शोध में हुआ खुलासा भावनात्मक तौर पर हरेक संगीत या लोकगीत में सार्वभौमिक एकता की है क्षमता, लोकगीतों के स्वाभाविक विकास से मिल सकती है मानवीय संवेदना और भावनात्मक विकास की जानकारी, मगर सवाल कि विकास के इस अंधे दौर में हम कैसे बचा पायेंगे इन्हें...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
मानव जीवन में संगीत और गाना हरेक काल और हरेक संस्कृति में रहा है। इसके बाद भी संगीत कभी एक जैसा नहीं रहा और न ही हरेक उद्देश्य के लिए संगीत का एक ही स्वरुप रहा है। थिरकने, बच्चों को शांत कराने या फिर प्यार का इजहार करने जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिए संगीत और गाने भी बदल जाते हैं। ऐसा हरेक संस्कृति और समुदाय में होता है और हरेक काल में होता आया है।
जनजातियों या फिर दुनियाभर के ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां संगीत का स्वाभाविक विकास होता रहा है और अभी तक तकनीक और प्रोद्योगिकी से अछूता है, लोकगीतों के माध्यम से उनके विकास को समझा जा सकता है, उनके आपसी सम्बन्ध को समझा जा सकता है और फिर उनसे प्रकृति के सम्बन्ध को समझा जा सकता है।
जर्नल ऑफ़ एथनोबायोलॉजी तो इस विषय पर एक पूरा संस्करण प्रकाशित करने की तैयारी कर रहा है। इसके सम्पादन का जिम्मा यूनिवर्सिटी ऑफ़ हेलसिंकी के डॉ अल्वेरो फेर्नान्देज़ ल्लामज़रेस ने उठाया है।
डॉ. अल्वेरो फेर्नान्देज़ ल्लामज़रेस के अनुसार लोकगीत जनजातियों की भावनाओं को प्रकट करने का सबसे मुख्य माध्यम रहा है। यह माध्यम इतना सशक्त रहा है कि इससे ही दूसरी जनजातियों से संवाद स्थापित किया जा सकता था और यहाँ तक कि अनेक बार पशुओं और वृक्षों से भी लोकगीतों के माध्यम से संवाद किया जाता था। यह सब संवाद या ज्ञान मानव इतिहास की एक दुर्लभ धरोहर हैं और डॉ अल्वेरो फेर्नान्देज़ ल्लामज़रेस के अनुसार इन्हें सहेजकर रखना आवश्यक है।
संगीत और लोकगीतों का असर क्या किसी संस्कृति या समुदाय तक सीमित रहता है, या फिर इनका असर सार्वभौमिक है – इस प्रश्न का उत्तर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सैमुएल मैहर और मानवीर सिंह ने खोजने का प्रयास किया है। करंट बायोलॉजी नामक जर्नल के वर्ष 2018 के जनवरी अंक में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार लोकगीतों का प्रभाव सार्वभौमिक है और भाषा से परे है।
सैमुएल मैहर और मानवीर सिंह ने भारत समेत 60 देशों की 86 जनजातियों के 26000 लोकगीतों का चयन किया और इनके बहुत छोटे हिस्से (14 सेकंड) के हिस्से की रिकॉर्डिंग की। ये जनजातियाँ दुनिया के हरेक हिस्से का प्रतिनिधित्व करतीं हैं और इसमें कृषक, चरवाहे, शिकारी जैसे छोटे समुदाय शामिल थे।। इसके बाद इस दल ने इन्हीं 60 देशों से कुल 750 इन्टरनेट के उपयोग करने वालों का चयन किया। इसमें सभी भाषा, आयु, वर्ण, सामाजिक स्तर के लोग शामिल थे।
इसमें महिलायें और पुरुष लगभग आधे-आधे थे। इन सभी इन्टरनेट का उपयोग करने वालों को 14 सेकंड की रिकॉर्डिंग वाले 26000 लोकगीत जो विभिन्न जनजातियों और भाषाओं के थे, भेजा गया। साथ ही इन्हें कहा गया कि ये गाने सुनकर हरेक गाने का उद्देश्य 6 विषयों में से बताएं। ये विषय थे – थिरकना/नाचना, बच्चे को शांत करना, बीमारी का इलाज, प्यार का इजहार, मृत्यु शोक और कहानी कहना।
नवीर सिंह के अनुसार इस अध्ययन के पहले तक उनका यही मानना था कि लोकगीत भाषा और समुदाय से बंधे होते हैं और समुदाय के बाहर इनका कोई मतलब नहीं रह जाता। पर इस अध्ययन के परिणाम के बाद आश्चर्य इस बात का था कि भाषा और समुदाय से परे लगभग सभी लोगों ने गाने का विषय सही बताया था। भाषा से भी अधिक आश्चर्य तो यह था कि गाने की रिकॉर्डिंग बहुत छोटी, महज 14 सेकंड की ही थी और इतनी देर का संगीत सुनकर लोगों को गाने का उद्देश्य समझ में आ गया।
इससे इतना तो स्पष्ट है कि भावनात्मक तौर पर हरेक संगीत या लोकगीत में सार्वभौमिक एकता की क्षमता है। लोकगीतों के स्वाभाविक विकास से निश्चित तौर पर मानवीय संवेदना और भावनात्मक विकास की जानकारी मिल सकती है, पर सवाल यह है कि विकास के इस अंधे दौर में हम इन्हें बचा पायेंगे?