुमार ने एक बार फिर जीत दर्ज की है। नीतीश ने अपने चेहरे की बदौलत एनडीए को सामान्य बहुमत दिलवा दिया। एनडीए ने जादुई संख्या 122 से तीन अधिक यानी 125 सीटें हासिल की। हालांकि इस जीत में नीतीश की पार्टी जदयू की खुश की हिस्सेदारी कम हो गई और वह 43 सीटों पर सीमित हो गई।

नीतीश के नेतृत्व वाला गठबंधन भले जीत गया है लेकिन किसी समय सांसद व विधायकों की संख्या के लिहाज से बिहार की सबसे बड़ी पार्टी रही जदयू के लिए यह असामान्य है। जश्न मना रहे जदयू के नेताओं व कार्यकर्ताओं से कहीं अधिक यह नीतीश के लिए अधिक असहज बात है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर एनडीए का सामान्य नेता तक जहां इस जीत पर बयान दे रहे हैं, वहीं नीतीश खामोश हैं। उनकी ओर से अबतक न कोई बयान आया है। सिर्फ उनकी पार्टी ने जनादेश शिरोधार्य, आभार बिहार का ट्वीट किया है। नीतीश की इस खामोशी से यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह उनकी रणनीतिक खामोशी है? नीतीश सधे राजनेता हैं और उनके अगले राजनीतिक कदम का आकलन करना बहुत आसान नहीं होता है।


बिहार से आने वाले केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे जिस तरह नीतीश कुमार को केंद्र में आने का आफर देते रहे हैं, उससे भी सवाल उठता है कि भाजपा के मन में आखिर क्या है? हालांकि भाजपा के कई मंझोले नेताओं ने नीतीश को ही भावी नेता व सीएम माना है और चुनाव के पहले पार्टी हाइकमान ने भी यह स्पष्ट कर दिया था कि जदयू की अगर कम भी सीटें आएंगी तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे, लेकिन राजनीति में ऐसा कोई वादा स्थायी नहीं होता। हालात बदलने पर वादे भी बयानों की तरह वादे भी भुला दिए जाते हैं।

उधर, कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर नीतीश कुमार को साथ आने का न्यौता दिया है। बिहार चुनाव परिणाम आने के बाद दिग्विजय सिंह ने ट्वीट कर कहा है कि नीतीश कुमार के लिए बिहार अब छोटा हो गया है और वे राष्ट्रीय राजनीति में आ जाएं।

दिग्विजय ने कहा है कि सभी समाजवादी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों को एकमत करने में मदद करते हुए संघ की अंग्रेजों के द्वारा पनपाई फूट डालो और राज करो की नीति को न पनपने दें। दिग्विजय ने नीतीश से अर्ज किया है कि वे उनके प्रस्ताव पर जरूर विचार करें।

दिग्विजय ने यह भी कहा है कि भाजपा व संघ अमरबेल की तरह है जिस पेड़ पर लिपट जाती है वह सूख जाता है और वह पनप जाती है। कांग्रेस नेता ने नीतीश से कहा है कि लालू प्रसाद यादव ने आपके साथ संघर्ष किया है आंदोलनों में जेल गए हैं, भाजपा व संघ को छोड़ कर तेजस्वी को आशीर्वाद दे दीजिए। इस अमरबेल रूपी भाजपा संघ को बिहार में मत पनपाओ।

नीतीश का पुराना राजनीतिक रिकार्ड और नुकसान की वजह

2015 के चुनाव में नीतीश ने राजद-कांग्रेस के साथ लड़कर 71 सीटें हासिल की थी। 2010 के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा में आडवाणी के राजनीतिक युग का उत्तरार्द्ध चल रहा था, तब जदयू ने 115 सीटें हासिल की थी। तीन अंकों में सीटें हासिल करने वाली उनकी पार्टी अकेली थी। तब वे भाजपा से करीब डेढ गुणा सीटों पर चुनाव लड़ा करते थे। लोकसभा चुनाव में भी भाजपा जहां 15 सीटों पर लड़ती थी, वहीं नीतीश की पार्टी जदयू के खाते 25 सीटें आया करती थीं।

नरेंद्र मोदी के भाजपा की केंद्रीय राजनीति में उदय के बाद उन्होंने एनडीए छोड़ने का फैसला लिया और सामाजिक व जातीय आधार वाले खुद के बराबर या थोड़ा 20 पड़ने वाली पार्टी राजद से गठजोड़ कर चुनाव लड़ा। स्वाभाविक था कि ऐसे में दोनों दलों ने 2015 में बराबर सीटों पर मुकाबला किया। बाद में जब 2017 में फिर नीतीश कुमार एनडीए में आए तो यह फार्मूला उनके लिए मान्य रहा और 2019 में लोकसभा चुनाव भी दोनों दलों ने बराबर 17-17 सीटों पर लड़ा, तब लोजपा की भी छह सीटें मिली थीं।

जब विधानसभा चुनाव में लोजपा ने एनडीए छोड़ दिया तो भी दोनों दलों के बीच लगभग बराबर सीटों का बंटवारा हुआ। सिर्फ सांकेतिक रूप से जदयू के खाते 1 अधिक यानी 123 व भाजपा के खाते 122 सीटें गईं। भाजपा ने वीआइपी को अपने कोटे से तो जदयू ने हम को अपने कोटे से सीटें दी।

नीतीश बिहार की राजनीति के पिछले डेढ-दो दशकों से सबसे स्वीकार्य चेहरे रहे हैं, लेकिन कभी भी जातीय व सामाजिक ढांचे के लेकर उनकी पार्टी इतनी मजबूत नहीं रही है कि वह अकेले बड़ा करिश्मा कर दे, हां अगर वह राज्य के दो अन्य बड़े दलों राजद व भाजपा में किसी के भी साथ जाते हैं तो उस गठबंधन की स्वीकार्यता और आधार अधिक व्यापक बनाने की क्षमता रखते हैं।

हजार सवालों के बाद यह स्थिति इस बार भी नीतीश कुमार के साथ थी। लेकिन, लोजपा के अलग चुनाव लड़ने के फैसले और उस पर भी जदयू को हराने की एक सूत्री कार्यक्रम ने नीतीश के उम्मीदवारों को बड़ी संख्या में हराया। अगर लोजपा एनडीए के साथ रही होती तो वह खुद तो सीटें हासिल करती ही जदयू की सीटें भी बढती। लोजपा इस चुनाव में खुद एक सीट जीत पायी है।  नीतीश को हुए नुकसान से भाजपा अब राजद के सीधे मुकाबले में आ खड़ी हुई है।

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