जनकवि वरवर राव से जेल में छीन ली गयी है उनकी भाषा, कविता, कलम और किताबें
कवि वरवर राव को जेल गए एक साल हो चुके हैं पूरे, जीवन के शुरुआती दौर में नेहरू को आदर्श मानने वाले वरवर राव ने तेलगांना में जब किसान आंदोलन पर पुलिस और फौज का दमन देखा तब यह आदर्श बिखरने लगा था. वरवर राव को देश जनता के कवि के रूप में याद करता है...
पिछले दो दशकों से उनको देख-पढ़ रहे राजनीतिक कार्यकर्ता अंजनी कुमार की निगाह में कवि वरवर राव
तीन दिन पहले 28 अगस्त को वरवर राव को जेल में बंद हुए कुल एक साल पूरे हो गये। हैदराबाद के अपने आवास से जेल यात्रा पर जाते हुए उनकी तनी हुई मुठ्ठी और आत्मविश्वास भरी मुस्कराहट एक आह्वान की तरह बार-बार उभर कर आती है और चुप्पियों के मंच पर खड़ी हो जाती है।
कब डरता है दुश्मन कवि से
जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं
वह कैद कर लेता है कवि को।
फांसी पर चढ़ाता है
फांसी के तख्ते के एक ओर होती है सरकार
दूसरी ओर अमरता
कवि जीता है अपने गीतों में
और गीत जीता है जनता के हृदय में...
बेंजामिन माॅलेस की याद में लिखी वरवर राव की कविता ‘कवि’ उनका अपना एक आत्मकथ्य जैसा है।
वरवर राव आने वाले 3 नवम्बर को 80 साल के हो जायेंगे। जीवन के पिछले 50 सालों में जेल, जानलेवा हमला, जान से मारने की धमकी और झूठे केसों का सिलसिला उन्होंने वैसे ही झेला है जैसे इस देश का आम जन झेलता आ रहा है।
उन्हीं के शब्दों में -
दरवाजे को लात से मारकर खोला है
घर में घुसकर
जूड़ा पकड़कर मुझे खींचा है
मारा है।
दी है गंदी गालियां...
निर्वस्त्र किया है, और क्या कहूं...
केरल की तंकमणि गांव की एक महिला पर खाकी वर्दी के अत्याचार पर यह लिखी कविता समय को लिखने की तरह था जो अनवरत बीतता चलता ही आ रहा है।
उनकी जीवनसाथी पी. हेमलथा ने 19 जुलाई, 2019 को महाराष्ट्र के गवर्नर को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने याद दिलाया हैः ‘आज, बहुत से ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि नौ आरोपियों जिसमें वरवर राव भी शामिल हैं, को जानबूझकर अवैधानिक तरीके से षडयंत्र के केस में फंसाया गया है जिससे कि हिंसा के असल दोषियों को बचाया जा सके। वस्तुतः वरवर राव के मामले में इस तरह के झूठे केस नया नहीं है। पिछले 46 सालों में, जब वह पहली बार 1973 में मीसा के तहत गिरफ्तार किये गये थे तब उन पर 25 केस लगाये गये थे। इसमें सभी तरह के गंभीर आरोप थे। इसमें हत्या, हत्या करने का प्रयास, विस्फोटक भेजना, धमकी, हथियारों का जुटाना, प्रशासकीय नौकरों के कामों को करने से रोकना जैसे आरोप थे, जबकि इन 25 माामलों में से किसी को भी पुलिस सिद्ध नहीं कर पायी। अदालत ने इन सभी मामलों से वरवर राव को बाइज्जत बरी किया। हमारा विश्वास है कि उपरोक्त जैसे ही यह केस भी कानून की नजर में नहीं टिकेगा।’
लेकिन 80 साल की होती उम्र में जब जेल का फर्श ही बिस्तर हो जाये, बैठने के लिए सिर्फ अपनी रीढ़ का सहारा हो, मिलने के लिए पत्नी और तीन बेटियों को ही अनुमति हो, लिखने-पढ़ने की सुविधा न हो और उससे भी अधिक वह अपनी भाषा और साहित्य से वंचित कर दिया गया हो, तब इस कवि के हिस्से में क्या बचा है!
पी. हेमलथा ने गवर्नर को लिखे पत्र में मांग किया है, ‘पिछले 60 सालों से वरवर राव तेलुगू साहित्य का विद्यार्थी, शिक्षक, कवि और लेखक हैं। लेकिन पिछले आठ महीनों से तेलगू में लिखे एक पत्र से भी उन्हें वंचित कर दिया गया है। कम से कम उन्हें तेलुगू किताबें और अखबार मुहैया कराया जाए।’
भीमा कोरेगांव-एलगार परिषद केस में पुलिस ने अभी तक साढ़े सात हजार पेज की चार्जशीट दाखिल की है। आरोपियों को ‘अर्बन नक्सल’ नाम दिया गया। वकील, लेखक, प्रोफेसर, कवि, संपादक, शोध छात्र से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं की जो फेहरिस्त इस केस से जोड़ दी गयी है उससे अर्बन नक्सल का दायरा बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, और यहां तक कि कविता लिखने के दायरे तक को अपने भीतर समेट लिया है।
1970-80 के दशक में साहित्य में नक्सल होना एक आरोप की तरह आता था। आज यह अर्बन नक्सल के रूप में अवतरित हुआ है। इसने अपने दायरे का विस्तार शहरी जीवन में सक्रिय किसी भी नागरिक को अपने चपेट में ले लेने के लिए काफी है। यह ठीक वैसे ही फैला है जैसे देशद्रोह का दायरा फैला है। कई बार ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे लगते हैं।
एक नागरिक जीवन को जेल के अंदर और बाहर उसकी भाषा, अध्ययन, लेखन और बहस, समाज और राजनीति से जुड़े उसके सरोकारों और हिस्सेदारी से काट देने, अवैधानिक बना देने और देश के खिलाफ षडयंत्र रचने से जोड़कर अभियुक्त बना देने का यह सिलसिला नया नहीं है, लेकिन अपनी भयावहता में इतना बड़ा जरूर हुआ है कि चुप्पी भी एक विकल्प बनने लगा है।
वरवर राव अपनी कविता ‘मूल्य’ की शुरुआत इस तरह करते हैं-
हमारी आकांक्षाएं ही नहीं
कभी कभी हमारे भय भी वक्त होते हैं।।
बातों की ओट में
छुपे होते हैं मन की तरह
कार्य में परिणत होने वाले
सर्जना के मूल्य।।
लेकिन वह ‘दुश्मन’ को यह बताने से नहीं चूकते -
मैंने बम नहीं बांटा था
ना ही विचार
तुमने ही रौंदा था
चींटियों के बिल को
नाल जड़े जूतों से
रौंदी गई धरती से
तब फूटी थी प्रतिंहिंसा की धारा
मधुमक्खियों के छत्तों पर
तुमने मारी थी लाठी
अब अपना पीछा करती मधुमक्खियों की गूंज से
कांप रहा है तुम्हारा दिल!
वरवर राव की कविताओं के 16 से अधिक संग्रह आ चुके हैं। तेलुगू भाषा में हाल ही उनकी संपूर्ण रचनावली छपकर आई। उन्होंने किसान और आदिवासी समुदाय की लड़ाई लड़ने वाले सैकड़ों लेखकों और उपन्यासकार, कवियों की पुस्तकों की भूमिका, प्रस्तावना लिखकर तेलुगू साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने साहित्य पर ‘तेलगांना मुक्ति संघर्ष और तेलगू उपन्यास : साहित्य और समाज के अंतर्संबंधों का अध्ययन’ शोध पत्र लिखे।
वरवर राव ने न्गुगी वा थियांगो की पुस्तक डीटेन्ड और डेविल आन द क्रास और अलेक्स हेली के रूट्स जैसे उपन्यासों से लेकर दसियों पुस्तकों का अनुवाद कर तेलगू भाषा का अन्य भाषा की रचनाओं से रू—ब—रू कराया। इस विशाल रचना संसार को समृद्ध करने के दौरान उन्होंने सक्रिय सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन को जीया और एक ऐसे विशाल कारंवा का निर्माण किया जिसके पदचिन्ह युगप्रवर्तक के रूप में बदल चुके हैं।
जीवन के शुरुआती दौर में नेहरू को आदर्श मानने वाले वरवर राव ने तेलगांना में जब किसान आंदोलन पर पुलिस और फौज का दमन देखा तब यह आदर्श बिखरने लगा था। खेतों की सुगबुगाहट कस्बों, छोटे शहरों से होते हुए हैदराबाद तक पहुंचने लगी थी। 1966 में उन्होंने सृजना के नाम से साहित्यिक पत्रिका का संपादन शुरू किया।
इसके बाद साहित्य मित्रालु नाम की साहित्य संस्था का निर्माण किया। इस सिलसिले का आगे बढ़ाते हुए नक्सलबाड़ी की दिशा पर विप्लव रचियतालु संघम- विरसम का निर्माण हुआ जिसमें वरवर राव ने संस्थापक की भूमिका को बखूबी निभाया।
इसके बाद के दौर में साहित्य, संस्कृति, विचार, दर्शन और राजनीति के मसलों में बहस का लंबा सिलसिला चला।
उन्होंने लिखा है,
लकीर खींचकर जब खड़े हो
मिट्टी से बचना संभव नहीं।
नक्सलबाड़ी का तीर खींचकर जब खड़े हो
मर्यादा में रहकर बोलना संभव नहीं।
आक्रोश भरे गीतों की धुन
वेदना के स्वर में संभव नहीं।।
इसी कविता के अंत में लिखते हैं,
जीवन को बुत बनाना शिल्पकार का काम नहीं
पत्थर को जीवन देना
उसका काम है।
मत हिचको ओ! शब्दों के जादूगर
जो जैसा है वैसा कह दो
ताकि वह दिल का छू ले।।
विरसम और वरवर राव ने तेलुगू साहित्य को एक नई ऊंचाई दी। कल्याण राव अपने उपन्यास लेखन और गदर ने मंचीय प्रस्तुति और अनुभव का सूत्रीकरण करते हुए साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के केंद्र में जन का प्रतिष्ठापित किया। यह रास्ता आसान नहीं था। सैकड़ों संस्कृतिकर्मियों, लेखकों, साहित्यकारों और संगठनकर्ताओं को जीवन गंवा देना पड़ा। जेल की सलाखों के पीछे सालों साल यातना का जीवन जीना पड़ा। लेकिन इतना जरूर हुआ कि जन साहित्य का अनिवार्य पक्ष बन गया। उसका जीवन शब्दों में गुंथकर आने लगा।
मैं जिस भाषा में वरवर राव के बारे में लिख रहा हूं उस भाषा में वरवर राव को जाना जाता है। वाणी प्रकाशन ने उनकी कविताओं के अनुवाद का संग्रह ‘साहस गाथा’ 2005 में प्रकाशित किया था। इस समय के चंद साल पहले हैदराबाद में उन पर जान से मार देने का प्रयास किया गया था और वरवर राव के न मिलने पर एक अन्य महत्वपूर्ण मानवाधिकारकर्मी की हत्या कर दी गई थी। इसके बाद वह दिल्ली आ गये थे। उन्होंने यहां के साहित्यकारों से मुलाकात का सिलसिला जारी रखा।
इसी दौरान उन्होंने कथोदेश पत्रिका के दस साल पूरा होने पर एक व्याख्यान दिया। कुछ सालों बाद वाणी प्रकाशन ने ही उनकी जेल डायरी छापी। पुस्तक भवन प्रकाशन ने ‘हमारा सपना दूसरी दुनिया’ कविता संग्रह प्रकाशित किया। पूरे उत्तर भारत में वह साहित्य और अन्य मसलों पर व्याख्यान देते रहे हैं। वरवर राव की गिरफ्तारी के खिलाफ हिंदी साहित्यकारों ने हमेशा ही आवाज बुलंद की है। इस बार आवाज आने का, लेखन का इंतजार है।