प्रतिगामी ताकतों से लोहा लेने वाले साहित्यकार खगेंद्र ठाकुर

Update: 2017-09-11 10:17 GMT

खगेंद्र ठाकुर के लिए लेखक संघ रचनात्मकता को उर्वर भूमि प्रदान करने वाले स्पेस रहे है। उन्होंने अपने उदाहरण से भी इसे साबित किया है। सृजनात्मकता कोई व्यक्तिपरक गतिविधि नहीं, बल्कि सामूहिक कार्रवाई का हिस्सा है...

अनीश अंकुर, वरिष्ठ रंगकर्मी 

हिंदी के प्रख्यात समालोचक खगेंद्र ठाकुर ने अस्सी वर्ष पूरे कर लिए। अस्सी वर्षों के जीवन में खगेंद्र ठाकुर ने अपना तीन चौथाई वक्त साहित्य व राजनीति की दुनिया को दिया। हिंदी साहित्य के वे दुर्लभ शख्सियत हैं जिन्होंने अपने लेखन, सांगठनिक कौशल, सक्रियता एवं प्रतिबद्धता से पूरे हिंदी भाषी क्षेत्रों को प्रभावित किया है।

इस काम की प्रेरणा खगेंद्र ठाकुर को मार्क्सवादी दर्शन से प्राप्त की। मार्क्सवाद उनके लिए ऐसी जीवंत पद्धति है जो साहित्य व समाज के अबूझ व अंधेरे कोनों पर रौशनी डालता है। खगेंद्र ठाकुर आजीवन कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। सोवियत संघ के विघटन के बाद बहुतों की तरह उन्होंने पाला नहीं बदला, संघर्षरत जनता के प्रति अपनी बुनियादी प्रतिबद्धता से कभी नहीं डिगे।

बिहार में सुल्तानगंज के मुरारका काॅलेज में प्राध्यापक रहे खगेंद्र ठाकुर ने राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। वे बिहार के पहले ऐसे साहित्यकार थे जो ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का राष्ट्रीय महासचिव बने। वे 1993 से 1999 तक प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव रहे। इससे पूर्व 1974 से 1993 तक प्रलेस के प्रदेश महासचिव बने। इसी दौरान उन्होंने बिहार के गया में प्रलेस का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। प्रलेस, बिहार की पत्रिका ‘उत्तरशती’ का 1981 से 1985 तक संपादन किया।

खगेंद्र ठाकुर भागलपुर, पटना में शिक्षक आंदोलन में भी सक्रिय रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘जनशक्ति’ से लंबा जुड़ाव रहा तथा उसके दो वर्षों तक संपादक भी रहे। एक बार कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दिया जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।

खगेंद्र ठाकुर की साहित्यिक आलोचना केंद्रित किताबों में प्रमुख है ‘कहानी एक संक्रमणशील कला’, ‘कहानी : परंपरा व प्रगति’, 'नागार्जुन का कवि-कर्म’, ‘रामधारी सिंह दिनकर : व्यक्तित्व व कृतित्व’, 'नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल', 'आलोचना के बहाने', ‘ प्रगतिशील आंदोलन के इतिहास पुरुष’, 'भार एक व्याकुल’, ‘रक्तकमल परती पर’ तथा ‘ ईश्वर से भेंटवार्ता’, ‘देह धरे को दंड' आजादी का परचम, छायावादी की काव्य भाषा'। हिंदी के पच्चीस उपन्यासों पर आधारित किताब ‘उपन्यास की महान परपंरा’ पर नामवर सिंह ने कहा था, हिंदी उपन्यासों को समझने के लिए ऐसी किताब दूसरी नहीं है।

बौद्धिक व वैचारिक हस्तक्षेप करने वाली महत्वपूर्ण कृतियां में ‘विकल्प की प्रक्रिया’, ‘समय, समाज और मनुष्य’, ‘आज का वैचारिक संघर्ष और मार्क्सवाद’ और ‘नेतृत्व की पहचान’ प्रमुख है। ‘नेतृत्व की पहचान’ गाॅंधी, लोहिया एवं जयप्रकाश जैसे नेताओं को समझने के लिए ये एक जरूरी किताब है।

आजकल नामचीन रचनाकारों में पहचान स्थापित होने के पश्चात अपने संगठन से किनारा करने की प्रवृत्ति घर करने लगी है। खगेंद्र ठाकुर के लिए लेखक संघ रचनात्मकता को उर्वर भूमि प्रदान करने वाले स्पेस रहे है। उन्होंने अपने उदाहरण से भी इसे साबित किया है। सृजनात्मकता कोई व्यक्तिपरक गतिविधि नहीं, बल्कि सामूहिक कार्रवाई का हिस्सा है।

संगठन व सृजन एक दूसरे के विरूद्ध नहीं अपितु पूरक हैं।

प्रेमचंद जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर हिंदी प्रदेशों की किसी सरकार ने आयोजन नहीं किया था। पहला आयोजन अहिंदी भाषी पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने किया था। हिंदी प्रदेशों में संभवत: पहली बार पटना में इसकी शुरुआत खगेन्द्र ठाकुर ने की। नामवर सिंह को आमंत्रित कर तीन व्याख्यान दिलवाए तथा खुद बिहार के लगभग सौ जगहों पर प्रेमचंद पर आयोजन कर इसे एक आंदोलन में तब्दील कर दिया।

चंद दिनों पूर्व कर्नाटक की चर्चित पत्रकार गौरी लंकेश की निर्मम हत्या कर दी गयी। हत्या पर खुशी का इजहार करने वाले तत्वों को देश की सर्वोच्च सत्ता द्वारा संरक्षण प्रदान करना प्रतिगामी शक्तियों की बढ़ती आक्रामकता का भयावह संकेत है। लेकिन इस हत्या के विरूद्ध देशभर से अभूतपूर्व प्रतिवाद भी उठ खड़ा हुआ। इन हिंसक, प्रतिक्रियादी समूहों से लोहा लेने वाली प्रतिरोध की जो शक्तियां हैं वो सब खगेंद्र ठाकुर के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रेरणा ग्रहण करती रही हैं।

Similar News