नेपाली भाषा की चर्चित कवि पवित्रा लामा की कविताएं

Update: 2017-10-29 11:27 GMT

'रोहिंग्या और आहत बुद्ध' पवित्रा लामा की नेपाली कविता की हिंदी अनुवाद है। पवित्रा लामा वर्तमान दौर की नेपाली भाषा की बहुत ही चर्चित तथा लोकप्रिय कवि हैं। उनका कविता संग्रह 'सभ्यता की पेंडुलम' खासा चर्चित रहा है। मूल रूप से डुवार्स की पवित्रा की शादी दार्जीलिंग में हुई है। दार्जीलिंग में राजस्व भूमि अधिकारी पवित्रा नेपाली साहित्य में NBU से PG में टापर रही हैं। उनकी समकालीन विसंगतियों पर तीक्ष्ण आलोचना करती हुई कविताएँ ही नहीं अन्य लेख और रचनाएं भी भारत और नेपाल की पत्रिकाओं में समान रूप से प्रकाशित होती रहती हैं।

पवित्रा वर्तमान में अपने समकालीन लेखकों/कवियों की तुलना में चर्चित और अत्यंत मुखर हैं। इनकी कई अन्य कविताएं भी अत्यंत चर्चित रही हैं। नारीवादी दृष्टिकोण पर ही इनकी कविताएँ अधिक फोकस करती हैं। आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ कविताएं— जनार्दन थापा

चला उसकी खातिर
कुछ सड़ी चीजों की मानिंद
तीखी बदबू के साथ
वो मेरे करीब से गुजर गई,
देखा, तो कूड़े के बड़े से बस्ते के नीचे
वो दबी सहमी नजर आई।

उसकी मौजूदगी से परेशान सारे
तंग लग रहे थे सभ्यता के गलियारे
वो दिन दीवाली का था
हमारी ही तरह वह भी
बटोर रही थी जिन्दगी के उजाले
कूड़े के ढेर से।

ऐसे ही दिखी थी वह मुझे दशहरे के दिन भी,
कीचड़ सने पैरों को उठाए
एक हाथ में कनस्तर थामे
कुछ कुछ लगी थी मुझे
वह महिषासुर मर्दिनी की तरह।

महाशय!!
लाल किले की प्राचीर से जब
आप फहराते हैं राष्ट्रध्वज
वह मिठाई के लिए खड़ी होती है,
विडम्बना ये है कि
जब जब जहाँ भी वह खड़ी होती है
गुलामी की वह आखिरी कड़ी होती है।

नाम, जात, मजहब से परे
हजारों सवाल कुरेदकर
वह स्लम सुन्दरी कहीं खो जाती है,
हर जाड़े में जैसे गायब हो जाती है।

फिर अगले गणतंत्र दिवस तक
जाने कहाँ से इन तंग गलियारों में
कचरे का बस्ता थामे आ जाती है
कोई और ही स्लम सुंदरी।

महाशय, खेद प्रकट न करें,
कुछ चीजों का मरना बिल्कुल तय होता है
उन्हें न तो आपकी सुधारवादी
नीतियाँ बचा पाती हैं
न मेरी ईमानदार कविताएँ।

आप और हम
क्यों न कुछ करें
उस स्लम सुंदरी की खातिर

आप उतरवा लें राजपथ से योजनाओं का इश्तहार
आप म्यूट करवा दें चैनलों का झूठा समाचार
उड़ने दें खुले आकाश में ट्विटर की नीली चिड़िया
आप दिखा दें फेसबुक में अपना असली चेहरा
बस एक दिन के लिए।

मैं बस उसकी खातिर इतना ही करूँगी
बिना छापे ही डाल दूँगी
अपनी बेमानी, बोगस सारी की सारी कविताएँ
कूड़े के ढेर में ।

रोहिंग्या और आहत बुद्ध
ऐसी ही पूनम की रात थी जब
पड़ोसी की ठेलागाडी में
दो गठरी लादकर
दो नन्हे बच्चों को गोदी में उठाकर
छोड़ा था पुरखों की रखाइन भूमि
रिजवानुल ने।

पलटकर जब देखा उसने
धू धू कर जल रही उसकी अपनी बस्ती,
पहचान ही नहीं पाया वह
खुद अपनी ही घर की धुरी।
दड़बे की मुर्गियों को याद कर
उसका मन सहसा भर आया,
खलिहान के सुनहरी धान का ढेर
चाहकर भी वह भूल न पाया।

गहरी साँस भरके वह याद करता रहा
मस्जिद का आँगन, इमामबाड़ा,
गाँव के बीचोंबीच का चबूतरा
और घर के बगलवाले
तालाब जैसी डबडबाई आँखों से
टपकाता रहा विदाई के आँसू।

ऐसी ही एक रात, खुली आसमान में
ईद का नयाँ चाँद और तारा
जब कर रहे थे प्रेमिल चुम्बन,
अमीना को दिया था उसने
एक लाल गुलाब उसी चबूतरे के सामने।

और थी ऐसी ही अमावस्या की रात
उसकी बेगम अमीना बीबी ही नहीं
सलीमा, फिरोजा, मुमताज
और जिया की बलत्कृत लाशें
जब बिखरी पड़ी थीं
उसी चबूतरे के सामने।

अमीना की सुरमा भरी बड़ी—बड़ी आँखें
जिस पर वह फिदा हुआ करता था कभी
वहीं आँखें अब रातों दिन
पीछा कर रही हैं रिजवानुल का।

रिजवानुल की आस्था इस घड़ी
बूढ़े पीपल में लटकाये गये
रहीम और करीम की क्षत-विक्षत
मुर्दा शरीर के समान है
बिल्कुल मुर्दा!!

उपत्यका और घाटियों मे बहते बहते
दफा दफा का नरसंहार सहते सहते
रिजवानुल का अल्लाह मानो
अन्धा और बहरा बन चुका है
पृथ्वी का बोझ बन चुका है
बन चुका है मुहाजिर।

बंगाल की खाड़ी इस घड़ी
एथनिक क्लिन्जिंग का कर्ज चुकाते चुकाते
हो चुकी है लहूलुहान।

मानचित्र के लाल रंग को मिटाने की
जद्दोजहद में
एक भिक्टिम बुद्ध
पीपल के नीचे बैठकर चुपचाप
बहा रहा है पलायन के आँसू।

यादों की तालाब में डूबते उबरते
रिजवानुल जैसों के पास
अब केवल
भ्रम और भूख है
रोग और शोक है
इस घड़ी रिजवानुल का कोई देश नहीं
इस घड़ी रिजवानुल का कोई खुदा नहीं।

Similar News