पल्लवी प्रसाद की कहानी 'गूँगी बीवी'

Update: 2019-05-26 05:26 GMT

उर्दू के मशहूर अफसानानिगार मंटो की कहानियों का स्त्रीवादी पाठ कर चर्चा में आने वाली पल्लवी प्रसाद कहानीकार के अलावा अनुवादक भी हैं। अंग्रेजी में उन्होने रेणु की कई कहानियों के अलावा उनके उपन्यास 'कितने चौराहे' का भी अनुवाद किया है। उनका एक उपन्यास "लाल' भी जल्द आने वाला है। पेशे से वकील पल्लवी प्रसाद हिंदी साहित्य में स्त्री विमार्श को प्रचलित रूप में नही देखतीं। वह काफी तार्किक ढंग से लेकिन विनम्र अंदाज़ में अपनी बातों की वकालत करती हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी कहानी 'गूंगी बीबी' जो रेल के सफर में दो परिवारों के आपसी संवाद से स्त्री पुरुष के भेद और सामाजिक स्थिति को पेश करती है, जिसमें एक सामंती परिवार और एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की स्त्री के माध्यम से एक विमर्श खड़ा करने की कोशिश की गई है। आइये पढ़ते हैं पल्लवी प्रसाद की कहानी 'गूँगी बीवी' : विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि

गूँगी बीवी

पल्लवी प्रसाद

"अरे! सँभल कर...गिर जाओगी बस!" सोना ने बेटी को चेतावनी दी। उसने बच्ची को अपने हाथों से सहारा दे कर ट्रेन की ऊपरी बर्थ पर चढ़ा दिया। वापस बैठते ही उसने देखा गाड़ी की रफ़्तार धीमी पड़ने लगी है। लगता है कोई स्टेशन आ रहा है। "देख तो जरा कौन सा स्टेशन आ रहा है?"

"मुगलसराय, मम्मी!" खिड़की के पास बैठे उसके बड़े बेटे ने उत्तर दिया।

पत्रिका को परे रख कर अरूप उठ बैठे। वे अपनी गर्दन झुका कर खिड़की से बाहर झाँकने लगे। गाड़ी रुक गयी तो उन्होंने पैरों में चप्पलें डालीं और नीचे प्लेटफ़ॉर्म पर उतर गये। जब वे कुछ देर बाद लौटे तो उनके हाथों में 'फ्रूटी' के तीन पैक थे। सोना ने सीट पर पड़ा छोटा तौलिया हटाते हुये कहा, "बाहर गर्मी है लेकिन अंदर तो ए.सी. चल रहा है। ठंडा लाने की क्या ज़रूरत थी?" अरूप ने दोनों बच्चों को एक-एक फ़्रूटी थमाई और पत्नी के साथ बैठ गये। बोले, "इसलिये हम दोनों के बीच एक ही लाया हूं। पियो यार!" अरूप ने फ़्रूटी में लगा स्ट्रॉ सोना के मुँह में डाल दिया। फिर कुछ चुस्कियाँ ख़ुद भरीं फिर कुछ सोना को ज़बरदस्ती पिलाई...फिर...फिर...

सोना को अपने चेहरे पर कुछ सरसराता हुआ महसूस हुआ। उसने देखा, वे तीन जोड़ी आँखें हैं जो निषिद्ध भाव से भरीं उन्हें घूर रही हैं। उनका सबके सामने फ़्रूटी पीना...ऊंहु:! अरूप का उसे यूँ पिलाना फिर उसका जूठा स्वयं पी लेना उन आँखों को भा नहीं रहा है। वे मानो कह रही हैं कि पुरुष को अपनी स्त्री को इस क़दर कपाल पर नहीं चढ़ाना चाहिये। सोना की आँखें उन आँखों पर टिक गयीं। अचरज की बात! वे आँखें न हटीं, न ही झपकीं बनिस्पत अधिक कठोर हो गयीं।

फ़्रूटी ख़त्म हो चुकी है। इस चक्कर में उनके पास की इकलौती पत्रिका फिर अरूप के हाथ लग गयी है। सोना ने हसरत भरी एक नज़र पत्रिका पर डाली फिर वहाँ से गुज़र रहे चाय वाले को रोक लिया। "एक कप चाय।" उसने अपना बटुआ खंगाल कर एक पाँच रुपये का सिक्का आगे बढ़ा दिया। - बेमज़ा चाय पीते हुये वह बड़ी आस से सामने बैठे बुज़ुर्ग सहयात्रियों को निहारने लगी। हाँ, अबकी उनसे आँखें मिलीं तो वह ज़रूर मुस्कुरायेगी। सिर्फ़ मुस्कुरायेगी ही नहीं, बात करने की कोशिश भी करेगी।

सहयात्री परिवार कम्पार्टमेंट के भीतरी बर्थों पर बैठे हैं। अरूप और सोना 'कॉरिडोर' से लगे बर्थ पर बैठे हैं। इस तरह सोना उन लोगों को आसानी से देख-परख पा रही है। बूढ़ों की उम्र एक सीमा के बाद भाँपना मुश्किल हो जाता है। वह जो धोती-कुर्ताधारी वृद्ध पुरुष बैठे हैं, वे कितने के होंगे? शायद अस्सी वर्ष? उनके बाल सन से सफ़ेद हैं और उनकी ऊँची नासिका पर मानो स्वामित्व बोध ठहर गया है। उनकी पारंपरिक वेशभूषा एवं भंगिमाओं से भद्रता टपकती है।

उनके सामने बैठी वृद्धा उनकी पत्नी हैं। ढीले गुँथे मैदे जैसी गोरी और मुलायम। उनकी झुर्रियों भरे फ़ाहे ललाट पर दमकते हैं सौभाग्य चिन्ह - लाल बिंदी और सिंदूर। वे स्थूल कलाईयों में सुर्खी चूड़ियाँ पहने और लवंडर रंग की साड़ी का सीधा पल्लू ओढ़े हुये बैठी हैं। सोना को उनका सौभाग्यपूर्ण बुढ़ापा इतना सुहा रहा है कि उसकी नज़रें उन पर से हटतीं नहीं... कई क्षण यूँ ही गुज़र गये किन्तु वृद्धा ने अपना चेहरा इस तरफ नहीं घुमाया इसलिये सोना के चाहने पर भी उनकी नज़रें ना मिल पायीं। उसने हिसाब लगाया यदि बुज़ुर्ग अस्सी के होंगे तो उनकी पत्नी उनसे चार-पाँच वर्ष अवश्य छोटी होंगी।

अन्दर वाली खिड़की पर एक अधेड़वय सज्जन बैठे हैं, मरून टी-शर्ट और सफ़ेद शॉर्ट्स पहने। उनके सामने वाली खिड़की पर एक किशोर बैठा है जो कि उनका बेटा है। बाप रह-रह कर अपने बेटे से मुख़ातिब होते हैं। किशोर अपनी सुंदर पलकों को झपकाते हुये, पिता की बातों को ग्रहण करने का भाव लिये उन्हें जवाब देता है। वह अधेड़ व्यक्ति वृद्ध दंपत्ति के बेटा हैं और वह किशोर उनका पौत्र। उन लोगों के बीच एक और महिला बैठी हैं जिन्हें वह अधेड़ व्यक्ति 'दीदी' पुकारते हैं यानी वह उनकी बहन और वृद्ध दंपत्ति की बेटी हैं। बहन की उम्र पचास वर्ष से कम ना होगी। हरे रंग की 'प्योर सिल्क' की साड़ी का सीधा पल्लू सिर पर ओढ़े, वह अपनी माँ की तरह ही बिंदी, चूड़ी, सिंदूर से सजी बैठी हैं। उनके हाथ के नाखूनों से कत्थई नेल-पॉलिश कुछ-कुछ छूट गयी है। अनबनी भवों से उनके चेहरे की नैसर्गिकता बनी हुयी है। अपितु वृद्धा की तुलना में वह कम सुंदर हैं। सोना ने कोशिश की किन्तु उसकी आँखें किन्हीं से भी चार न हुईं।

"नदी! नदी!" सोना का बेटा उत्साह में चिल्लाया। यह सुन छोटी भी ऊपर से नीचे धपाधप् उतर गयी। दोनों खिड़की में लगे काँच से अपनी नाक भिड़ाये बाहर का नज़ारा देखने लगे। "यह सोन नदी है। डेहरी-ऑन-सोन आ चला अब।"

अरूप ने बताया तो छोटी पूछ बैठी, "कैसा नाम है यह डैडी, अजीब सा?" - "अंग्रेज़ों का दिया नाम है यह बेटी! डेहरी नामक जगह जो सोन नदी पर है...डेहरी-ऑन-सोन।" इस जानकारी पर बेटे ने भी उदगार प्रकट किया, "ओssह!"

"सोन नदी नहीं, नद है।" यह कहते हुये अरूप पत्नी की ओर देख कर मुस्कुराये। गाड़ी देश के सबसे लम्बे ब्रिज को फलाँग रही है। सोना अपने ख़्यालों में खोयी हुयी है। बच्चे एक दूसरे को चिढ़ा रहे हैं। वे आपस में अठखेलियाँ करते हुये हँस रहे हैं। बुज़ुर्ग यात्री अब भी वैसे ही निर्विकार बैठे हैं। उनके बेटा व पौत्र चुपचाप खिड़की से बाहर देख रहे हैं।

सोना की ममता कहीं आहत हुयी है। बड़े-बुज़ुर्गों को बच्चे अच्छे लगते हैं। लेकिन न जाने यह कैसे लोग हैं? उसके प्यारे बच्चों को देख कर न तो वे मुस्कुराते हैं ना ही नाम-सवाल पूछते हैं? वह भी ऐसे भावशून्य लोगों को स्वयं छेड़ना नहीं चाहती...कोई ज़बरदस्ती तो है नहीं! ऐसी भीषण गर्मी में आरामदेह वातानुकूलित सफ़र को कोई इस क़दर नीरस बनाना चाहे तो वे स्वतंत्र हैं। वह कल रात से ही देख रही है ये लोग आपस में भी नहीं बोलते। किसी अन्य से बातचीत करने की बात ही दूर रही। सोना को बेटा और पौत्र ही 'नॉर्मल' लग रहे हैं। बेटा 'एक्टिव' हैं। टिकट, सामान, चाय इत्यादि की ज़िम्मेदारी उन पर है। आवश्यकता पड़ने पर वृद्ध और उनके बेटे के बीच शब्दों का व्यवहार हो जाता है। परन्तु दोनों स्त्रियाँ बिल्कुल मूक पशु की तरह बैठी हैं - भावशून्य और संवादहीन।

जली-भुनी सोना उनके आपसी संबंधों को ले कर मन ही मन अटकलें लगा रही है। - पिता, पति, भाई, बेटा...गौपति? गौपति और गौओं के बीच में कैसा संवाद? दोनों ही प्रकृति एवं जीवन कर्मों से आपस में बँधे हैं। भोजन, कपड़े-लत्ते, सेवा-टहल तथा अन्य कार्य, हर आवश्यकता के उत्पन्न होने और उसकी माँग उठने के पूर्व ही वह परस्पर ही पूरी कर दी जाती है। शायद संवादहीनता का कारण उनकी अंतरंगता हो? सोना सोच में पड़ गयी। क्या दशकों के सह-जीवन के बाद अरूप और उसके संबंध भी संवादहीन हो जायेंगे? ...नहीं-नहीं!

आख़िरकार सोना के हाथ पत्रिका लग गयी। वह उसमें से दो कहानी और एक लेख से ज़्यादा नहीं बाँच पायी। मन लगाने के लिये अरूप और वह धीमे स्वर में गप्प लड़ाने लगे। वे आने वाली छुट्टियों की प्लानिंग कर रहे हैं। कब और कितने दिन के लिये किस रिश्तेदार के यहाँ जाना है, लेन-देन आदि जैसी बातें। कम्पार्टमेंट में हो रही हलचल ने उनका ध्यान बाँटा। देखा, वृद्ध दंपत्ति के बेटा और पौत्र मिलकर उन सभी का सामान निकाल रहे हैं। शायद उन लोगों का स्टेशन आ रहा है। गया शहर आ गया। वे लोग सारा सामान पहले ही बोगी के दरवाज़े पर लगा चुके थे। अब वे वृद्ध पिता, बहन तथा सामान को स्टेशन पर उतारने लगे। पीछे छूट गयी हैं अकेली वृद्धा। वे पूर्ववत् निश्चिंत बैठी हैं। वे जानती हैं गया जंक्शन बड़ा है और गाड़ी यहाँ बहुत देर तक रुकेगी। सबको उतार कर, उन्हें सहारा देकर लिवा जाने के लिये उनके बेटा आने वाले हैं।

अरूप अपनी जगह से उठ कर वृद्धा की पास वाली खिड़की पर जा बैठते हैं। प्लेटफ़ॉर्म उसी तरफ है सो वे बाहर की सरगर्मियाँ का मुआयना कर रहे हैं। सोना ने उनको पुकार कर कहा, "छोटी को बाथरूम जाना है, मैं अभी आई।" छोटी फ़ारिग़ हो ली तो उसका हाथ-मुँह धुलवा कर सोना उसे साथ लिये अपनी सीट पर लौट गयी। उसने देखा वृद्धा जा चुकी थीं। ज़्यादातर यात्री गया में उतर गये थे। अब कम्पार्टमेंट में वे ही लोग बचे हैं। सोना के बैठते ही अरूप ने चर्चा छेड़ी, "अच्छे लोग थे।"

"वाक़ई? तुम्हारी कब पहचान हुयी?" सोना ने आश्चर्य का ढोंग करते हुये पूछा।

अरूप ने उसके व्यंग्य बुझे सवाल को नज़रअंदाज़ करते हुये कहा, "बता रही थीं वे ख़ानदानी ज़मींदार हैं। गाँव में उनकी बहुत बड़ी जायदाद है, कई 'फार्मस्' हैं।"

"अच्छा?"

अरूप बोले, " मैंने भी देखा। तीन नौकर आये थे स्टेशन पर उनका बक्सा-सामान ढोने। उन्होंने बताया कि उनमें से एक उनका ड्राईवर है। वह गाँव से गाड़ी में आदमीजन लेकर आया था उन लोगों को रिसीव करने। दो महीने से दिल्ली में हृदय रोग का इलाज करवा रही थीं। तबियत ठीक होने पर, डॉक्टर की ईजाज़त लेकर घर लौट रही हैं। उनके जो बेटा थे वह पहले मुम्बई में कस्टम के क्लास वन अफ़सर रहे हुये हैं। बीस साल बाद मन उकता गया तो नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अपने गाँव लौट आये। अब खेती-बाड़ी संभालते हैं।..."

सोना ने सेब काटते हुये अरूप से पूछा, " बड़े ख़ुश हो? क्या वे तुमसे अपनी बेटी ब्याह रहे हैं?"

किन्तु अरूप अपने आप में मग्न बोले जा रहे हैं, "...उनके परिवार में कई आई.ए.एस.-आई.पी.एस. हैं। जानती हो, वे बता रही थीं कि उनका अपना भतीजा बिहार के राजस्व मंत्री का दामाद है..."

सोना उछल पड़ी, "अरे बाप रे बाप! बारहों घंटे में बुढ़िया ने हम लोगों की तरफ देखा भी नहीं। सो पाँच मिनट का एकांत पाते ही अपना और अपने परिवार का पूरा 'बायोडाटा' बक गयीं? मुखबिरी की इस प्रति मिनट रफ़्तार रेट से तो वह गाँव-घर में डाका डलवा देंगी! फिर गूँगी बनी क्यों बैठी थीं?"

अरूप मासूमियत में बोल गये, "तो क्या हुआ? बेचारी पति के सामने कैसे बोलतीं, वह भी अजनबियों से? मालिक के सामने मुँह चलाना शिष्टाचार नहीं।"

सोना सेब का एक फाँक अपने मुँह में रखते हुये बोली, "और मालिक के पीठ पीछे? एक बात कहूं अरूप? वाक़ई तुम मर्द हर चीज़ में हम स्त्रियों से कहीं ज़्यादा आगे हो..." उसने इत्मीनान से प्लेट पति को बढ़ाई और बात पूरी की, "...बेवक़ूफ़ी में भी!"

अपना एकछत्र राज पाकर बच्चे उधम मचा रहे हैं। लड़का ऊपरी बर्थ को पकड़ कर झूल रहा है। उसकी छोटी बहन भाई की सरकसी हरकतों को बड़े हैरत से देख रही है। उसका भईया हीरो है। बाहर दौड़ते खेत पीछे छूट गये हैं, अब बस्तियाँ गुज़र रही हैं। उनका स्टेशन आ रहा है।

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