राजस्थान के कुचामन सिटी में जनसभा को संबोधित करने की जो तस्वीर ट्विट हुई है उसे देखते ही लगता है कि अमित शाह ख़ाली मैदान को संबोधित कर रहे हैं....
रवीश कुमार, वरिष्ठ टीवी पत्रकार
भारत की मौजूदा राजनीति में अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने व्यवस्थित तरीके से ‘विज़ुअल हेजमनी’ कायम की है। तस्वीरों के ज़रिए राजनीति प्रदर्शित करने की रणनीति काफी परिपक्व हो चुकी है। इसका एक पैटर्न है। जनता के बीच दिखना है, मगर जनता से ऊंचा दिखना है।
जनसभाओं में बनने वाला डी-एरिया वो सुरक्षा घेरा है जो जनता और नेता के बीच सुरक्षात्मक दूरी को रेखांकित करता है। अमित शाह के ट्विटर हैंडल @AmitShah पर कई तस्वीरें हैं जिनमें उनके और जनता के बीच डी-एरिया को प्रमुखता से उभारा गया है। मैंने यह लेख फेसबुक पेज @RavishkaPage के लिए लिखा है, क्योंकि इसमें उनकी कई तस्वीरों को पोस्ट करने की सुविधा रहती है। बग़ैर उन तस्वीरों के इस लेख को समझना मुश्किल है।
आप इस लेख के साथ-साथ उन तस्वीरों को भी देखिए जो अमित शाह के ट्विटर हैंडल से पोस्ट की गई हैं जिसके एक करोड़ से ज्यादा फोलोवर हैं। हर नेता चाहेगा कि जनता से उसकी दूरी कम से कम दिखे मगर अमित शाह डी-एरिया की परिभाषित दूरी से खुद की कैसी छवि उभारना चाहते हैं? उनकी सभा की तस्वीरों में डी-एरिया वाली तस्वीरें बिना नागा होती हैं।
एक नेता के नेता बनने की प्रक्रिया में उसके आसपास की तस्वीरों का रोल होता है। आज कल के नेता खासतौर से इन तस्वीरों को लेकर सचेत रहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी कई बार अपने फ्रेम से कैमरामैन को ही बाहर धकेलते देखे गए हैं या मेहमानों को इधर से उधर करते देखे गए हैं ताकि फ्रेम में वे बराबर से आ सकें। इन तस्वीरों से पता चलता है कि एक नेता जनता के बीच ख़ुद को कैसे पेश करना चाहता है और उसी के साथ उस जनता के साथ ख़ुद को कहां देखना चाहता है।
अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरों में कुछ भी अनायास होता नहीं लगता है। सबकुछ पहले से सोचा हुआ लगता है। कर्नाटक चुनाव के बाद जब वे भाजपा दफ्तर जाते हैं तब कैमरा का एंगल प्रधानमंत्री और अमित शाह को इस तरह फोलो करता है, जिसमें वे किसी शिखर सम्मेलन की ऊंची जगह पर चलते दिखते हैं।
कैमरे से जो भाषा बनती है वो एक किस्म की पावर-स्ट्रक्चर की भाषा तय करती है। लगता है जैसे फ्रेम पहले से तय किए हों और उसमें आकर प्रधानमंत्री चलने लगे हों। या फिर कैमरे को पता है कि फ्रेम किस तरह से रखना है। राजनीति में विज़ुअल के इस्तेमाल के विद्यार्थी को उस वक्त का वीडियो देखना ही चाहिए।
भारत की मौजूदा राजनीति में अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने व्यवस्थित तरीके से ‘विज़ुअल हेजमनी’ कायम की है। हिन्दी में इसे दृश्यों की वर्चस्वता कहता हूं। तस्वीरों के ज़रिए अपनी राजनीति प्रदर्शित करने की रणनीति काफी परिपक्व हो चुकी है। इसका एक पैटर्न है। जनता के बीच दिखना है मगर जनता से ऊंचा दिखना है।
इनकी कल्पना का नेता महाबलशाली है। महाशक्ति हमेशा दूर के फ्रेम में होता है। अकेला दिखता है। उनका फ्रेम किसी स्वर्ण युग की गढ़ी गई कल्पना के नायक को गढ़ता हुआ लगता है जिसे देख कर जनता आह्लादित हुई जा रही है। अपना सौभाग्य समझ रही है। राजा महाराजाओं के इतिहास में दर्शन देने का स्पेस यानी जगह खास स्थान रखती है।
अमित शाह के ट्विटर हैंडल से जारी तस्वीरों के फ्रेम और कटेंट की एक व्यवस्था होती है, जिससे उनकी तस्वीरों का वर्चस्व देखने वालों के ज़हन पर कायम होता है। आप बीजेपी के किसी नेता के हैंडल पर जाइये, तस्वीरों के ज़रिए ख़ुद को देखने और दूसरों को दिखाने की एक परिपक्व व्यवस्था दिखेगी। उनकी पोलिटिक्स का टेक्स्ट विज़ुअल है यानी तस्वीरें हैं। बगैर चुनाव की प्रक्रिया से ग़ुज़रे आप कोई तस्वीर ट्विट नहीं करते हैं। पता चलता है कि नेता ने अपने लिए किन तस्वीरों का चुनाव किया है। उनका एंगल क्या है। उसमें वह कहां खड़ा है।
ठीक यही बात आप भाजपा के सामान्य नेताओं के सोशल मीडिया पेज पर भी देखेंगे। पूरी पार्टी और कार्यकर्ता अपनी राजनीति को एक तरह से देखने लगा है। एक तरह से दिखाने लगा है। पार्टी के भीतर एक किस्म का विज़ुअल आर्डर यानी दृश्य व्यवस्था कायम की गई है। इसका पैमाना भारत की राजनीति में कभी भी इतना बड़ा नहीं था।
राजस्थान के कुचामन सिटी में जनसभा को संबोधित करने की जो तस्वीर ट्विट हुई है उसे देखते ही लगता है कि अमित शाह ख़ाली मैदान को संबोधित कर रहे हैं। उस फ्रेम में डी-एरिया काफी बड़ा लगता है। जनता की भी तस्वीर है मगर वो तस्वीर अलग से जनता के करीब जाकर ली गई है। मंच से ली गई तस्वीरों में जनता बहुत दूर नज़र आती है। कोटपुतली, राजस्थान की तस्वीर में भी डी-एरिया काफी बड़ा नज़र आता है।
करौली की सभा की तस्वीर से भी यही लगता है। तेलंगाना के आदिलाबाद में डी-एरिया और भी खास तरीके से उभारा गया है। डी-एरिया के बाद भी लकड़ी की बल्लियों से गलियारा से बनाया गया है। एक तस्वीर मध्य प्रदेश के बालाघाट की सभा की है। काफी बड़ा डी-एरिया लगता है। पांढुर्णा (छिंदवाड़ा) की सभा की तस्वीर भी आप देख सकते हैं। मध्यप्रदेश के धार के कुक्षी की सभा की तस्वीर में लगता है जनता को दिखाई ही नहीं दिया होगा कि अमित शाह आए हैं।
रोड शो की भी तस्वीरें ट्विट की गई हैं। जिनमें अमित शाह जनता के बीच दिखते हैं मगर काफी ऊंचाई से दिखते हैं। कुछ तस्वीरों में वे गाड़ी से बाहर आकर जनता का अभिवादन करते दिखते हैं। वैसे रोड शो की तस्वीरें क्लोज़ अप करने पर उसमें बीजेपी के कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में नज़र आते हैं। पार्टी की टोपी पहने हुए, गमझा डाले हुए हर कार्यकर्ता मुस्तैद दिखता है। गाड़ियों का लंबा काफिला दिखता है। यह भी सामान्य बात नहीं है कि कोई पार्टी अध्यक्ष अपनी पार्टी को इस तरह सक्रिय रखता है। पर हमारा फोकस डी-एरिया वाली तस्वीरों पर है।
क्या अमित शाह को डी-एरिया से ख़ास लगाव है? क्या उनका डी-एरिया बाकी नेताओं से बड़ा होता है? इसकी जानकारी मुझे नहीं है। होती भी तो यहां नहीं लिखता। यह उनकी सुरक्षा का प्रश्न है। पर यह जानना चाहूंगा कि क्या फोटोग्राफर अपनी तस्वीरों में जानबूझ कर डी-एरिया को खास तौर से उभारते हैं, ताकि अमित शाह का कदम जनता से दूर और जनता से ऊंचा लगे।
मुरैना की सभा का डी एरिया देखते हुए ख़्याल आया कि अमित शाह की सभाओं का यह डी एरिया काफी सजा संवरा लगता है। उसके बाद मैंने सारी तस्वीरों को फिर से देखा। अमित शाह की सभा के डी-एरिया की सजावट खास तौर से की जाती है ताकि वहां की ज़मीन की ऊबड़-खाबड़ मिट्टी न दिखे।
मोदी की छत्रछाया में अमित शाह का कभी इस तरह से विश्लेषण नहीं होता। वे इस वक्त भारत की राजनीति के सबसे सक्रिय नेता हैं मगर कुछ ख़ास फ्रेम में देखे जाने के कारण उन फ्रेम का विश्लेषण नहीं हो पा रहा है जो वे हर दिन अपने लिए गढ़ रहे हैं।
मैं बात कर रहा हूं उस फ्रेम की जो सोहराबुद्दीन, तुलसीराम प्रजापति, कौसर बी के कथित फर्ज़ी एनकाउंटर से बनता है। जिसकी सुनवाई करते हुए एक जज जस्टिस लोया की संदिग्ध स्थिति में मौत हो जाती है। जय शाह का मामला तो है ही। हाल ही में सीबीआई से जुड़े रहे दो आईपीएस अफसरों ने अपनी जांच में अमित शाह की भूमिका सामने आने की बात को दोहराया है। वही सीबीआई जो अमित शाह को ट्रायल कोर्ट से बरी किए जाने के फैसले को चुनौती नहीं देना चाहती है।
अमित शाह के साथ एक भय तो चलता ही है। भय से एतराज़ है तो आप दबंगई लिख सकते हैं। वे ढीले-ढाले नेता कत्तई नहीं लगते हैं। अमित शाह इन पुराने फ्रेम से बेपरवाह हैं। वे अपने नए-नए फ्रेम को लेकर संजीदा हैं। उसमें रचे-बसे लगते हैं।
अमित शाह के हैंडल पर एक ऐसे अमित शाह दिखाई देते हैं जो अपने नेता मोदी को चुनौती नहीं देते हैं। मोदी के नंबर दो होने के बाद भी अपनी सभाओं में अमित शाह नंबर वन की तरह अवतरित होते हैं। आखिरी बार आपने किस चुनाव में मोदी और शाह को एक ही मंच पर देखा था?
अमित शाह के ट्विटर हैंडल को काफी नीचे तक स्क्रोल किया, हर रैली में अमित शाह की रैली अमित शाह की है। वे न तो मोदी के मंच पर हैं और मोदी उनके मंच पर हैं। वैसे मैंने अमित शाह को मेडिसन स्कावयर की तरह विदेशों में कोई शो करते नहीं देखा? कहीं ऐसा तो नहीं दोनों एक दूसरे के क्षेत्र का सम्मान करते हैं, किसी का रास्ता नहीं काटते हैं!
वैसे भाजपा के एनआरआई समर्थक अमरीका में अमित शाह की कोई बड़ी रैली क्यों नहीं कराते हैं या अमित शाह ही जाने से मना कर देंगे? क्या कीजिएगा, राजनीतिक लेखन में कयास आ ही जाते हैं।
अमित शाह के हैंडल को देखकर बीजेपी का कार्यकर्ता समझ सकता है कि उनका अध्यक्ष स्वतंत्र रूप से पेश आ रहा है। शाह के पहनावों में भी एक खास किस्म की निरंतरता और व्यवस्था होती है। उनके कपड़ों को लेकर कोई ब्रांड भले न बना हो लेकिन वे ठीक-ठाक स्टाइल वाले नेता हैं। इतना आर्डर यानी इतनी व्यवस्था के साथ कोई नेता चले तो बाकियों को भी चलना पड़ता होगा।
वैसे मोदी-शाह की राजनीति ने भाजपा कार्यकर्ताओं के पब्लिक में पहनावे को पहले से ज़्यादा व्यवस्थित किया है जो उनकी विज़ुअल हेजमनी यानी दृश्यों की वर्चस्वता की रणनीति का ही हिस्सा है।
मैंने अमित शाह की कम सभाएं ही कवर की है। पिछले तीन साल के अमित शाह की सभाओं को शायद ही कवर किया है। इसलिए मेरे लिए यह कहना उचित नहीं होगा कि अमित शाह की सभा की तस्वीरों में दिखने वाली भीड़ खुद से आ रही है या कार्यकर्ताओं की मेहनत का नतीजा है।
वैसे तो सभी नेताओं की सभा में भीड़ लाई जाती है, मगर लेकिन तब भी जिज्ञासा तो है कि क्या लोग वाकई अमित शाह को सुनने के लिए दौड़े-दौड़े जाते होंगे, जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी के लिए जाते होंगे। सिर्फ सवाल है। जानकारी नहीं होने के कारण कोई राय नहीं है। उनकी सभा कवर करने वालों को लिखना चाहिए। क्या वे शाह की सभा को गंभीरता से नहीं लेते हैं? मेरी राय में अमित शाह की सभाओं को गंभीरता से लेना चाहिए। वर्ना आप राजनीति के ईमानदार छात्र नहीं हो सकते हैं।
इसलिए आप डी-एरिया को फिर से देखिए। जिसके एक छोर पर अमित शाह नज़र आते हैं। दूसरे छोर पर कहीं गुम जनता नज़र आती है। दोनों के बीच की दूरी आवाज़ से तय होती होगी। डी-एरिया की यह दूरी आंख मिलाकर बात करने के नैतिक संकट से भी बचाती होगी। क्या हमारे नेता बोलते वक्त मंच से नीचे बैठी जनता से आंखें मिलाते हैं? क्या इस पर कोई अध्ययन हुआ है?
अमित शाह डी-एरिया के बादशाह हैं। डी-एरिया अमित शाह को अलग तरीके से परिभाषित करता है। इसमें एक नेता हमेशा कद्दावर दिखता है। जनता बिन्दु की तरह नज़र आती है। उनकी सभाओं का डी-एरिया तस्वीरों में उन्हें उस महाराजा की तरह स्थापित करता है जिसकी आलोचना वे अपनी भाषणों में करते हैं, मगर जिसकी आरज़ू उनके इंतज़ामों में दिखती है।
(यह लेख रवीश कुमार के फेसबुक से।)