झारखंड के 19 आदिवासी मजदूर तमिलनाडु में अनाज खत्म होने के डर से आधा पेट खाकर काट रहे दिन
ये श्रमिक 450 रुपये दिहाड़ी पर ईंट बनाने का काम करते हैं। दुमका के एक स्थानीय व्यक्ति ही इन्हें छह महीने पहले रोजगार दिलाने की बात कह कर तमिलनाडु ले गया था और ईंट कारखाने में काम पर लगवा दिया था...
दुमका से राहुल सिंह की रिपोर्ट
जनज्वार ब्यूरो, दुमका। झारखंड के दुमका जिले के 19 मजदूरों का एक दल तमिलनाडु के इडोर के चिन्नीयामपल्लायम में फंसा है। यह दल पिछले डेढ महीने से कोरोना लाॅकडाउन के दौरान कामबंदी के कारण बेरोजगार हैं और उनके पास बचा कर रखे गए पैसे अब खत्म हो चुके हैं। ऐसे में ये अब आधे पेट खाकर पूरा दिन गुजराते हैं। इन्होंने अपने भोजन में कटौती इसलिए कर दी है ताकि इनका अनाज अधिक दिन तक चल सके। कुछ जगहों के लिए चली स्पेशल ट्रेन से इन्हें आसार बंधा है कि शायद ये भी अब वापस अपने घर जा सकेंगे, लेकिन वह कैसे और कबतक होगा इनमें से किसी को पता नहीं।
ये मजदूर दुमका जिले के काठीकुंड प्रखंड के हैं। इसमें से बडा भालकी गांव के सरोज हेंब्रम ने बताया कि वे लोग यहां टाइल्स ईंट बनाने वाले प्लांट में काम करते हैं। इन ईंटों का प्रयोग रेलवे स्टेशन व अन्य जगहों पर होता है। युवा उम्र के श्रमिकों के इस दल में तीन महिलाएं भी हैं।
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ये श्रमिक 450 रुपये दिहाड़ी पर ईंट बनाने का काम करते हैं। दुमका के एक स्थानीय व्यक्ति ही इन्हें छह महीने पहले रोजगार दिलाने की बात कह कर तमिलनाडु ले गया था और ईंट कारखाने में काम पर लगवा दिया था।
20 साल के सरोज हेंब्रम ने बताया कि वे लोग यहां रूम लेकर रहते हैं, पैसे कम खर्च हों और इसके लिए एक रूम में पांच लोग रहते हैं। शहर से दूर का इलाका होने के कारण एक रूम का किराया इन्हें एक हजार रुपया देना होता है।
सरोज का कहना है कि उनके साथ भाषा की समस्या भी है। वे लोग अभी तमिलनाडु में नए हैं और तमिल नहीं जानते हैं। इससे इन्हें स्थानीय अधिकारियों से संपर्क करने में भी दिक्कत होती है। ये लोग झारखंड सरकार व तमिलनाडु सरकार द्वारा किसी तरह की मदद मिलने से इनकार करते हैं। जिस ईंट फैक्टरी में ये काम करते हैं उससे भी इन्हें किसी तरह की मदद नहीं मिली है।
सरोज व उनके साथियों के पास स्मार्ट फोन तो है लेकिन इनमें से किसी ने झारखंड सरकार के सहायता एप को इंस्टाल नहीं किया है, जिसके तहत एक हजार रुपये की सहायता देने का एलान किया गया है। हालांकि इनके पास झारखंड का बैंक खाता है।
वहीं इस दल के बासित सोरेन ने बताया कि आने के बाद दो-तीन महीने तो ठीक से काम चला लेकिन बाद में कोरोना महामारी की वजह से रोजगार की दिक्कत हो गयी। अब हमारे पैसे भी खत्म हो गए हैं और कहीं से कोई मदद नहीं मिल रही है। ये कहते हैं कि यहां आलू 50 रुपये किलो तक मिल रहा है और चावल को छोड़ कर हर चीज महंगी हो गयी है।
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इन लोगों की दिक्कत यह है कि इनकी पहुंच न तो अपने जनप्रतिनिधि के पास है और न ही सरकार के सूचना तंत्र तक। इन्हें यह भी जानकारी नहीं है कि राज्य सरकार प्रवासियों की वापसी के लिए कौन से कदम उठा रही है। ये स्पेशल ट्रेन के इंतजार में हैं, ताकि अपने प्रदेश वापस लौट सकें।
श्रमिकों के नाम इस प्रकार हैं -
राकेश मरांडी, सरोज हांसदा, बालू हांसदा, रिखा मुर्मू, मंटू सोरेन, खुशबू मरांडी, सुजीत सोरेन, रोहित सोरेन, पोलुस सोरेन, कजेन सोरेन, पकलू मरांडी, हंता सोरेन, शिबूदन मरांडी, विमल पावरिया, छुट्टू हेंब्रम, मनोज हांसदा, सोलेमन टुडू, परमुज टूडू, सोना हेंब्रम।