गुलामी के प्रतीकों को नष्ट करना समझ में आता है, पर एलिजाबेथ के सम्मान में PM का राष्ट्रध्वज को झुकाना हजम हो सकता है क्या?

Nationalism vs Imperialism : ब्रिटेन की महारानी के सम्मान में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय शोक की घोषणा की है। क्या इसे हमेशा की तरह भुला दिया जाएगा या लोग इस बात पर आने वाले दिनों में सवाल उठाएंगे।

Update: 2022-09-11 10:30 GMT

गुलामी के प्रतीकों को नष्ट करना समझ में आता है, पर एलिजाबेथ के सम्मान में पीएम का तिरंगा झुकाना हजम हो सकता है क्या?

 

पीएम मोदी की सोच पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण

Nationalism vs Imperialism : हर दौर में एक राष्ट्र का भविष्य उसके नेतृत्व तय होता है। अलग-अलग दौर के लीडरों की छवि को लोग उनकी कार्यशैली और योगदान के आधार गढ़ते हैं। अगर हम आजाद भारत की ही बात करें तो पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास़्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी व अन्य नेतृत्वकर्ता अपनी-अपनी अच्छाई और बुराईयों के लिए जाने जाते हैं। वर्तमान में भारत के पीएम नरेंद्र मोदी ( PM Modi ) हैं। देश आजादी के 75 साल पूरा होने पर अमृत महोत्सव मना रहा है। मोदी ने पिछले आठ सालों में अपनी छवि एक राष्ट्रवादी नेता की बनाई है, इसलिए जब वो राष्ट्रवादी प्रतीकों को ध्वस्त करते नजर आते हैं तो वो एक हद तक समझ में आता है, लेकिन जब वही एक साम्राज्यवादी महारानी एलिजाबेथ ( Elizabeth ) के निधन पर भारतीय तिरंगा को झुकाने का फैसला लेते हैं तो उनका ये फैसला समझ से परे हो जाता है। ऐसे में उनके विरोधीभासी सोच को लेकर भी मन में सवाल उठते हैं।

एक साम्राज्यवादी महारानी एलिजाबेथ के निधन पर जिस तरह से उन्होंने भावुक संवेदना जाहिर करने के बाद एक दिन के लिए राष्ट्रीय शोक की भी घोषणा की, उसको लेकर यह सवाल जरूर उठता है कि एक नेता की सोच में ये विरोधभास क्यों है, एक ही समय में वो राष्ट्रवादी होगा या साम्राज्यवादी। दोनों एक साथ कैसे हो सकता है। तो क्या इसका मतलब ये लगाया जाए कि पीएम अपनी सोच को लेकर स्पष्ट नहीं हैं या फिर कहीं न कहीं कोई केमिकल लोचा है। अगर ऐसा है तो इतिहास में लोग उन्हें कटघरे में जरूर खड़ा करेंगे। आने वाली पीढ़ियां उनसे ये सवाल पूछेंगी कि आखिर एक राष्ट्रवादी पीएम ने एलिजाबेथ को इतना सम्मान क्यों दिया?

दरअसल, राष्ट्रवादी तो सभी पीएम रहे हैं। देश के पहले पीएम पंडित नेहरू की ही बात करें तो उन्होंने स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में नवोदित भारत को अपनी सोच और समझ के आधार पर गुटबाजी से अलग एक निरपेक्ष पहचान दी थी। इसके दम पर वो गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के अगुवा नेताओं में से एक बने। आधुनिक भारत के निर्माता बने। मिश्रित अर्थव्यवस्था के जन्मदाता बने। इंदिरा गांधी भी कम राष्ट्रवादी नहीं थीं। उनकी राष्ट्रवादिता तो उस स्तर की थी कि उन्होंने पाकिस्तान से बांग्लादेश को ही अलग कर दिया। 42वें संविधान संशोधन के जरिए समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को संविधान के आधारभूत ढांचे में शामिल किया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण और पोखरण विस्फोट वन जैसे साहसिक फैसले लिए। अमेरिका को उस दौर में खुली चुनौती दी और सोवियत संघ से दोस्ती कर भारत को दक्षिण एशिया का शक्ति बना दिया, जिस बात को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने स्वीकार भी किया था।

अगर राजीव गांधी की बात करें तो उन्होंने विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में कदम बढ़ाकर भारत को एक नई पहचान दी। नरसिम्हा राव ने निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा देकर आज के भारत की आधारशिला रखी। उन्हीं की दी नींव पर पीएम मोदी भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर वाला देश बनाना चाहते हैं। इस काम में डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके बाद बतौर पीएम मनमोहन सिंह ने देश के विकास की नई पटकथा लिखी। ये बात अलग है कि सियासी मसलों पर वो उतने प्रभावी साबित नहीं हुए।

इन सभी नेताओं में एक कॉमन बात ये है कि वो कहीं पर भी अपनी सोच को लेकर विरोधाभास या द्वंद्व के शिकार नहीं रहे। हां, सभी के सोच और नेतृत्व के अपने-अपने अच्छे-बुरे परिणाम जरूर सामने आये। अटल बिहारी वाजपेयी की बात करें तो उन्होंने दक्षिणपंथी पार्टी का नेतृत्वकर्ता होते हुए भी पोखरण टू और समावेशी सरकार पर बल दिया। 13 दिन, 13 महिने फिर पांच साल के कार्यकाल दौरान वो इससे पीछे नहीं हटे। फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती उन्हें सुबह शाम यूं ही नहीं याद करते हैं।सभी की सोच देश को आगे ले जाने को लेकर अलग-अलग जरूर थी, पर इन लोगों ने खुद की सोच से समझौता कभी नहीं किया।

अगर हम पीएम मोदी की बात करें तो वो इस मामले में कमजोर नजर आते हैं। पीएम मोदी की अभी तक की छवि एक राष्ट्रवादी और पूंजीपतियों के मित्र वाली नेता की बनी है। उन्होंने भी कई सख्त फैसले लिए हैं लेकिन सोच के स्तर पर वो विरोधभास में जकड़े नजर आ रहे हैं। वो विरोधभास यह है कि एक राष्ट्रवादी सोच का व्यक्ति एक साम्राज्यवादी सोच की महारानी को भला इतना सम्मान कैसे दे सकता है कि उसके निधन पर राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक तिरंगा को झुकाने तक का फैसला ले ले। कहने का मतलब यह है कि ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के निधन पर इंटरनेशनल प्रोटोकॉल के मुताबिक शोक व्यक्त करना अलग बात है, लेकिन एक दिन के राष्ट्रीय शोक घोषित करना किसी भी लिहाज से तार्किक नहीं हो सकता। यही वो बिंदु है जिसको लेकर पीएम मोदी से सवाल किया जाएगा। अभी, भले ही लोग सवाल न करें, पर भावी इतिहास उनके इस सोच पर जरूर विश्लेषण करेगा।

ऐसा इसलिए कि अपने देश की बड़ी-बड़ी घटनाएं होने पर जहां हमारे महानुभावों के जुबान तक नहीं खुलती वहीं ब्रिटेन की महारानी के मरने पर राजकीय शोक घोषित करना किस सोच का प्रतीक है। क्या हम भूल गए कि महारानी एलिजाबेथ ने भारत पर लंबे अरसे तक शासन किया। फिर, ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ का निधन ऐसे समय पर हुआ है जब भारत एक-एक कर अंग्रेजी हुकूमत के समय के निशानों को मिटा रहा है। ये सब पीएम मोदी दौर में तेजी से हो रहा है, लेकिन कोहिनूर और जलियांवाला बाग समेत कई सवाल हैं जो महारानी की मौत के बाद अनसुलझे रह गए हैं। साम्राज्यवादी एलिजाबेथ ने भारत पर शासन के दौरान क्रूर हिंसक घटनाओं के लिए कभी माफी नहीं मांगी।

ये बात भी सही है कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ दशकों तक संघर्ष करने के बावजूद किसी भी भारतीय पीएम के कार्यकाल में ब्रिटेन और ब्रिटेन की राजशाही के प्रति कटुता का भाव नहीं दिखा लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भारत के खिलाफ हुए अत्याचार से जुड़े सवालों से वो अनछुई नहीं रहीं। कई इतिहासकार और राजनीतिक समीक्षक इस बात को मानते हैं कि आधुनिक ब्रिटेन को अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भारत समेत पूर्वी कॉलोनियों में किए गए लूट पाट के लिए माफी मांगनी चाहिए। उसकी कीमत चुकानी चाहिए] लेकिन भारत सरकार ने इस मांग से अपने आप को आधिकारिक रूप से कभी नहीं जोड़ा।

महारानी एलिजाबेथ अपने साम्राज्यवादी शासन और उसके बाद काल में सिर्फ तीन बार भारत आईं। वो आखिरी बार भारत 1997 में आई थीं जिस साल भारत अंग्रेजी हुकूमत से अपनी आजादी की 50वीं वर्षगांठ मना रहा था। दिल्ली में उनके आगमन से पहले ब्रिटेन के उच्च आयोग के बाहर उनके खिलाफ इतना भारी प्रदर्शन हुआ। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए वॉटर कैनन का इस्तेमाल किया था। लोग एलिजाबेथ की प्रस्तावित अमृतसर यात्रा को लेकर नाराज थे और प्रदर्शन कर रह थे। 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारी जनरल आर डायर के आदेश पर अंग्रेजी सेना के सिपाहियों ने निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं थी। कम से कम 379 लोग मारे गए थे। जुलाई 2015 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी एक भाषण में यही बात कही थी। उसके बाद पीएम मोदी ने थरूर के भाषण की तारीफ की थी लेकिन वो इस मांग का समर्थन करते है या नहीं, यह नहीं कहा था।

खैर,यह कोई पहली घटना नहीं है, जब पीएम मोदी के फैसले पर सवाल उठ रहे हैं या वो विरोधीभासी सोच के शिकार हो रहे हैं। 19 मई 2015 में जब उन्होंने दक्षिण कोरिया में अप्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए कहा था कि पहले लोग भारतीय होने पर शर्म करते थे लेकिन अब आपको देश का प्रतिनिधित्व करते हुए गर्व होता है। उनके इस बयानों की भी सोशल मीडिया पर तीखी आलोचना हुई थी। लोगों ने इसे भारतीयों को अपमानित करने वाला करार दिया था।

आज हम एक तरफ भारत की आजादी का 75वीं सालगिरह मना रहे हैं तो दूसरी तरफ महारानी का अंतिम संस्कार 19 सितंबर को लंदन के वेस्टमिंस्टर एब्बे में किया जाएगा। इससे पहले महारानी के पार्थिव शरीर को चार दिनों के लिए वेस्टमिंस्टर हॉल में रखा जाएगा। ताकि जनता उनके अंतिम दर्शन कर सके। राष्ट्रवादी मोदी सरकार ने उसी साम्राज्यवादी महारानी एलिजाबेथ के सम्मान में राष्ट्रीय शोक की घोषणा की है। क्या इसे हमेशा की तरह भुला दिया जाएगा या लोग इस बात पर आने वाले दिनों में सवाल उठाएंगे।

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