अभी एक रोज पहले ही उनके ब्लड कैंसर की शुरुआती स्टेज में होने का पता चला और आज वो दुनिया से चलते बने। मंडी हाउस आज अपने एक यारबाज़ महबूब को खोकर उदास है....
लेखक, पत्रकार, कवि मज़ीद अहमद का कल इलाज के दौरान लखनऊ में निधन हो गया, उन्हें याद कर रहे हैं युवा लेखक-पत्रकार सुशील मानव
मंडी हाउस में श्री राम सेंटर के गेट के सामने किताबों को बिछाये बैठी संजना जी से बतिया रहा था मैं, तभी पीछे से आकर किसी ने पूछा पहल का सौंवा अंक आया क्या? उस शख्स ने इतनी धीमी आवाज़ में पूछा था कि मुझे पलटकर देखना पड़ा कि इस लाउडस्पीकर मय समय में शोर-शराबे और चीख के बीच इतना धीमा बोलने वाला ये कौन है।
मैं सोच में पड़ गया कि इस लाउड दुनिया में कैसे ये आदमी अपनी आवाज़ किसी के कानों तक पहुँचाता होगा। संजना जी ने शायद मेरे मनोभाव ताड़ लिए, तभी तो उन्होंने मुझसे था कि आप इन्हें जानते हैं। मैंने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया था। मुझे लगा कि इस शख्स के सामने मुँह खोलना ही अश्लीलता होगी। संजना ने जी ने उनका परिचय कराते हुए कहा था ये मजीद साहेब हैं। बहुत अच्छे कवि उतने ही अच्छे इंसान और लोकस्वामी पत्रिका के संपादक।
मैंने लगभग अपनी आवाज़ दबाते हुए उनसे नमस्ते कहा था कि कहीं मेरे अभिवादन में भी तौहीनी न झलक जाए इस शख्स को। उन्होंने मुझसे सिर्फ इतना ही पूछा अभी आप कहां जा रहे हैं। मैंने बताया कि हुत के एक कार्यक्रम में शरीक होने। ओह, अच्छा मैं भी वहीं जा रहा हूँ कहते हुए वो चल पड़े थे। रास्ते में उन्होंने मुझसे पूछा कि आपने अनीता भारती की ताजा कविताएँ पढ़ीं? मैं सिर्फ मुस्कुराकर रह गया। वो समझ गए सब। बोले ज़रूर पढ़ना मुज़फ्फ़रनगर दंगे पर उन्होंने बहुत अच्छी कविताएं लिखी हैं। एक पूरी की पूरी सीरीज कविताओं की। मैंने आश्वस्ति में सिर हिला दिया। उन्होंने मुझसे कभी भी कोई भी निजी या पारिवारिक प्रश्न नहीं पूछे।
उन्होंने मेरा मोबाइल नंबर लिख लिया था, मैंने भी उनका नंबर सेव कर लिया था। दो रोज बाद उनका कॉल आया कि सुशील आज साहित्य अकादमी में एक कार्यक्रम है। खाली हो तो आओ मुलाकात होगी। मैं भी खाली ही था ईएमयू पकड़ा और तय समय पर साहित्य अकादमी पहुँच गया। सच कहूं तो साहित्य अकादमी के उक्त हाल की भव्यता देखकर मैं भयभीत था। मजीद अहमद कुछ विलंब थे। मैं वहां किसी को नहीं जानता था। सो एक कोने में सहम खड़ा था।
मुझे वहां किसी भी कुर्सी पर बैठने में डर लग रहा था कि बैठ जाऊं तो कहीं कोई डपटकर उठा न दे। तभी मजीद साहेब दिखाई दिए मैंने अभिवादन किया। उन्होंने हाथ के इशारे से बैठने को कहा। कार्यक्रम नरेंद्र मोहन के 75वें जन्मदिन पर था, जिसमें कथाकार महीप सिंह समेत कई वरिष्ठ साहित्यकार शरीक हुए थे। वहां नरेंद्र मोहन की लिखी एक साथ 12 किताबों का विमोचन हुआ था। कार्यक्रम के बाद मजीद साहेब विमोचित किताबों को लेने में लगे थे।
दरअसल उन्हें किताबों से बहुत प्रेम था। पता नहीं कितना पढ़ लेना चाहते थे वे। उनकी हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद विपन्नता उनके साथ बनी हुई थी। इसी आर्थिक मजबूरी के चलते कई बार कई महंगी किताबें और पत्रिकाएँ वो चाहकर भी नहीं ले पाते थे, पर मनुष्य वो बेहद जीवंत थे। कार्यक्रम के बाद जब लोग जलपान में व्यस्त थे, मजीद साहेब ने मुझसे महीप सिंह को नीचे उनकी कार तक छोड़ने में सहयोग के लिए आग्रह किया और फिर हम महीप सिंह का हाथ थामकर सहारा देकर लिफ्ट से नीचे ले आए और उन्हें सहारा देकर उनकी कार में बिठाया।
उन्होंने मुझसे कई बार आग्रह किया था कि मैं उनकी पत्रिका के लिए किसी समाजसेवी या मजदूर वर्ग के लिए काम करनेवाले व्यक्ति का इंटरव्यू करके दूं। आज जहां संपादक कविताएं भेजने पर कवि को उसकी सूचना तक देना ज़रूरी नहीं समझते, वहीं मेरे संकोची स्वाभाव को जानते हुए मजीद साहेब ने अपनी पत्रिका के लिए कविताएं देने का भी मुझ पर दबाव बनाया।
मंडी हाउस उनकी महबूब जगह थी, जहाँ वो अपने व्यस्ततम रुटीन के बावजूद घंटों बैठना पसंद करते थे। जबकि लखनऊ उनकी रूह में बसता था। इतने लंबे समय तक दिल्ली में रहने के बावजूद दिल्ली उनसे उनका लखनऊ नहीं छीन सका।
शोर शराबे और लाउड आजों के लती मेरे कानों को कई बार उनकी धीमी आवाज़ से बहुत परेशानी होती थी। शोर शराबे में उनकी बातें अनसुनी रह जाती थी। कई बार दोबारा पूछ लेता, पर कई बार संकोच के मारे दोबारा नहीं पूछ पाता।
मजीद जी एक उम्दा कवि थे। भाषा के स्तर पर उनकी रचनाएं सहज संतुलित और संप्रेषणशील होती हैं। बहुत ही सूक्ष्म संवेदनाओं और अनुभूतियों से बुनी उनकी कविताओं में हमेशा एक संघर्षशील औरत मौजूद रही है, अपने समुदाय के संघर्ष, बेबसी उदासी, अकेलेपन, दमनित इच्छाओं और पीड़ा का प्रतिनिधित्व करती हुई। उनकी आवाज़ की ही तरह उनकी रचनाओं में भी शोर बिल्कुल नहीं होता था। उनकी कविताएं पुर-ख़ामोशी से ऐसे शब्दचित्र बुनती हैं कि पाठक बेचैन हो उठता है।
संवेदना, शिल्प कंटेंट और भाषा के स्तर बेहतरीन होते हुए भी उनकी कविताओं का समुचित मूल्यांकन नहीं हो सका। उनकी कविताओं को मैंने आज उनके इंतकाल के बाद गूगल पर बहुत खोजा पर कहीं कुछ नहीं मिला।
उनकी साहित्यकारों के बीच गहरी पैठ थी। साहित्यकारों के बहुत से किस्से थे उनके पास। करीब चार साल पहले उनका वरिष्ठ और दिवंगत साहित्यकारों से औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत पर एक किताब आई थी ‘मिलना-बतियाना’, कीमत थी करीब 300-400 रुपए। मैंने पूछा था इतनी महंगी किताब आपकी पढ़ेगा कौन। मैं भी तो नहीं पढ़ पाऊंगा। आप तो महंगी किताबों की त्रासदी से गुजरते रहे हैं फिर अपनी किताब का दाम प्रकाशक से आग्रह करके कम क्यों नहीं रखवाया। मजीद साहेब कुछ नहीं बोले। उनके चेहरे के खामोश भाव से मैं उनकी मजबूरी का अनुमान लगा लिया था वो उस वक्त बेहद निरीह लग रहे थे।
दो साल बाद गांव से लौटकर दिल्ली आया तो उन्हे फोन किया। फोन उठाने के बाद वो मजीद साहेब ने बताया कि वो लखनऊ के अस्पताल में भर्ती हैं। उनकी सेहत को लेकर ही बातें हुईं। मैंने उन्हें आराम करने की सलाह और जल्द ठीक होने की कामना करके फोन रख दिया। इस बीच दिल्ली का मंडी हाउस उनकी ही चर्चाओं और चिंताओं से आबाद रहा। हर कोई उनकी बाबत बतिया रहा था।
इस दौरान राजेश चंद्र भाई अपने स्तर पर उनकी सहायता करने के साथ साथ फेसबुक पर भी लोगों से उनकी मदद की अपील कर रहे थे। उनके अलावा संजीव चंदन समेत और भी कई लोग अपने अपने स्तर पर प्रयास कर रहे थे। उनके परिवार से बात करके उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लिवा आने की ताईं कल 9 सितंबर को शाम राजेश भाई ने उनके परिवारजनों से बात करने के लिए फोन किया तो पता लगा मजीद साहेब अब इस दुनिया में नहीं रहे।
अभी एक रोज पहले ही उनके ब्लड कैंसर की शुरुआती स्टेज में होने का पता चला और आज वो दुनिया से चलते बने। मंडी हाउस आज अपने एक यारबाज़ महबूब को खोकर उदास है। मजीद साहेब के साथ एक धीमी आवाज का चले जाना दुनिया की शोर-शराबे के खिलाफ खड़ी एक मजबूत प्रतिरोध का दरककर गिर जाना है। मजीद साहेब आपको अलविदा कहते हुए मेरी आँखें नम हैं और मन विचलित। आपको हम सब की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि।
मज़ीद अहमद की कविता 'उदास औरतें'
वे जो खारिज़ कर दी गई हैं
मिल जाया करती थीँ
दोपहर या सांझ घिरते ही एक-दूसरे को-
रोज़नामचा के सफ़े दुहराती
अथवा अचरज़ से
मनिहारिन की सतरंगी चूड़ियों का मोलभाव करतीं
कोई-कोई तो चुटपुटिया बटन ही खरीदतीं-
अपने उदर में बांधे पूरे कुनबे की भूख
झुकी रहती पनियल खेतों में
रोपती हुई धान
चूल्हे के गुण-सूत्र का अनन्तिम दुःख
वक़्त-बेवक्त उनके सिर पर लदा ही रहता
फिर भी हर सुरभि-संधि के साथ
अमावस्या को
गोमती-स्नान कर
उतारती रहीं शेष-अशेष प्रायश्चित-
शिथिल होते तमाम रिश्तों को निबाहती
बनी रहीं विनम्र
उम्र की निर्गुण चदरिया ओढ़े
वे रचती हैं साखी
हीरामन छुपा है कहीं विरह में किसी
धुँधले कोने में बिखरी है चैती, कजरी
लौट जाना चाहती हैं शायद वे
नैहर के दिनों में
सपनों में
मटमैले हो गए दरख़्तों और पगडंडियों की ओर
उदास अकेली