कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहाँ यह नेता-युग

Update: 2017-10-27 15:21 GMT

सप्ताह की कविता में आज सुप्रसिद्ध कवि कुंवर नारायण की कविताएं

कुंवर नारायण की कविताओं में अतीत और भविष्‍य जिस तरह वर्तमान में जीवित होते हैं वैसा कम लोगों के यहां है। दिनकर के यहां यह कला है और समकालीनों में विनय कुमार की कविताओं में भी अतीत वर्तमान के रंगों के साथ अभिव्‍यक्‍त होता दिखता है।
इतिहास को अपनी कविताओं में श्रीकांत वर्मा भी लगातार जगह देते हैं, पर वहां इतिहास ज्ञान सूत्र की तरह प्रकट होता है।

वह हमें इतिहास की जमीन पर ले जाकर हमारी आंखें खोलने की कोशिश करता है, पर कुंवर नारायण के यहां इतिहास भावसूत्र की तरह अभिव्‍यक्‍त होता हुआ जिस तरह वर्तमान की रागात्‍मकता से जुड़ता है उसमें अतीत की शुष्‍कता तिरोहित होती जाती है और हम वर्तमान तक आते अतीत के छोर को महसूस कर पाते हैं - दूरियों का भूगोल नहीं/ उनका समय बदलता है। /कितना ऐतिहासिक लगता है आज
तुमसे उस दिन मिलना।

निराला, शमशेर आदि कवियों की तरह कुंवर नारायण किसी काव्‍य शैली को अपनी सीमा नहीं बनने देते। रूप का किला वे हमेशा भेदते रहते हैं और एकदम नये कवियों की तरह लिखते हुए हमें चकित करते हैं - केवल कुछ अधमिटे अक्षर/ कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं /जिन्हें किसी तरह जोड़कर/ हम बनाते हैं /प्यार की भाषा

जबकि दिनकर की उर्वशी के छंदमुक्‍त हिस्‍से की तरह आवेगमय और धर्मवीर भारती के गुनाहों के गीत की तरह रागमय पंक्तियां भी वे उसी सहजता से लिख जाते हैं - रूप-सागर कब किसी की चाह में मैले हुए?/ ये सुवासित केश मेरी बाँह पर फैले हुए...

वे और विस्मित करते हैं जब समकालीन राजनीतिक प्रकरणों पर निगाह रखते हुए उसे राजनीतिक कवियों की तरह समकालीनता के ताप के साथ अभिव्‍यक्‍त करते हैं -  हे राम, .../ अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं /योद्धाओं की लंका है, /'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं /चुनाव का डंका है! आइए पढ़ते हैं कुंवर नारायण की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल

अबकी अगर लौटा तो
अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी अगर लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा

घर से निकलते
सड़कों पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूँगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा।

मामूली जिंदगी जीते हुए
जानता हूँ कि मैं
दुनिया को बदल नहीं सकता,
न लड़कर
उससे जीत ही सकता हूँ

हाँ लड़ते-लड़ते शहीद हो सकता हूँ
और उससे आगे
एक शहीद का मकबरा
या एक अदाकार की तरह मशहूर...

लेकिन शहीद होना
एक बिलकुल फर्क तरह का मामला है

बिलकुल मामूली जिंदगी जीते हुए भी
लोग चुपचाप शहीद होते देखे गए हैं।


अयोध्‍या, 1992
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है।

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है!

हे राम, कहाँ यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहाँ यह नेता-युग!

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण-किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक...
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि!

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