शाम है कि आग है

Update: 2017-09-22 10:19 GMT

'सप्ताह की कविता' में आज पढ़िए प्रगतिशील त्रयी के स्तंभ शमशेर बहादुर सिंह की कविताएं 

छायावादोत्तर काल ने हिंदी कविता में रहस्यवाद, शून्य, संशय की परंपरागत अवधारणा के मुकाबले ठोस, तल्ख, दुर्निवार सौंदर्य की द्वंद्वात्मक अवधारणा की जो शुरुआत की थी वह शमशेर की कविताओं में आकर अपने सारे आयाम पाती है, पूर्ण होती है, देखें - ‘य’ शाम है, कि आसमान खेत है /पके हुए अनाज का लपक उठीं लहू-भरी दरातियाँ, कि आग है...'

‘य’ शाम है’ पहली पंक्ति का स्वर छायावादी कविता-सा है, मानो कवि पाठक को शाम के धुंधलके में डुबो देना चाहता है फिर आगे की पंक्तियाँ इस नशे को तोड़ती हैं। यहाँ सौंदर्य की द्वंद्वात्मकता, उसकी कठोरता-सरलता के संबंधों पर ध्यान दें। यहाँ जीवन की निरंतरता का द्वंद्व है। यहाँ आसमान शून्य नहीं है। वह खेत हो गया है, वह भी पके हुए अनाज का। यहाँ आग है जो लपक रही है, जिसका विकास हो रहा है, क्योंकि निरंतर इसे श्रमिकों का रक्त मिल रहा है। यह श्रमिक जुलूस का वर्णन है जो लाल झंडा लिए उन पर रोटियाँ टाँगे गुजर रहा है, जिस पर अंग्रेजी सरकार गोलियाँ चलाती है रोटियों की माँग पर। यहाँ मजदूरों के भीतर जो भूख है उसे कवि शिद्दत से महसूसता है।

'काल, तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू, तुझमें अपराजित मैं वास करूँ...' अभिव्यक्ति के उद्दाम क्षणों में भी शमशेर का स्वविवेक चूकता नहीं है। जब वे काल से होड़ लगाते हैं, तो नहीं भूलते कि यह होड़ अपराजित काल से है। और उनकी अपराजेयता उसी का अंश है, पर यहाँ काल अतीत है। अपराजेय अतीत और शमशेर उसके भविष्योन्मुखी अंश हैं। इसीलिए वे काल से परे हैं। शमशेर के यहाँ सौंदर्य जीवन का वह हिस्सा है, जो सारे नाश और निर्माण के बाद भी बचा रह जाता है। रचे जाने को केदारनाथ सिंह के शब्दों में कहें तो वे हमेशा एक सादा पन्ना बचा रखते हैं, जिस पर भविष्य का नक्शा गढ़ा जा सके, जिस गढ़ाव के लिए अपनी कल्पना और विवेक के साथ व्यक्ति जीवित रहे।

'मैं-तेरे भी, ओ काल ऊपर, सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल!' जो कुछ भी काल से आगे जाने को, जीवित रहने को संघर्षरत है होड़ लगा रहा है, वही तो सौंदर्य है। उसी सौंदर्य चेतना की संघर्षपूर्ण द्वंद्वाभिव्यक्ति तो शमशेर हैं। यह जीवन संघर्ष बहुत गतिशील है। उसके रुकने का भ्रम हो सकता है। बीजांकुर को देखकर वही सौंदर्यबोध में डूब सकता है, जिसके पास लहलहाते वृक्ष की कल्पना दृष्टि हो और उसे सींचने का धैर्यपूर्ण विवेक भी। आइए पढ़ते हैं शमशेर की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल

य' शाम है
य' शाम है
कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का।
लपक उठीं लहू-भरी दरातियाँ,
- कि आग है :
धुआँ धुआँ
सुलग रहा
गवालियर के मजूर का हृदय।

कराहती धरा
कि हाय मय विषाक्‍त वायु
धूम्र तिक्‍त आज
रिक्‍त आज
सोखती हृदय
गवालियार के मजूर का।

गरीब के हृदय
टँगे हुए
कि रोटियाँ लिये हुए निशान
लाल-लाल
जा रहे
कि चल रहा
लहू-भरे गवालियार के बाजार में जुलूस :
जल रहा
धुआँ धुआँ
गवालियार के मजूर का हृदय।

(ग्‍वालियर की एक खूनी शाम का भाव-चित्र : लाल झंडे, जिन पर रोटियाँ टँगी हैं, लिये हुए मजदूरों का जुलूस। उनको रोटियों के बदले मानव-शोषक शैतानों ने गोलियाँ खिलायीं। उसी दिन - 12 जनवरी 1944 की एक स्‍वर-स्मृति।)

न पलटना उधर
न पलटना उधर
कि जिधर ऊषा के जल में
सूर्य का स्तम्भ हिल रहा है
न उधर नहाना प्रिये।

जहां इन्द्र और विष्णु एक हो
-अभूतपूर्व!-
यूनानी अपोलो के स्वरपंखी कोमल बरबत से
धरती का हिया कंपा रहे हैं
- और भी अभूतपूर्व!-
उधर कान न देना प्रिये
शंख से अपने सुन्दर कान
जिनकी इन्द्रधनुषी लवें
अधिक दीप्त हैं ।

उन संकरे छंदों को न अपनाना प्रिये
(अपने वक्ष के अधीर गुन-गुन में)
जो गुलाब की टहनियों से टेढ़े-मेढ़े हैं
चाहे कितने ही कटे-छंटे लगें, हां ।

उनमें वो ही बुलबुलें छिपी हुई बसी हुई हैं
जो कई जन्मों तक की नींद से उपराम कर देंगी
प्रिये!
एक ऎसा भी सागर-संगम है
देवापगे!

जिसके बीचोबीच तुम खड़ी हो
ऊर्ध्वस्व धारा
आदि सरस्वती का आदि भाव
उसी में समाओ प्रिये!

मैं वहां नहीं हूं!

बादलो
ये हमारी तुम्‍हारी कहाँ की मुलाक़ात है, बादलो!
कि तुम
दिल के क़रीब लाके, बिल्‍कुल ही
दिल से मिला के ही जैसे
अपने फ़ाहा-से गाल
सेंकते जाते हो...
आज कोई ज़ख़्म‍
इतना नाज़ुक नहीं
जितना यह वक़्त है
जिसमें हम-तुम
सब रिस रहे हैं
चुप-चुप।
धूप अब
तुम पर
छतों पर
और मेरे सीने पर...
डूबती जाती है
हल्‍की-हल्‍की
नश्‍तर-सी
वह चमक।

गजानन मुक्तिबोध
ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए
कि अपनी ज़िंदगी ख़ुद आपको बेगाना हो जाए।

सहर होगी ये शब बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए।

किरन फूटी है ज़ख़्मों के लहू से : यह नया दिन है :
दिलों की रोशनी के फूल हैं – नज़राना हो जाए।

ग़रीबुद्दहर थे हम; उठ गए दुनिया से अच्छा है
हमारे नाम से रोशन अगर वीराना हो जाए।

बहुत खींचे तेरे मस्तों ने फ़ाक़े फिर भी कम खींचे
रियाज़त ख़त्म होती है अगर अफ़साना हो जाए।

चमन खिलता था वह खिलता था, और वह खिलना कैसा था
कि जैसे हर कली से दर्द का याराना हो जाए।

वह गहरे आसमानी रंग की चादर में लिपटा है
कफ़न सौ ज़ख़्म फूलों में वही पर्दा न हो जाए।

इधर मैं हूँ, उधर मैं हूँ, अजल तू बीच में क्या है?
फ़कत एक नाम है, यह नाम भी धोका न हो जाए।

वो सरमस्तों की महफ़िल में गजानन मुक्तिबोध आया
सियासत ज़ाहिदों की ख़ंदए-दीवाना हो जाए।

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