आदिवासी युवक को कुत्ते ने काटा, 7 अस्पतालों में ले गया पिता लेकिन कोरोना के चलते इलाज न मिलने से मौत
चिकित्सीय लापरवाही के कारण 24 वर्षीय आदिवासी की असमय मौत हो गई। अपने नौजवान बेटे इन्दरजीत की मौत को लेकर उनके पिता रामनाथ कंवर बताते हैं कि जनता कर्फ्यू के दिन (22 मार्च) को एक पागल कुत्ते ने उनके बेटे सहित 3 अन्य बच्चों को भी काट दिया था...
रांची से विशद कुमार की रिपोर्ट
जनज्वार। सामाजिक और व्यवस्थागत एजेंसियों में डॉक्टर को मानव जीवन का सबसे बड़ा रक्षक माना जाता जाता है, उनका कर्म धर्म मानव सेवा से ही जुड़ा होता है। ऐसे में यह रक्षक ही जब संवेदनहीन हो जाय, अपने मानव सेवा धर्म को भूल जाए तो आम आदमी की तकलीफों का सहारा कौन होगा? यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है जब कोरोना संकट में लगा इस लॉकडाउन में किसी भी आपातकालीन स्थिति में चिकित्सा बहुत जरूरी हो जाए।
यह सच है कि आज कोरोना एक वैश्विक महामारी का रूप ले चुका है लेकिन कोरोना संक्रमण की आड़ में दूसरी वजहों से हो रही मौंतों को नजरअंदाज कर दिया जाए, यह मानवीय संवेदना के विपरीत ही होगी। कहना ना होगा कि लॉकडाउन की सबसे ज्यादा मार गरीबों और पहले से पीड़ित बीमार लोगों पर पड़ी है। आए दिन इसके इसके कई उदाहरण देखने को मिल रहे हैं।
संबंधित खबर : झारखंडी मजदूरों का आरोप, बेंगलुरु में बिल्डरों के गुंडों के साथ मिलकर पीट रही पुलिस कि हम न लौट पायें घर
बता दें कि पिछले 9 अप्रैल को लॉकडाउन की वजह से लातेहार जिलान्तर्गत महुआडांड़ के सोहरपाठ निवासी 24 वर्षीय इन्दरजीत कंवर की असमय मौत चिकित्सीय लापरवाही के कारण हो गई। अपने नौजवान बेटे इन्दरजीत की मौत के दुःख में उनके पिता रामनाथ कंवर आंखों में आंसू लिए कहते हैं कि जनता कर्फ्यू के दिन (22 मार्च) को एक पागल कुत्ते ने उनके बेटे सहित 3 अन्य बच्चों को भी काट खाया था।
जबकि अगले दिन देशव्यापी तालाबन्दी के कारण कहीं जाना संभव नहीं था। उसके बाद से अब तक लगातार लॉकडाउन की अवधि बढ़ती रही। 6 मई को मृतक इन्दरजीत में कुत्ते के काटने के संक्रमण दिखाई देने लग गये थे। उसे किसी तरह महुआडांड़ के एक निजी अस्पताल में ले जाया गया। वहां तुरन्त उसे स्लाइन चढ़ाया जाने लगा लेकिन उसकी हालत जब और खराब होने लगी तो चिकित्सकों ने उसे सरकारी अस्पताल भेज दिया। सरकारी अस्पताल के चिकित्सकों ने भी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सदर अस्पताल लातेहार भेज दिया। जहां 7 मई को बेहत्तर इलाज के लिए उसे रिम्स, राँची रेफर कर दिया गया।
लेकिन रिम्स में कोरोना इलाज को छोड़कर दूसरे सभी तरह के इलाज बन्द होने की वजह बताकर उसे भर्ती नहीं लिया गया। वहां किसी ने परिजनों को बताया कि पुराना थाना, रांची के पास एक अस्पताल है, जहां ऐसे लोगों का ईलाज किया जाता है। वहां उसे कुछ इंजेक्शन दिये गये लेकिन स्थिति इतनी गंभीर हो चुकी थी कि वहां के चिकित्सकों ने भी जवाब दे दिया और कहा कि आपलोग इसे कोलकाता ले जाइए, वहीं उसका इलाज हो सकता है। लेकिन इन्दरजीत के पिता रामनाथ कंवर की आर्थिक हालत भी ऐसी नहीं थी कि वह उसे लेकर कोलकाता जैसे बड़े शहर में ले जाकर उसका इलाज कराये।
संबंधित खबर : झारखंड के 19 आदिवासी मजदूर तमिलनाडु में अनाज खत्म होने के डर से आधा पेट खाकर काट रहे दिन
चारों तरफ से निराश रामनाथ कंवर अपने बेटे को घर आ गये। जहां परिवार के लोग असहाय होकर अपने नौजवान बेटे के जीवन भगवान से दुआ मांगते रहे और जड़ी-बुटी का इलाज कराते रहे। अंतत: शनिवार 9 मई की रात्रि के साढे़ 9 बजे इन्दरजीत दम तोड़ दिया। उसकी मौत की खबर से पूरे गांव के लोग बहुत भयभीत हो गए हैं क्योंकि गांव के अन्य तीन नाबालिग बच्चे क्रमशः 4 वर्षीय सुद्धी कृति, 6 वर्षीय गायत्री कुमार और 7 वर्षीया अनिता कुमारी को भी उसी पागल कुत्ते ने काटा था।
नरेगा वाच के राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज बताते हैं कि सूचना के बावजूद भी स्वास्थ्य प्रशासन इस दिशा में गंभीर नहीं है। अब तक भी अस्पताल में ऐंटी रैबिज इंजेक्शन उपलब्ध नहीं कराया गया है। बच्चों के अभिभावक जो थोड़े आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे निजी मेडिकल दुकान से एक इंजेक्शन के लिए 500 रूपये देकर इलाज करवा रहे हैं। उन्हें कहा गया है कि उनको नियमित रूप से 5 सूई लेने होंगे। जिनके माता पिता गरीब हैं, वे अभी भी जड़ी बूटी के इलाज पर निर्भर हैं।
वहीं लोहरदगा जिला के सेन्हा प्रखण्ड के अन्तर्गत बूटी ग्राम निवासी अर्जुन भगत जो कैंसर से गंभीर रूप से पीड़ित हैं, उनका इलाज टाटा मेमोरियल अस्पताल मुम्बई से चल रहा है। पिछले 45 दिनों के इस लॉकडाउन की वजह से वे नियमित चेक अप कराने भी नहीं जा पाये हैं और अब तो दवाइयां भी नहीं ले पा रहे हैं। ऐसे में उनकी स्थिति को समझा जा सकता है कि किस गंभीर संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
बता दें कि 13 की रात को बोकारो जिले के एक आदिवासी बस्ती जयपाल नगर में 18 वर्षीय राजू अल्डा, पिता- सुरेश अल्डा को रात में सांप ने काट लिया। चिकित्सकों के अभाव के कारण गांव वालों ने अपनी चिकित्सा पद्धति के तहत 'तिकी' नामक एक कीड़ा को सांप के काटे की जगह पर चिपका दिया, जिसके बाद उस कीड़े ने सांप का सारा जहर खींच लिया। पता नहीं उस कीड़े ने जहर को खींच लिया था या सांप जहरीला नहीं था, कहना मुनासिब नहीं होगा। क्योंकि लड़के को कुछ नहीं हुआ, वह पूर्ण स्वस्थ्य हो गया।
संबंधित खबर : झारखंड के पलामू मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों की संवेदनहीनता का दंश झेलते आदिवासी, गंभीर रोगी अस्पताल से लौट रहे घर
उस कीड़े के बारे में पूछे जाने पर बस्ती वालों ने बताया कि यह सिंदूर में ही रहता है और सिंदूर ही खाकर जीवित रहता है। यह कीड़ा सुसुप्ता अवस्था में सिंदूर में पड़ा रहता है, लेकिन जब सांप के काटे की जगह रखा जाता है तो यह सक्रिय होकर जहर खींचना शुरू कर देता है। जनजाति समाज के अगुआ व पत्रकार योगो पुर्ती बताते हैं कि इस चिकित्सा पद्धति को होड़ोपैथी कहते हैं।
बता दें कि चिकित्सीय लापरवाही के कारण आदिवासी समाज अपनी पुरानी पद्धति पर लौटने को बाध्य है, जिस बावत जेम्स हेरेंज का कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह अपने प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य अधिकार को सुनिश्चित करे।