मुक्काबाज : एक अच्छी फिल्म आपसे छूट न जाये

Update: 2018-01-17 10:38 GMT

धार्मिक उन्माद में मदमाते लोगों को यह कहाँ भान रहता है कि वे जिस इंसान पर हमला कर रहे हैं उसके सपने, उसके काम और उनके साथ जुड़े लोगों के सपने समाज और देश के लिए क्या महत्व रखते हैं...

उज्जवल चौबे

अनुराग कश्यप की 'मुक्काबाज़' फ़िल्म हमारे समाज मे चल रहे अनेक सच्चाइयों का कहन है। फ़िल्म में मुख्य किरदार में जिमी शेरगिल, विनीत कुमार सिंह और जोया हुसैन हैं। तीनों ने बहुत ही सराहनीय और जीवंत भूमिका निभाई है।

अपने जीवन के उद्देश्यों को पूरा करने के जुनून में श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) दबंग नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) के शोषण के खिलाफ एक छोटी सी आवाज़ उठाता है। भगवान दास मिश्रा अपने दबंगियत से और खेल चयन समिति के उच्च पद का गलत फायदा उठा कर अपने प्रतिशोध का बदला श्रवण ही नहीं श्रवण के पूरे परिवार और संबंधियों से लेता है।

फ़िल्म की प्रेम कहानी आत्मस्पर्शी तब हो जाती है जब नायिका सुनैना मिश्रा (जोया हुसैन) अपने सपने को प्रेम में संजोती है। सामाजिक उपेक्षा की शिकार मनुष्य के सपनो में भला कौन शामिल होता है!

सुनैना की जिंदगी में आकर श्रवण सुनैना के सपनों में अपने जुनून और सपनों का मिलन कर देता है। बिना किसी तमाशा के, बिना किसी लागलपेट के मोहब्त फूलों की तरह खिलती मुरझाती सुगंध फैलाते रहती है।

सुनैना को जीवन मे प्रेम और सम्मान के अलावा सबकुछ मिला है। श्रवण का प्रेम सुनैना के लिए काफी हो सकता है, मगर सुनैना के माता—पिता के लिए नहीं। सुनैना को पाने के लिए श्रवण को 'कुशल पुरुष' यानी एक अदद नौकरी की जरूरत आन पड़ती है। यहीं से श्रवण नौकरी के 'खेल' में फंस जाता है। उसका मुक्केबाज़ बनने का जुनून धीरे—धीरे नौकरशाही और अफसरशाही के पावँ तले रौंदे जाने लगते हैं।

सामाजिक न्याय के संघर्ष में असमानता के खिलाफ स्थापित होती नई व्यवस्था किस तरह नव अंकुरित बीज को बाँझ करने पर तुले हैं, यह भी फ़िल्म में बहुत सादगी और संजीदगी से दिखाया है।

जब श्रवण निराशाओं से घिरा होता है तो उसके जीवन मे एक नई आशा, संजय कुमार (रवि किशन) प्रवेश करते हैं। संजय शोषितों वर्ग से आते हैं, उन्होंने भी कभी मुक्केबाज़ बनने का सपना संजोया था मगर अपने इच्छाओं को मार कर रोटी रोजी के लिए पेशेवर जी हुजूरी को कबूल कर लिया।

कहानी इतनी ही नहीं रहती, कहानी वर्तमान में चल रहे धर्मान्धता की आड़ की गुंडागर्दी को भी दिखाने का प्रयास करती है। धार्मिक उन्माद में मदमाते लोगों को यह कहाँ भान रहता है कि वे जिस इंसान पर हमला कर रहे हैं उसके सपने, उसके काम और उनके साथ जुड़े लोगों के सपने समाज और देश के लिए क्या महत्व रखते हैं।

यह उन्मादी लोग अपने क्षणिक स्वार्थ और बुद्धिहीनता के कारण इंसानी जान के साथ—साथ अनेक प्रतिभाओं की भी हत्या कर रहे हैं, उन पर हमला कर रहे हैं। ऐसे ही एक भीड़ का सामना संजय कुमार और श्रावण करते हैं और उस भीड़ ने संजय को एक बड़ा काम करने से वंचित कर दिया।

फ़िल्म के एक प्रसंग में राष्ट्र को समर्पित 'भारत माता की जय' का पवित्र नारा श्रवण अपना प्रतिशोध लेने के समय उपयोग कर रहा होता है और पुलिस प्रशासन मूक देखता रहता है। इस प्रसंग ने 'भारत माता की जय' के नारे के साथ चल रही राजनीति को दिखाने का प्रयास किया है।

फ़िल्म एक सजीव कहानी की तरह है। जैसे एक आम इंसान अपने जीवन में दबंग, बाहुबली और गुंडों के सामने हार जाता है वैसे ही एक कुशल मुक्काबाज़ खिलाड़ी श्रवण दबंग नेता भगवान दास मिश्रा से लड़ते—लड़ते अपने जीवन के सपनों को हार जाता है।

फ़िल्म की बातों को लिख-कह देना मुश्किल है। इस फ़िल्म को देख कर मुमकिन है आपके मन मे कई सवाल उठें और उन सवालों का हल करने के कुछ छोटे छोटे रास्ते भी दिखें।

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