Target Killing in Kashmir: 370 हटाने के बाद भी क्यों हो रही हैं हत्याएं? सरकार को करने होंगे 4 नीतिगत बदलाव

Target Killing in Kashmir: अनुच्छेद 370 हटने के बाद भी कश्मीर 32 साल पहले के खूनी दौर में क्यों पहुंचता दिख रहा है? घाटी में पिछले 26 दिन में 10 बेकसूरों की जान गई है।

Update: 2022-06-03 05:30 GMT

Target Killing in Kashmir: 370 हटाने के बाद भी क्यों हो रही हैं हत्याएं? सरकार को करने होंगे 4 नीतिगत बदलाव

Target Killing in Kashmir: अनुच्छेद 370 हटने के बाद भी कश्मीर 32 साल पहले के खूनी दौर में क्यों पहुंचता दिख रहा है? घाटी में पिछले 26 दिन में 10 बेकसूरों की जान गई है। मंगलवार को शैल बाला की हत्या के बाद गुरुवार को एक बैंक मैनेजर और मजदूर की हत्या कर दी गई। रामबन और बड़गाम से कश्मीरी पंडितों के सामूहिक पलायन की खबरें है, जबकि कुलगाम में 150 से ज्यादा कश्मीरी पंडित जम्मू भाग गए हैं।

दरअसल, कश्मीर में इस बदले हुए घटनाक्रम के लिए बीजपी और आरएसएस की नीति काफी हद तक जिम्मेदार है, जिसमें यह माना गया कि घाटी की मुख्य समस्या सांप्रदायिक और कानून-व्यवस्था से जुड़ी है। अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद से ही केंद्र सरकार ने एक ओर तो असहमति की उठती आवाजों को बंदूकों के जरिए दबाने की कोशिश जारी रखी है और उधर, कश्मीरी बहुसंख्यकों पर गैर कश्मीरियों की हुकूमत जमाने का प्रयास लगातार हो रहा है।

टीआरएफ की धमकी को हल्के में न लें

कश्मीर में एक नया संगठन उभरा है। नाम है द रेजिस्टेंस फ्रंट। गुरुवार को बैंक मैनेजर की हत्या के लिए जब इस संगठन ने जिम्मेदारी ली तो पहली बार यह नाम सामने आया। इस संगठन के हालिया बयानों पर गौर करें तो पता चलेगा कि वे प्रधानमंत्री पैकेज के तहत कश्मीर आकर सरकारी नौकरी कर रहे कश्मीरी पंडितों और हिंदू अल्पसंख्यकों की हत्या करना चाहते हैं। संगठन का मानना है कि कश्मीरी पंडित भारत सरकार के साथ मिलीभगत करने वाले लोग हैं। संगठन ने उन्हें धमकी दी है कि वे या तो घाटी छोड़ दें या फिर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। यह बिल्कुल उसी तरह की रणनीति है, जो 90 के दशक में पाकिस्तान परस्त आतंकी संगठनों ने अपनाई थी। इसी का नतीजा है कि गुरुवार को कश्मीरी पंडितों के संगठन केपीएसएस ने मत्तन में रहने वाले पीएम पैकेज के कर्मचारियों के सामूहिक पलायन का ऐलान कर दिया था।

यानी दहशतगर्दों का इरादा साफ है कि बंदूक की नोंक पर कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़कर केंद्र सरकार और बीजेपी की उस पूरी योजना पर पानी फेरा जा सके, जिसमें कश्मीरी पंडितों को सुरक्षित तरीके से घाटी में पुर्नस्थापित करने की बात कही गई है और जिसका आखिरी सिरा जम्मू-कश्मीर की पूर्ण राज्य का दर्जा देकर वहां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने से भी जुड़ा है।

ऐसे बिगड़े कश्मीर में हालात

ऐसा नहीं है कि केंद्र की बीजेपी सरकार ने कश्मीरियों पर गैर कश्मीरियों की हुकूमत थोपकर अवाम का गुस्सा मोल लिया है। 2020 में सरकार ने जम्मू-कश्मीर सिविल सेवा (विकेंद्रीकरण और भर्ती) अधिनियम, 2010 की धारा 15 में बदलाव कर स्थायी आवास प्रमाण पत्र देने के नियम जारी किए। घाटी में इसे कश्मीर की जननांकीय में बदलाव के रूप में देखा गया। लोगों को तभी से यह लग रहा है कि केंद्र सरकार कहीं न कहीं घाटी में बाहर से लोगों को बसाकर जननांकीय स्वरूप में बदलना चाहती है। इसी तरह की अफवाह 1990 में भी उड़ी थी और इसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान के इशारे पर आतंकियों ने कश्मीरी पंडितों और सरकार से सहानुभूति रखने वाले मुस्लिमों का कत्लेआम शुरू कर दिया और कश्मीरी पंडितों, हिंदुओं को घाटी से पलायन करना पड़ा। केंद्र सरकार 32 साल बाद फिर वही गलती दोहरा रही है। कश्मीर में प्रशासन अधिकांश गैर कश्मीरियों के हाथ में है। स्थानीय अफसरों में काफी गुस्सा है और प्रशासन में ऊपर से निचले स्तर के बीच संवाद की भारी कमी है।

इन 4 बिंदुओं पर ध्यान दे तो सुधरेंगे हालात

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह शुक्रवार को कश्मीर के हालात पर एक और बैठक करने वाले हैं। गुरुवार के बाद यह उनकी दूसरी बैठक है। इसमें जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल भी शामिल होंगे। फिलहाल सरकार के सामने सबसे प्रमुख प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि वह कश्मीर की समस्या को सांप्रदायिक और कानून-व्यवस्था की नजर से न देखे। कश्मीर की जननांकीय को बदलने की नीति अब उल्टी पड़ी है। वहीं, यह भी साफ हो गया है कि केवल पुलिस और सेना के दम पर घाटी में अमन कायम नहीं हो सकता, क्योंकि दहशतगर्दों ने गुरिल्ला रणनीति अपना ली है। ऐसे में सुरक्षा एजेंसियां कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती। इसके अलावा सरकार को तुरंत कश्मीर के राजनीतिक दलों को एक मेज पर बुलाकर उनसे बात करनी होगी और घाटी में अमन कायम करने के लिए सहायता मांगनी होगी। यह एक लंबी प्रक्रिया है, क्योंकि खुद सरकार ने इन दलों से दूरियां बढ़ाई हैं। उन असहमति की आवाजों को भी बजाय कुचलने के, उन्हें सुनना होगा और अगर उनमें से किसी की सलाह दुरुस्त लगे तो उसे अपनाने में भी हिचक नहीं होनी चाहिए।

कश्मीरी पंडितों के संगठन बीते 21 दिन से सड़कों पर बैठे प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके अपने ही लोग घाटी में मारे जा रहे हैं। ऐसे में प्रशासन को ही आगे आकर उनके आंसू पोंछने होंगे, वरना घाटी में हो रहे पलायन को रोक पाना संभव नहीं होगा।

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