अभी—अभी राष्ट्रपति पद को लेकर मतदान खत्म हुआ है। सत्ताधारी और विपक्ष दोनों के ही राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार दलित थे। जाहिर है कोई दलित राष्ट्रपति ही अगले पांच वर्षों तक इस पद पर सुशोभित होगा, लेकिन सवाल यह कि वह दलितों के करोड़ों की आबादी के किस काम का होगा...
राम निवास
दलितों पर लगातार बढ रहे अत्याचार और उनके प्रतिरोध व अपने अस्तित्व की तीव्र लड़ाई के कारण ही आज सत्तापक्ष व विपक्ष एक बड़ी आबादी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हुए हैं।
एक ओर वर्तमान भाजपा सरकार अपने मोहिनी मंत्र के रूप मे 'रामनाथ कोबिंद' को प्रस्तुत कर रही है तो दूसरी तरफ 17 विपक्षी दल मिलकर दूसरी महिला व दलित राष्ट्रपति के रूप में 'मीरा कुमार' पर अपना दांव खेल रहे हैं।
पूरे देश में पिछले कुछ समय से दलितों के ऊपर दमन व शोषण काफी तीव्र हो गया है। यहां तक कि उन्हें इन्सान भी नहीं समझा जाता। पशु के संरक्षण के प्रति सरकार कानून बना रही है और यहां तक कि उनका आधार कार्ड तक बनाने की योजना है, जबकि दूसरी ओर किसी इन्सान को दलित कहकर उन्हें सरेआम मार दिया जाता है। उनके छू लेने से कोई भी वस्तु अपवित्र हो जाती है।
वर्तमान सरकार में तो यह हमले और ज्यादा बढ़ गये हैं - ऊना, दादरी, लातेहर, अलवर, सहारनपुर - ये सभी घटनांए संघ और भाजपा का इस देश को हिन्दूराष्ट्र बनाने की बेताबी का नतीजा हैं।
कहीं पूरी दलित आबादी को मार—मार कर पलायन करने पर मजबूर किया जाता है तो कहीं उनको पूरे समाज के समक्ष निर्वस्त्र कर दिया जाता है और कानून की आंखों पर तो पहले ही पट्टी बंधी रहती है। गुजरात, यूपी, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा में दलितों पर दमन पहले से ज्यादा बढ़ गये हैं।
अपमानजनक स्थितियों की एक बानगी राजस्थान के दौंसा जिले में उजागर हुई। यहाँ बीपीएल कार्ड धरकों को अपने घर पर लिखना होता है कि 'मैं गरीब हूँ, मैं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत राशन लेता हूँ।'
इन सभी उत्पीड़नों के जवाब में दलित आबादी का प्रतिरोध भी बढ़ रहा है। गुजरात के ऊना में तथाकथित गौरक्षकों द्वारा दलित युवकों की बेरहमी से पिटाई के विरोध में 20 हजार दलितों ने एक साथ शपथ ली कि कभी मृत पशुओं की खाल निकालने का काम नहीं करेंगे और सरकार से मांग की कि उनका जातिगत पेशा छुड़वाकर उन्हें 5 एकड़ जमीन आंवटित करे।
उनके इस संघर्ष ने सरकार को हिलाकर रख दिया और कई जगहों पर सरकार को जमीन आंवटित करनी पड़ी।
रोहित बेमुला की सांस्थानिक हत्या के खिलाफ भी एक बड़ा आन्दोलन पूरे देश में हुआ। वहीं सहारनपुर के दलितों पर दमन के खिलाफ भी भीम आर्मी द्वारा एक जनसैलाब खड़ा कर विरोध प्रकट किया गया।
ऐसे ही अलग अलग राज्यों में छोटे—बड़े दलित आन्दोलन लगातार चल रहे हैं और सरकार उनका ध्यान इन आन्दोलनों से भरमाने और दलितों का हितैषी साबित करने के लिए दलित व्यक्ति को राष्ट्रपति के पद पर आसीन करने की कवायद कर रही है। अपने को पिछड़ता देख विपक्ष भी इसी होड़ में शामिल है।
असल सवाल यह है कि क्या दलित समाज से राष्ट्रपति चुने जाने से दलितों को मनुष्य का दर्जा मिल पाएगा और उन पर हो रहे दमन और अत्याचार बंद हो जांएगे?
हमारे सामने पहले भी ऐसे उदाहरण रहे हैं कि यदि किसी जाति विशेष पर अत्याचार ज्यादा बढ़ता है तो सरकार उन्हें लुभाने का प्रयास करती है। यह यूँ ही नहीं है कि सन् 1984 में सिक्ख दंगा हुआ तो, उस समय सिख राष्ट्रपति के रूप में ज्ञानी जैल सिंह जी को चुना गया।
सन् 2002 के गुजरात दंगे में मुस्लिमों के भारी कत्लेआम के बाद डॉ. अब्दुल कलाम आजाद जी को भारत का राष्ट्रपति बनाया गया। लेकिन दोनों ही स्थितियों में दमन खत्म नहीं हुआ।
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने तो उसी समय दलित को एक समान दर्जा देने की बात की, लेकिन आज तक भी उन्हें इन्सान नहीं समझा जाता।
ऐसे में यह देखना होगा कि दलितों पर बढ़ रहे हमलों के बीच दलित राष्ट्रपति किस हद तक दलितों के जख्मों में मरहम लगा पाएंगे।
नोट : फोटो हरियाणा के फरीदाबाद के सुनपेड़ कांड की है, जिसमें दबंगों ने घर में सोते हुए एक दलित परिवार पर पेट्रोल छिड़ककर उन्हें आग के हवाले कर दिया था. घटना में एक ही परिवार के चार लोग बुरी तरह झुलस गए और 2 बच्चों की मौत हो गई थी।
(लेखक राम निवास मजदूर आंदोलन और मेहनतकश पत्रिका से जुड़े हैं।)