क्या गोडसे को दफन कर पाएंगे मोदी

Update: 2017-08-20 11:42 GMT

कॉरपोरेट की पीठ पर सवार 2019 की जीत को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी होगा कि मोदी गोडसे की वैचारिक विरासत को नौ—छह कर लें...

वीएन राय, पूर्व आईपीएस

 

2014 में नरेंद्र मोदी की हाईटेक स्पीड बोट के सामने करप्शन के दलदल में फंसा कांग्रेस का पुराना जहाज मुकाबले में कहीं नहीं ठहरा। इस गलाकाटू स्पर्धा के समानांतर मोदी को अपने पूर्व मार्गदर्शक आडवाणी के मुकाबले ‘एक म्यान में दो तलवार नहीं’ वाली भावनात्मक,आसान लेकिन निर्मम, दौड़ भी विजेता के रूप में संपन्न करनी पड़ी थी।

2019 परिदृश्य में मोदी ‘एकमात्र तलवार’ रह गए हैं, लेकिन अब म्यान दो हैं और एक को ख़ारिज करना अनिवार्य होता जा रहा है। देश पर छह दशक राज करने वाली कांग्रेस ने ऐसी ही दुविधा से सामना होने पर गांधी मार्ग को तिलांजलि देकर वैश्वीकरण के रास्ते को चुना था। कॉरपोरेट ट्रोजन हॉर्स मोदी के लिए यह रूपक कहीं कठिन विश्वासघाती उपायों की मांग करेगा। यानी उन्हें आरएसएस पर लगाम कसनी होगी।

कांग्रेस का गाँधी क्षण कब आया, यानी उसने गाँधी से औपचारिक किनारा कब किया? ज्यादातर प्रेक्षक इसका श्रेय नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह जोड़ी के 1991 से शुरू कॉरपोरेट वैश्वीकरण दौर को देना चाहेंगे।

हालांकि,अनौपचारिक रूप से तो यह किनारा 15 अगस्त 1947 से ही होना शुरू हो गया था, और 1984 में राजीव गाँधी के पारिवारिक सिंहासन पर बैठने के साथ दिखाई देना भी।

इसी तर्ज पर, मोदी के सत्ता में आने के बाद भाजपा का गोडसे क्षण भी आना तय था। कॉरपोरेट राष्ट्रवाद पर सवार मोदी के लिए गोडसेवादियों के हिंदुत्व से आज नहीं तो कल पीछा छुड़ाना अपरिहार्य है। सवाल था, औपचारिक रूप से कब शुरू होगा यह दौर?

मेरी सामान्य राजनीतिक समझ से इसका जवाब बनता है, 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद। संघियों,बजरंगियों, हिन्दू वाहिनियों का चुनावी काम पूरा हो जाने के बाद। लेकिन यह घड़ी, बेशक अनौपचारिक रूप से सही, मोदी के सिर पर जल्दी आन पड़ी लगती है।

नरसिम्हा राव का ’91 और मोदी का ’19! कॉरपोरेट अश्वमेध का एक और पड़ाव, बस संख्या उलट गयी है। इस तारीख को चाह कर भी, लाल किले से चाह कर भी, मोदी बदल नहीं सकते। उनके कोर वोट बैंक का एक अच्छा—खासा हिस्सा है ‘आस्थावादियों’ का,जो संघियों-बजरंगियों-हिन्दू वाहिनियों के जब-तब होने वाले लम्पट राष्ट्रवादी प्रदर्शन से गदगद हैं। मोदी, इस हिस्से को खोने का जोखिम अभी नहीं ले सकते।

इसी पंद्रह अगस्त को मोदी ने लाल किले से चेतावनी दी थी कि आस्था के नाम पर हिंसा बर्दाश्त नहीं की जायेगी। इसका उन्हें तुरंत जो जवाब मिला, जानने के लिए गाँधीवादी हिमांशु कुमार की यह ताजा पोस्ट पढ़िए—

अभी दो वीडियो देखे हैं, एक में बजरंग दल के गुंडे एक महिला से बहस कर रहे हैं कि तुमने चप्पल पहन कर झंडा क्यों फहराया? दूसरे वीडियो में बजरंग दल के गुंडे एक मुस्लिम स्कूल संचालक को ध्वजारोहण समारोह से पकड़कर उसका जुलूस निकाल रहे हैं, क्योंकि उस मुस्लिम ने जूते पहन कर राष्ट्रध्वज फहराया था।

झंडा फहराने के बारे में कानून ध्वजा संहिता में लिखा गया है। कानून में कहीं नहीं लिखा है कि भारत का राष्ट्रध्वज जूते—चप्पल उतारकर किया जाना चाहिए, आज तक कभी किसी राष्ट्रपति या किसी प्रधानमंत्री ने जूते चप्पल उतारकर झंडा नहीं फहराया, जूते चप्पल उतारना धार्मिक रिवाज़ है।

धार्मिक रिवाज़ को संवैधानिक रूप देना धर्म का शासन लागू करने की प्रक्रिया है, आपके धर्म में पूजा में जूते उतारे जाते हैं तो आप चाहें तो झंडा या राष्ट्रगान में जूता उतार लें। लेकिन आपके धार्मिक रिवाज़ दूसरे लोग भी मानें यह जबरदस्ती तो आप नहीं कर सकते।

बजरंग दल द्वारा हिन्दू धर्म के रिवाजों को दूसरों पर जबरदस्ती लादने की कोशिश की जा रही है। खतरनाक बात यह है कि पुलिस इसमें दखल नहीं देती, इसलिए ये साम्प्रदायिक गुंडे मनमानी कर रहे हैं। गांधीजी के समय में एक बार कांग्रेस के कार्यक्रम में राष्ट्रध्वज के सामने नारियल फोड़ा गया और आरती उतारी गई तो गांधीजी ने उसका विरोध किया।

भारत के संविधान के द्वारा यह एक धर्मनिरपेक्ष देश है, यानी राष्ट्रीय और धार्मिक मामले अलग-अलग होंगे, लेकिन अगर आप राष्ट्रीय कार्य में धार्मिक रीति रिवाज़ पालन न करने वालों को गालियाँ देंगे और उन लोगों का जुलूस निकालेंगे, तो यह तो संविधान पर ही हमला हो गया।

संविधान कुछ इस तरह से होता है जैसे किसी खेल के नियम होते हैं, अगर आप उसे ही बदल दें तो खेल ही बदल जाएगा, जैसे अगर आप फ़ुटबाल के खेल में हॉकी लेकर फ़ुटबाल खेलने लगें तो वह तो खेल ही बदल जाएगा। फिर उसे फ़ुटबाल का मैच नहीं कहा जा सकता।

इसी तरह अगर आप भारत की धर्म निरपेक्षता को ही खत्म कर देंगे तो फिर तो यह भारत ही नहीं बचेगा, अगर आप भारत को ही नहीं रहने देना चाहते तो फिर मजे से नष्ट कीजिये संविधान को। जिस देश पर आप हिंदुत्व के कब्ज़े के लिए इतनी मेहनत कर रहे हैं, वही नहीं बचेगा।

आप फ़ुटबाल का मैच हॉकी लेकर खेलेंगे और दूसरी टीम के खिलाड़ियों के सर फोड़ देंगे तो आपको विजेता नहीं माना जाएगा, बल्कि मैच ही कैंसिल हो जाएगा। इसलिए संघियो, बजरंगियो, भाजपाइयो भारत के संविधान पर हमला मत करो, वरना कहीं जीतने की बजाय मैच ही न कैंसिल करवा बैठो।

एक वर्ष पहले, पंद्रह अगस्त 2016 के अवसर पर भी मोदी ने लाल किले से एक और चेतावनी जारी की थी, गौसेवा के नाम पर सक्रिय लम्पट अपराधी गिरोहों को लक्ष्य कर। उन्होंने यहाँ तक कहा कि गौ रक्षक के रूप में 70-80 प्रतिशत अपराधी तत्व सक्रिय हैं औरपुलिसको उनसे निपटना चाहिए।

कुछ ही दिन बाद पंजाब में अकाली-भाजपा सरकार का लगाया, राज्य गौ सेवा बोर्ड का प्रधान, सोडोमी और फिरौती के सीरियल अपराधी के रूप में पकड़ा भी गया। लेकिन मोदी को जवाब मिलते ज्यादा देर नहीं लगी। भाजपायी राज्यों में पशु व्यापारियों और पशु कामगारों पर बेलगाम हमलों की जो श्रृंखला सामने आयी, वह क्रम आज भी जारी है।

मोदी का घोषित गोडसे क्षण तो जब आएगा तब आएगा, आएगा भी या नहीं, फिलहाल भविष्य के गर्भ में है। हालाँकि वे तीन तत्व पहचाने जा सकते हैं जो कॉर्पोरेटवादी मोदी को मूक और ‘आस्थावादियों’ के निशाने पर चिह्नित नागरिक समूहों को असहाय रखते हैं।

दिखाया बेशक जाता है कि भाजपा और आरएसएस समेत हिंदुत्व के तमाम अनुषांगिक संगठन मोदी के नेतृत्व में खड़े हैं। दरअसल, वे मोदी के पीछे नहीं, मोदी उनके आगे खड़े हैं। यह समीकरण बदला नहीं जा सकता, हाँ मिटाया जा सकता है।लेकिन इस दिशा में पहल 2019 सेप हले संभव नहीं।

‘आस्थावादी’ लम्पटता का निरंतर आयोजन इतना खर्चीला खेल भी नहीं कि इसे मोदी से स्वतंत्र,वर्तमान लय पर चलाया न जा सके। आखिर, मीडिया में लाठियां भांजते दिखने वाले हिंदुत्व के स्वयंसेवक, न्यूनतम दिहाड़ी पर काम करने वाले गांवों-कस्बों के बेरोजगार युवक ही तो हैं।

उपरोक्त दोनों तत्वों से भी बढ़कर काम करता है तीसरा तत्व यानी कानूनी दबाव का अभाव। अव्वल तो मुकदमे ही दर्ज नहीं होते, जब तक मामला मीडिया या राजनीति में तूल न पकड़ ले। गिरफ्तारी हो गयी तो साथ की साथ जमानत हो जायेगी। सजा कभी नहीं।सोचिये, जवाबदेही का ऐसा भय मुक्त परिदृश्य!

क्या गोडसे को दफ़न कर पायेंगे मोदी? प्रथम भाजपा प्रधानमंत्री वाजपेयी का गोडसे क्षण 2002 में आया था जब वे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मुस्लिम पोग्राम के लिए बर्खास्त करने से चूक गए, और नतीजतन 2004 में सोनिया-राहुल की नौसिखिया जोड़ी के हाथों उन्हें पराजय मिली।भाजपा के दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी अपना गोडसे क्षण गंवाना इसी तरह महंगा न पड़े!

(पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा और रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।)

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