मोदी सरकार ने हटाया मेघालय से अफस्पा जैसा काला कानून, मानवाधिकार संगठनों ने किया स्वागत

Update: 2018-04-24 13:46 GMT

स्वागत करने के साथ ही मानवाधिकार संगठनों ने कहा, सुरक्षा बलों द्वारा विशेष सशस्त्र कानून का सर्वाधिक दुरुपयोग हो रहा मणिपुर, कश्मीर और असम में, लेकिन सरकार वहां से नहीं खत्म कर रही अफस्पा

मोदी 2015 में त्रिपुरा में कर चुके हैं अफस्पा को खत्म, काला कानून को खत्म करने को लेकर कांग्रेस ने नहीं उठाया कभी कोई गंभीर कदम, जबकि पूरे देश पर उसी ने थोपे हैं एक से बढ़कर एक काले कानून

जनज्वार। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सोमवार को पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय से विवादास्पद कानून आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट पूरी तरह हटा दिया है। हालांकि मिजोरम, मणिपुर, असम और अरूणाचल प्रदेश के ज्यादातर हिस्सों में अभी भी लागू है।

देशभर के मानवाधिकारवादी और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता इसे काला कानून कहते हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार अफस्पा जिस राज्य या इलाके में लागू होता है, वह राज्य और इलाका करीब—करीब सुरक्षा बलों के गुलामों की तरह जीता है। वहां नागरिकों खिलाफ कभी भी, कुछ भी घटित हो सकता है और उसकी सुनवाई न थाने में होती है और न ही अदालत या सरकार में।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के शासनकाल में सबसे पहले पूर्वोत्तर के राज्यों में 1958 से यह कानून लागू हुआ था। पूर्वोत्तर में इसे सबसे पहले इसलिए लागू किया कि वहां के नागरिक भारत से अलग होने और अलग देश की मांग कर रहे थे। बाद में यही अलगाववादी आंदोलन कश्मीर में भी तेज हुआ।

इसे मानवाधिकारवादी काला कानून कहते हैं, क्योंकि इस कानून के लागू होने के बाद नागरिक अधिकार शून्य हो जाता है और पुलिस व सुरक्षा बलों पर किसी तरह की कोई निगरानी या पाबंदी नहीं रहती है।

इस कानून के विरोध प्रतीक के रूप इरोम शर्मिला को याद किया जाता है। मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता ईरोम शर्मिला करीब 16 साल तक उपवास पर रहीं।

सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम भारतीय संसद द्वारा 11 सितंबर 1958 में पारित किया गया था। यह सबसे पहले अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड में लागू किया गया। कश्मीर घाटी में आतंकवादी घटनाओं में बढोतरी होने के बाद जुलाई 1990 में यह कानून सशस्त्र बल (जम्मू एवं कश्मीर) लागू किया गया। हालांकि राज्‍य के लदाख इलाके को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया।

भारत के प्रमुख मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर के प्रवक्ता मोदी सरकार द्वारा मेघालय में पूर्ण रूप से आफ्सपा खत्म करने की पहल का स्वागत करते हैं, लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं, 'कश्मीर, मणिपुर जैसे राज्यों से जिस दिन यह काला कानून खत्म किया जाएगा, उस दिन जरूर यह पहलकदमी सही मायने में स्वागत योग्य होगी, क्योंकि इन्हीं राज्यों में सर्वाधिक इस काले कानून का अत्याचार है।'

1958 में सबसे नेहरू सरकार ने पूर्वोत्तर के राज्यों में इस काले कानून को लागू किया था। इसमें संशोधन के लिए रेड्डी कमीशन की रिपोर्ट आई थी, मगर उसे अदालत ने माना नहीं। दूसरी सबसे बड़ी बात इस मामले में अब तक कोई केस दर्ज नहीं हुआ पुलिस—सेना के खिलाफ, जबकि एक नहीं अनगिनत हत्या, बलात्कार, आगजनी और नरसंहारों की घटनाएं हुई हैं।

मानवाधिकार संगठन सीडीआरओ 'कोआर्डिनशन आॅफ डेमोक्रेटिक राइट आॅर्गेनाइजेशन' के संयोजक आशीष गुप्ता कहते हैं, 'हमें सरकार की इस पहलकदमी से बहुत खुशी नहीं हुई है, पर इसे मैं एक सकारात्मक कदम कहूंगा। पहले त्रिपुरा और मेघालय से हटा यह अच्छी बात है। इससे पहले कांग्रेस ने भी मणिपुर के कुछ थाना क्षेत्रों से अफस्पा का कानून हटाया था। पर असल बात यह है कि इस देश को इस काननू की कोई जरूरत नहीं है, उसे एक भी राज्य में क्यों बनाए रखना है।'

अफस्पा लागू होने के बाद नॉर्थ-ईस्ट में सेना पर यौन उत्पीड़न का आरोप आम बात हो चुकी थी। वहां पर इसके विरोध के स्वर लगातार उठ रहे थे। 2004 में मणिपुर की महिलाओं ने इसके खिलाफ नग्न-प्रदर्शन किया था। 17 असम राइफल्स पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक थांगजाम मनोरमा नाम की एक औरत को 10 जुलाई 2004 को पैरामिलिटरी यूनिट के कुछ लोगों ने घर से उठा लिया था, अगले दिन उसकी गोलियों से छलनी लाश मिली।

ऑटोप्सी रिपोर्ट में कहा गया कि महिला का रेप के बाद मर्डर किया गया था। इसके विरोध में लगभग 30 महिलाओं ने असम राइफल्स के हेडक्वार्टर के सामने नग्न प्रदर्शन किया था। इसके बाद भी वहां आर्मी और अफ्सपा के विरोध में कई प्रदर्शन हुए। दिसंबर 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से मनोरमा के परिवार को 10 लाख रुपए देने की बात कही। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों पर भी आर्मी पर मानवाधिकार का उल्लंघन करने के तमाम मामले मीडिया में छाए रहते हैं।

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