गुजरात में जिसको मिलेगा 5 ​फीसदी अधिक वोट, उसी की बनेगी सरकार

Update: 2017-12-05 13:46 GMT

गुजरात में होने जा रहे चुनाव देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता सुरेंद्र पाल सिंह

अभी—अभी गुजरात के कुछ इलाकों में थोड़ा घूमने के बाद लौटा हूँ।

पंजाब में घूमने के बाद अपनी समझ के अनुसार जब काँग्रेस के लिए 67 सीटों का लिखा तो बहुत से मित्रों ने सख्त ऐतराज जताया था जिनके अनुसार आम आदमी पार्टी की लहर चल रही थी। और जब नतीजा सामने आया तो काँग्रेस को 75 सीटें मिली थी।
खैर, गुजरात में घूमने के बाद जो मोटी मोटी बातें समझ में आयी उनका निष्पक्ष ब्यौरा कुछ इस प्रकार है:-

1. सन 2002 के बाद 2007 और 2012 में हुए विधान सभा चुनावों में भाजपा का मामूल तौर पर आधार लगातार घटता रहा और बदले में काँग्रेस की बढ़त होती रही।

2. 2012 में भाजपा का वोट काँग्रेस के मुकाबले करीब 9 फ़ीसदी ज्यादा था।

3. 2015 में स्थानीय निकाय चुनावों में (2014 में लोकसभा चुनावों में भाजपा का प्रचंड बहुमत होने के बावजूद) शहरी क्षेत्रों में भाजपा आगे थी लेकिन ग्रामीण निकायों में काँग्रेस। मिला जुला कर दोनों का औसत वोट फ़ीसदी एक दूसरे के बराबर था।

4. अब जो भी पार्टी 5 से 6 फ़ीसदी अधिक वोट ले लेगी उसकी सरकार बनने के आसार बन जाते है।

अब एक नज़र मुख्य कारकों पर

१. पटेल फ़ैक्टर एक बड़ा फ़ैक्टर है जो भाजपा के विरोध में बहुआयामी प्रभाव डालने जा रहा है। जब हम सूरत में भाजपा के एक कार्यालय में गए तो वहाँ के कार्यकताओं ने स्वयं इस बात को स्वीकारा कि पटेल फैक्टर 3 से 4 फ़ीसदी असर डालेगा।

२. जीएसटी और नोटबन्दी को लेकर एक बड़ा अंडर करंट है। व्यापारियों को अंदर ही अंदर काफी नाराजगी है जो कुछ फ़ीसदी वोटों को भाजपा से खिसकाएगा। उदाहरण स्वरूप, ट्रेन में एक व्यापारी किसी दुसरे सज्जन को बता रहा था कि सूरत में जी एस टी के विरोध में 4 लाख व्यापारी इकट्ठे हुए थे लेकिन तमाम मीडिया में इसका ज़िक तक नहीं हुआ।

३. बेरोज़गारी और महँगी शिक्षा ने नौजवानों को सत्तापक्ष से दूर किया है।

४. चुनाव सिर पर होने के बावजूद किसानों को मूँगफली और कपास का न्यूनतम समर्थन भी नहीं मिला। इससे किसानों और सत्ताधारी पार्टी के बीच पहले से ही बनी हुई दूरी और बढ़ी है।

५. जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकुर का हार्दिक पटेल की तरह भाजपा के विरोध में काँग्रेस के पक्ष में जुड़ने से भाजपा विरोध का आधार व्यापक हुआ है।

६. भाजपा के एकमात्र स्टार प्रचारक मोदी जी का करिश्मा उतार पर है और उनकी शब्दावली में बौखलाहट स्पष्ट है व रैलियों में उत्साहजनक हाज़री दिखाई नहीं देती। जहाँ मोदी जी मुद्दों से बचते हुए भावनात्मक ब्यानों को तरज़ीह दे रहे हैं वहीं काँग्रेस की रैलियों में मुद्दों पर फोकस दिखाई देता है। मोदी जी ने विकास मॉडल का ज़िक्र करना ही बंद कर दिया है।

७. भाजपा कार्यकताओं का मुख्य जोर इस बात पर रहता है कि काँग्रेस के आने से मुसलमानों की दबंगई बढ़ जाएगी और शांतिपूर्ण माहौल में बिज़नेस करने वाले व्यापारियों के लिए काम करना मुश्किल हो जाएगा। साथ ही साथ आंतकवाद को मोदी जी द्वारा लगाई गई लगाम ढीली पड़ जाएगी।

८. जी एस टी और नोटबन्दी की भाजपा कार्यकर्ता देश के लिए दूरगामी परिणाम लाने वाली नीतियों के तौर पर वकालत करने का प्रयास करते हैं लेकिन दबी जुबान में।

९. सुशासन और भ्र्ष्टाचार मुक्त प्रशासन का प्रचार बहुत अधिक गले नहीं उतरता।

१०. वोटर का एक बड़ा हिस्सा अब भी इस बात पर सहमत है कि मोदी जी ही देश
को आगे बढ़ा सकते हैं और आंतकवाद व पाकिस्तान- चीन से बचा सकते हैं।

११. बहुत से व्यक्तियों का ये भी कहना है कि मोदी- अमित शाह की जोड़ी आखिरी दो तीन दिनों में ऐसा कोई गुल खिलाएगी कि पासा भाजपा के पक्ष में बदला हुआ दिखाई देगा।

खैर, आंकड़ों के नीरस मकड़जाल से बचते हुए निष्कर्ष के तौर पर इतना ही कहना चाहूँगा कि अगर 2012 के विधानसभा और 2015 के स्थानीय निकायों के मतदान को आधार मान कर बात की जाए तो 5-6 % वोटों का किसी भी पक्ष में स्विंग सत्ता की चाबी का काम करेगी।

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