ये पर्यावरणविद् अध्ययन कैसे करते होंगे?

Update: 2017-08-18 14:06 GMT

भीमकाय डैम बनाकर जंगलों को चौपट करने की मुहिम चली है। कई घने जंगलों के बीच बेवजह सड़कें काट दी गई हैं, जिनका किसी को लाभ नहीं होता, ये सड़कें केवल वन तस्करों को ही फायदा पहुंचाती हैं...

चंद्रशेखर जोशी

उत्तराखण्ड। पिछले कुछ सालों से जंगली जानवरों के हमले बढ़ते जा रहे हैं। कई लोग वन्यजीवों के शिकार हो चुके हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में तो अब खेती करना भी मुश्किल हो गया है। जानवरों के हमले की खबरों में एक लाइन पर्यावरणविदों या जंगल के अधिकारियों की भी होती है, ये कहते हैं कि जंगलों में मानव दखल से वन्य जीव हिंसक हो रहे हैं। ये बात मुझे खटकती है।

यही कोई 20-25 साल पहले तक गांवों में घनी आबादी थी। हर परिवार के पास एक दर्जन तक मवेशी होते थे। जानवरों को अलसुबह चुगने के लिए जंगलों में ले जाया जाता था। मकान भी लकड़ी के ही थे, ग्रामीण जंगलों से पेड़ काटकर मकान बनाते थे।

जलौनी लकड़ी, पालतू जानवरों का चारा, मकान के लिए लकड़ी-पत्थर आदि सबकुछ जंगलों से ही लाया जाता था। ग्रामीण उजाला होने से दिन ढलने तक जंगलों में रहते थे। घने जंगलों के बीच सफेद पगडंडियों का जाल दूर से चमकता था।

गांव के आसपास बेर, किलोमोड़े, कलोंद, हिसालू, घिंघारू आदि कंटीली झाड़ी उगने की हिम्मत नहीं करती थी, यदि कोई चुपके से उग आई तो जानवर पत्ते चट करते थे और लकड़ी चूल्हे में जलती थी।

अब गांवों के आधे से अधिक भवन खंडहर बन गए हैं, जो बन रहे हैं तो ईंट-सीमेंट के, रसोई गैस से जलती है, पूरे गांव में मवेशियों की कुल संख्या दर्जनभर भी नहीं है। गांव के खंडहर भवन जंगली जानवरों का डेरा बन गए हैं, गांव के पास तक जंगल उग आया है...

अब एक ही रास्ता बचा है जो शहर की ओर जाता है... बाकी कसर सरकारों ने पूरी कर दी है। विशालकाय वन भूभाग को घेर कर सेंचुरी, अभ्यारण्य व जंगल पार्क बना दिए हैं। भीमकाय डैम बनाकर जंगलों को चौपट करने की मुहिम चली है। कई घने जंगलों के बीच बेवजह सड़कें काट दी गई हैं, जिनका किसी को लाभ नहीं होता, ये सड़कें केवल वन तस्करों को ही फायदा पहुंचाती हैं।

तो सरकार! क्या ये जंगल में मानव दखल है या मानव बस्ती में जंगल और सरकार का दखल?

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