चंबल फाउंडेशन ने आयोजित कराया 'कालपी हेरिटेज वाक', ईंट-ईंट में बिखरी पड़ी हैं इतिहास की अनगिनत कहानियां
कालपी में हस्त निर्मित कागज और उसके उप उत्पादन, इन्द्रधनुषी रंगों से आपका मन मोह लेंगे, प्राकृतिक सुषमा से सजी संवरी यह नगरी अतीत की न जाने कितनी गौरवमयी गाथाएं, प्रेम कथाएं व कोमल स्मृतियां संजोये हैं.....
कालपी। चंबल फाउंडेशन ने देश की नई पीढ़ी को अपने ऐतिहासिक धरोहरों और विरासत से परिचित कराने के लिए 'कालपी हेरिटेज वाक' का आयोजन किया है। लुप्त होते जा रहे एतिहासिक विरासतों को लोग अपनी आंख से देखने के बाद उसके इतिहास, भूगोल से परिचित हुए। कालपी में ऊंचे-नीचे टीलों, टेढ़े-मेढ़े नालों, टूटी-फूटी प्राचीन हवेलियों, छोटी संकरी गलियों और अनगिनत मंदिरों व मजारों से घिरी धूंप छांही बस्ती कालपी अतीत की न जाने कितनी यादें संजोये है। यहां की ईंट-ईंट में इतिहास की अनगिन कहानियां बिखरी पड़ी हैं। जगह-जगह मंदिर मजरे व खंडहर इतिहास के कालखंडों की गवाही दे रहे हैं।
तमाम शासकों के राज कालपी के सीने में दफन हैं। जंग-ए-आजादी 1857 की क्रांति में बिठूर, कानपुर व झांसी में पराजय के बाद प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महारथी कालपी के क्रांतिकारी इतिहास के कारण यहां क्रांतिनायकों का जमावड़ा और 15-23 मई 1958 तक भीषण युद्ध हुआ। कालीन, कंबल, दुसूती, गमछा और मिट्टी के खिलौनों के लिए चर्चित यह परम्परागत शिल्प नगरी, हस्त निर्मित कागज के लिए विख्यात है। हस्त निर्मित कागज और उसके उप उत्पादन, इन्द्रधनुषी रंगों से आपका मन मोह लेंगे। प्राकृतिक सुषमा से सजी संवरी यह नगरी अतीत की न जाने कितनी गौरवमयी गाथाएं, प्रेम कथाएं व कोमल स्मृतियां संजोये हैं।
'कालपी हेरिटेज वाक' में चयनित स्थल
चौरासी गुंबदः यह शानदार मकबरा महमूद लोदी का है जो बादशाह सिकंदर लोदी के अमीर और कालपी के सूबेदार नियुक्त हुए थे। मौलवी इनायतुल्ला की 'आइना-ए-कालपी' के अनुसार एक जंग में महमूद अपने अंगरक्षक भिस्ती के साथ मारे गए। उनकी याद में बने इस मजार के बीच में लोदी की कब्र और और बायीं और भिस्ती की कब्र है। गुंबद की लंबाई 125 फुट और ऊंचाई 80 फिट है। कंकड़ की अधिकता से बनी इस इमारत से कुछ हटकर सामने हजरत शहाबुद्दीन का मजार है। बिना छत के इन भवनों को मुड़िया गुम्बद के नाम से जाना जाता है। सुबह इसकी शोभा देखने ही बनती है, लोदी मकबरा के दरवाजों को गिनना हैरत में डालता है।
लंका मीनारः लंका मीनार बाबू मथुरा प्रसाद निगम 'लंकेश' की विरासत है। दशानन के अभिनय में दक्ष बाबू जी की अभिलाषा थी कि नगर में खुले रंग मंच का निर्माण हो। यह गगनचुम्बी मीनार उन्हीं महान अभिनेता की साकार कल्पना है। 1932 में प्रसिद्ध कारीगर रहीम बख्श द्वारा इसका निर्माण प्रारम्भ हुआ। 300 फिट ऊंची, 173 सीढ़ियों की मीनार कौड़ी चूने से बनी है। इसके ऊपर से 10 मील के क्षेत्र में दृष्टि दौड़ाई जा सकती है। विस्तृत भूमि में फैले क्षेत्र को लंकापुरी, अशोक वाटिका, जनक वाटिका, धनुष यज्ञ, पलंका और अयोध्यापुरी में बांटा गया है। लंका कांड के सभी प्रमुख पात्रों को दीवार पर तराशा गया है। लंका कांड व धनुष यज्ञ की प्रमुख लीलाएं विशेष रुप से मंचित हो सकें इसकी व्यवस्था की गई है। मीनार में उत्कीर्ण रावण की विशाल प्रतिमा के नेत्र शिवलिंग को एकटक निहार रहे हैं।
मनोरम किला घाटः यदि गंगा को ज्ञान का किनारा माना जाता है तो यमुना का किनारा प्रेम का किनारा माना जाता है। कान्हा के रंग में रगी यमुना अभी भी गहराती, बलखाती सावन, भादो में इठलाती है। उसके सौरभ कलकल निनाद न जाने कितने ऋषियों-पीरों, राजाओं, कवियों (ऋषि व्यास, अब्दुल रहीम खानखाना, रतिमान, ब्रह्म, आचार्य श्रीपत मलूकदास, रत्नेन रसिकेन्द्र मोहन) आदि के ह्रदय को आंदोलित किया। इसी घाट पर बाबर, हुमायुं और अकबर का अपने दौर में स्वागत हुआ था। 20 मई 1858 को एकत्रित क्रांतिक्रारियों ने यहीं यमुना जल को हाथ में लेकर फिरंगियों को समूल नष्ठ करने का संकल्प लिया था।
रंग महलः यह रंग महल सम्राट अकबर के उस हाजिर जवाब नवरत्न की याद दिलाता है जो एक लीजेण्ड है और जिसे बीरबल कहते हैं। इनका नाम पहले महेश दास था। अपनी गरीब मां की अकेली संतान बीरबल का जन्म 1528 में कालपी सरकार के अधीन इटौरा में हुआ था। लकड़ी बीनने वाले के भी दिन फिरे, माधव गढ़ के राजा रामचन्द्र ने उसकी कविताओं से प्रभावित होकर उसे विरही की उपाधि दी। सम्राट अकबर ने उसे 2000 रुपये का मनसबदार व कालिंजर का जागीरदार बनाया। कविराय बीरबल ने कालपी में अपना निवास स्थान बनवाया। सात चौक का महल, हाथी खाना और घुड़साल बाद में अकबर के आगमन पर शाही मस्जिद और टकसाल का निर्माण कराया। 1583 में कालपी आगमन पर बीरबल ने अकबर को मालपुये खिलाए। कालपी के इस सपूत की मृत्यु एक युद्ध में पेशावर के समीप एक दर्रे से निकलते समय 1586 ई.में हुई थी। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने अपने इस आत्मिक साथी के देहांत पर गहरा मातम मनाते हुए दो दिन तक अन्न ग्रहण नहीं किया।
चंदेलकालीन किले का अवशेषः कालप्रियनाथ देव स्थान के रुप में कालपी नगर की स्थापना का श्रेय कन्नौज के महाराजा वासुदेव को है। चंदेल युग कालपी का स्वर्ण युग था। इस काल में यहां एक विशाल किला, मंदिर व कई मनोरम घाट बनवाये गए। शतरंज की गोट की भांति बने इस किले का एक मात्र अवशेष बिखरे खण्डहरों के बीच यही कोषागार है। यह यमुना स्तर से 130 फिट ऊंचाई पर स्थित है। इसकी प्राचीरें नौ फिट चौड़ी हैं। इस 35 फिट ऊंचे आयताकार भवन के मध्य एक विशाल गोल गुम्बद है। वातानुकूलित यह विशाल कक्ष भारतीय शिल्प की बेजोड़ मिसाल है जिसे वन विभाग ने एक आदर्श विश्राम स्थल के रुप में सहेज रखा है।
यह प्रसिद्ध कोषागार 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनापतियों झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, तात्यां टोपे की शरण स्थली रही है। 1857 की क्रांति में इसी किले से 'खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, राज्य पेशवा का' की घोषणा करके अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति की डुग्गी पिटी थी। 15 मई से 23 मई 1858 तक यहां अंग्रेजी सेना और क्रांतिकारियों के बीच ऐतिहासिक संग्राम हुआ। जिसमें अंग्रेजों की विजय और इन रणबांकुरों का कालपी से पलायन हुआ।
इसके इलावा ब्रिटिश सिमेट्री और ऐतिहासिक सुरंग को देखकर इन धरोहरों से परिचित हुए।
हेरिटेज वाक में हुए शामिल : नन्दकुमार, शाह आलम, राजेश गौतम, मुबीन खां, सचिन चौधरी, हाशिम अली, रोहित सिंह, शमशाद मंसूरी और फ़िरोज आदि शामिल रहे।