उत्तराखण्ड के जंगल धधक रहे हैं इन दिनों

Update: 2019-06-02 13:06 GMT

उत्तराखंड के 65 फीसद वन भूमि पर वनों से आच्छादित होने का दावा किया जाता है, जबकि एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 34 फीसद में ही केवल 40 फीसद से अधिक घनत्व के वन हैं। हर वर्ष लगने वाली आग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार चीड़ की पत्तियों को माना जाता है, जिसे पिरूल कहते हैं, यह बेहद ज्वलनशील पदार्थ है...

सुरेश भाई, सामाजिक कार्यकर्ता

उत्तराखंड के जल कवि अतुल शर्मा ने एक गीत लिखा है, उसका नाम है “जंगल में आग लगी इन दिनों” जो उत्तराखंड में सच साबित हो गया है। आजकल जंगलों में लगी आग पर सियासत गरमायी हुयी है। वन मंत्री हरक सिंह रावत वनों में अग्नि नियंत्रण के लिए मुख्यमंत्री की तरफ इशारा कर रहे हैं। वैसे तो उत्तराखंड के जंगल जलते ही रहते हैं, इस बार भी अब तक 1000 हैक्टेयर से अधिक जंगल जल गए हैं।

इसी तरह पिछले 10 वर्षों का आंकड़ा देखें तो लगभग 50000 हैक्टेयर जंगल राख में तब्दील हुए हैं। इसके बावजूद भी यहां के 65 फीसद वन भूमि पर वनों से आच्छादित होने का दावा किया जाता है, जबकि इंडिया स्टेट ऑफ़ फोरेस्ट रिपोर्ट से पता चलता है कि राज्य में 34 फीसद में ही केवल 40 फीसद से अधिक घनत्व के वन हैं। हर वर्ष लगने वाली आग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार चीड़ की पत्तियों को माना जाता है, जिसे पिरूल कहते हैं, यह बेहद ज्वलनशील पदार्थ है।

पिछले कई वर्षों से उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें आईं उन्होंने चीड़ की सूखी पत्तियों से कोयला बनाने का दावा किया है। आईआईटी दिल्ली के प्रयास से पिरूल से कोयला बनाने का प्रशिक्षण स्थानीय सामाजिक संगठन लोक जीवन विकास भारती, उत्तराखंड जन जागृति संस्थान, हिमालयन ग्रामीण विकास संस्था आदि ने वर्षों तक ग्रामीणों को दिया है। इसको आगे पहुँचाने के लिए उन्हें अपेक्षित सहयोग नहीं मिला है।

पिछले वर्षों से उत्तराखंड की सरकार ने पिरूल से 1500 मेगावाट बिजली बनाने की नीति भी बनाई थी। इसके लिए जंगलों के बीच से इन सूखी चीड़ की पत्तियों को बिजली बनाने वाले संयंत्रों तक पहुँचाने के लिए ग्रामीण महिलाओं व युवकों को रोजगार देने की बात भी की गयी थी, जिसे जमीन पर उतारने के लिए बहुत ही कमजोरी सामने आ रही है। यदि केंद्र सरकार उत्तराखंड की पिरूल (चीड़ की पत्तियां) नीति को गंभीरता से लें तो उत्तराखंड समेत हिमालय के सभी जंगलों को आग से बचाया जा सकता है। इसके चलते स्थानीय लोगों का पलायन भी रुक सकता है और उन्हें रोजगार भी मिल सकता है।

चिंताजनक है कि जंगल जलने के दौरान में ही आग को नियंत्रण करने के लिए हायतौबा मचायी जाती है। उत्तराखंड के प्रमुख वन सरक्षक जयराज जी ने सन 2018 में एक रिपोर्ट जारी करके कहा था कि राज्य के अधिकांश वन क्षेत्र को आग से बचाना चुनौतीपूर्ण है। तो क्या पिरूल से बिजली बनाने के संयंत्रों को अधिक से अधिक स्थानों पर नहीं लगाया जाना चाहिए? इसके लिए इन्वेस्टर्स भी ढूंढ़े जा सकते हैं।

काबिलेगौर है की हर वर्ष 15 फरवरी के बाद जंगलों में आग लगने की शत–प्रतिशत संभावनाएं रहती हैं। इसके पूर्व 8-9 महीनों में अग्नि नियंत्रण पर कोई चर्चा ही नहीं की जाती है। कहते हैं कि वन विभाग के पास केवल उत्तराखंड में ही 1000 फोरेस्ट गार्ड और 500 से अधिक वन रेंजरो की कमी है, जिसके कारण आग प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचना उनके लिए आसान नहीं हो रहा है। यह काम राज्य सरकार का है कि वह समय पर वन महकमे की नियुक्ति करें।

इसके अलावा भी गाँव के नजदीक के वनों में अग्नि नियंत्रण के लिए वन विभाग ने फरवरी 2019 में कहा था कि वे 12168 वन पंचायतों को प्रोत्साहन राशि देकर दावानल पर नियंत्रण करेंगे, लेकिन उनका यह प्रयास अभी तक गाँव-गाँव नहीं पहुँचा है। राज्य में गाँव की वन पंचायतें, सामाजिक संस्थायें और महिला संगठनों को जोड़कर उन्हें आवश्यक आर्थिक व अन्य संसाधन उपलब्ध करवाये जाएं तो भी वनों में लगने वाली आग पर काबू पाया जा सकता है।

वनों पर आग का जितना खतरा है उतना ही विकास के नाम पर हर वर्ष लाखों पेड़ों को बेहिचक काटा जा रहा है। पिछले 5 वर्षों में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ो पर गौर करें तो मध्य प्रदेश, तेलांगना, ओडिसा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, गुजरात, हरियाणा, पंजाब में ही केवल 2988 विकास परियोजनाओं के नाम पर 55648 हैक्टेयर पर वनों को भारी क्षति पहुंचाई गयी है।

इसमें से केवल उत्तराखंड में ही 255 परियोजनाओं के नाम पर हाल ही में लगभग 50 हजार पेड़ों को काटा गया है। इस तरह से नष्ट हो रहे वनों के बदले नए पेड़ों का रोपण कहाँ होता है, वह भी देश के सामने पहेली के रूप में देखा गया है। बरसात और शीतकाल में रोपे गये अधिकांश पौधे तो फरवरी और जून के बीच लगने वाली आग में जल जाते हैं।

वैसे देखा जाये तो जंगल काटना राजस्व की दृष्टि से लाभदायक है। जंगल की आग से झुलसे हुये पेड़ जब तेज हवा में गिर जाते हैं तो भी वह फायदे की चीज बनती है। अतः आग लग जाये तो भी राजस्व और पेड़ कट जाये तो भी नुकसान नहीं देखा जाता है। पर्यावरण के प्रति हमारी यह अनदेखी आने वाली भविष्य की तरफ इशारा करती है कि जंगल की आग और पेड़ों की कमी धरती के तापमान को ऊंचाई पर ले जाएगी। इस प्रकार जंगलों में आग देखकर तमाशबीन बने रहने तक कोई समाधान कैसे कर सकते हैं?

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