संविधान में नहीं अल्पसंख्यक की परिभाषा, सुप्रीम कोर्ट ने दिया अल्टीमेटम
भाजपा प्रवक्ता अश्वनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जनता के पक्ष में कितना होगा यह तो समय बतायेगा, लेकिन इस याचिका की स्प्रिट सांप्रदायिक है, इसमें कोई संदेह नहीं....
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट
जनज्वार। क्या आप जानते हैं कि अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं है। लेकिन इसका विवरण संविधान की धाराओं में शामिल है। इसके बावजूद अल्पसंख्यकों के लिए सरकारें समय समय पर करोड़ों की जनकल्याणकारी योजनायें बनाती और लागू करती रही हैं।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह मामला उठने पर उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) को निर्देश दिया है कि वह तीन महीने के अंदर अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करे। 11 फरवरी को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने अल्पसंख्यक की परिभाषा और अल्पसंख्यकों की पहचान के दिशा-निर्देश तय करने की मांग करने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए यह निर्देश जारी किया। इस पर सोमवार 11 फरवरी से तीन महीने के भीतर फैसला लिया जाएगा।
इस बीच उच्चतम न्यायालय के आदेश के मुताबिक ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा तय करने में जुटे अल्पसंख्यक आयोग ने कहा है कि इस संदर्भ में कुछ व्यवहारिक दिक्कत है जिस वजह से वह संविधान विशेषज्ञों की राय लेगा। हालांकि आयोग ने स्पष्ट किया है कि संविधान और सभी के हितों के ध्यान में रखते हुए वह अपनी रिपोर्ट तीन महीने की तय समयसीमा के भीतर सरकार एवं शीर्ष अदालत को सौंप देगा।
अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सैयद गैयूरुल हसन रिज़वी का कहना है कि इस मामले में विचार करने एवं रिपोर्ट तैयार करने के लिए आयोग के उपाध्यक्ष जॉर्ज कुरियन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति बनाई गई है, जिसके तय समयसीमा में अपना काम पूरा करने की उम्मीद है।
भाजपा नेता अश्वनी कुमार उपाध्याय ने एक जनहित याचिका दायर कर कहा है कि हिंदू जो राष्ट्रव्यापी आंकड़ों के अनुसार एक बहुसंख्यक समुदाय है, पूर्वोत्तर के कई राज्यों और जम्मू कश्मीर में अल्पसंख्यक है। हिंदू समुदाय उन लाभों से वंचित है, जो कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मौजूद हैं। अल्पसंख्यक आयोग को इस संदर्भ में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा पर पुन: विचार करना चाहिए।
याचिका में कोर्ट से अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा तय करने की मांग की गयी है। याचिका में कहा गया है कि राष्ट्रव्यापी जनसंख्या आंकड़ों की बजाय राज्य में एक समुदाय की जनसंख्या के संदर्भ में अल्पसंख्यक शब्द को पुन:परिभाषित करने और उस पर पुन:विचार किए जाने की आवश्यकता है।
याचिका में दावा किया गया है कि हिंदू जो राष्ट्रव्यापी आंकड़ों के अनुसार एक बहुसंख्यक समुदाय है, वह पूर्वोत्तर के कई राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक है।याचिका में कहा गया है कि हिंदू समुदाय उन लाभों से वंचित है जो कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मौजूद हैं। अल्पसंख्यक पैनल को इस संदर्भ में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा पर पुन: विचार करना चाहिए।
याचिका में मांग की गई है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम की धारा 2 (सी) को रद्द किया जाए, क्योंकि यह धारा मनमानी, अतार्किक और अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है। इस धारा में केंद्र सरकार को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के असीमित और मनमाने अधिकार दिए गए हैं। याचिका में यह भी मांग की गई है कि केंद्र सरकार 23 अक्टूबर, 1993 की उस अधिसूचना को रद्द किया जाए, जिसमें पांच समुदायों– मुसलमानों, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किया गया है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करे और अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशा-निर्देश बनाए। इससे यह सुनिश्चित हो कि सिर्फ उन्हीं अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद 29-30 में अधिकार और संरक्षण मिले जो वास्तव में धार्मिक और भाषाई, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से प्रभावशाली न हों और जो संख्या में बहुत कम हों।
अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर हो
उच्चतम न्यायालय के टीएमए पाई मामले में दिए गए संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया है कि अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जानी चाहिए न कि राष्ट्रीय स्तर पर। क्योंकि कई राज्यों में जो वर्ग बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है।
याचिका में कहा गया है कि मुसलमान लक्ष्यद्वीप में 96.20 फीसद, जम्मू-कश्मीर में 68.30 फीसद होते हुए बहुसंख्यक हैं, जबकि असम में 34.20 फीसद, पश्चिम बंगाल में 27.5 फीसद, केरल में 26.60 फीसद, उत्तर प्रदेश में 19.30 फीसद तथा बिहार में 18 फीसद होते हुए अल्पसंख्यकों के दर्जे का लाभ उठा रहे हैं, जबकि पहचान न होने के कारण जो वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, उन्हें लाभ नहीं मिल रहा है। इसलिए सरकार की अधिसूचना मनमानी है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि ईसाई मिजोरम, मेघालय, नागालैंड में बहुसंख्यक हैं जबकि अरुणाचल प्रदेश, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी इनकी संख्या अच्छी है, इसके बावजूद ये अल्पसंख्यक माने जाते हैं। इसी तरह पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं जबकि दिल्ली, चंडीगढ़, और हरियाणा में भी अच्छी संख्या में हैं, लेकिन वे अल्पसंख्यक माने जाते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को निर्देश दिया है कि वह अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करने के अश्वनी कुमार उपाध्याय के ज्ञापन को तीन महीने मे निपटाए। उपाध्याय ने कहा है कि उन्होंने आयोग को ज्ञापन दिया था, लेकिन उसने कुछ नहीं किया।
याचिकाकर्ता ने इस मांग के साथ वैकल्पिक मांग भी रखी है, जिसमें कहा है कि या तो कोर्ट स्वयं ही आदेश दे कि संविधान के अनुच्छेद 29-30 के तहत सिर्फ उन्हीं वर्गों को संरक्षण और अधिकार मिलेगा जो धार्मिक और भाषाई, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नहीं हैं और जिनकी संख्या राज्य की कुल जनसंख्या की एक फीसद से ज्यादा नहीं है।
अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं
गौरतलब है कि अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं है, लेकिन इसका विवरण संविधान की धाराओं में शामिल है। केंद्र सरकर ने यह स्वीकारोक्ति संसद में एक लिखित उत्तर में की थी। एक प्रश्न के लिखित उत्तर में सरकार ने बताया बताया था कि भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का विवरण धारा 29 से लेकर 30 तक और 350ए से लेकर 350बी तक शामिल है। इसकी परिभाषा कहीं भी नहीं दी गई है।
भारतीय संविधान की धारा 29 में अल्पसंख्यक शब्द को इसके सीमांतर शीर्षक में शामिल तो किया गया, किंतु इसमें बताया गया है कि यह नागरिकों का वह हिस्सा है, जिसकी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति भिन्न हो। यह एक पूरा समुदाय हो सकता है, जिसे सामान्य रूप से एक अल्पसंख्यक अथवा एक बहुसंख्यक समुदाय के एक समूह के रूप में देखा जाता है।
भारतीय संविधान की धारा-30 में विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों की दो श्रेणियों – धार्मिक और भाषायी का उल्लेख किया गया है। शेष दो धाराएं – 350ए और 350बी केवल भाषायी अल्पसंख्यकों से ही संबंधित हैं।