थिएटर के नाम पर थिएटर ओलम्पिक जैसे भद्दे मज़ाक करती सत्ता

Update: 2018-02-18 15:36 GMT

सत्ता सिर्फ़ नाचने गाने वाले हुनरमंद जिस्मों को कलाकार के रूप में स्थापित करती है। उन्हें दरबारी सम्मान देती है और सत्ता आश्रित बनाती है। ये दरबारी नाचने गाने वाले हुनरमंद जिस्म जीवनभर सत्ता की चाकरी करते हैं....

मंजुल भारद्वाज, रंग चिंतक

सत्ता न थिएटर को मार सकती है ना जिंदा कर सकती है क्योंकि थिएटर रंगकर्मियों की जीवटता पर जिंदा रहता है। जीने की जिद्द कभी खत्म नहीं होती, हाँ समय समय पर क्षीण हो सकती है।थिएटर एक विद्रोह है सत्ता के ख़िलाफ़। यहाँ सत्ता सिर्फ़ सरकार नहीं है यहाँ सत्ता का अर्थ सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद है।

लालकिला परिसर में आठवें थियेटर ओलंपिक के उद्घाटन समारोह कल 17 फरवरी को उपराष्ट्रपति महोदय द्वारा कर दिया गया। कलाकारों का उपहास उड़ाता यह थिएटर ओलंपिक चालू है जिसके उदघाटन सत्र में ही ढाई हजार दर्शकों के बैठने की व्यवस्था की गई थी। हालांकि आम जनता के सरोकारों से दूर इस आयोजन में कुर्सियां खाली पड़ी रहीं, काफी कम संख्या में दर्शक पहुंचे थे।

सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह जनमानस में सतत सुलगता रहता है और थिएटर उसकी ‘कलात्मक’ अभिव्यक्ति है। सत्ता हमेशा ‘विद्रोह’ का दमन करना चाहती है पर एक हद के बाद स्वयं दमित हो जाती है। थिएटर आईना है और क्रूर सत्ता आईना नहीं देखना चाहती और आईने को चकनाचूर करने के चक्कर में खुद चूर चूर हो जाती है। सत्ता नियन्त्रण का प्रारूप है और जब तक जीवन हैं तब तक व्यवस्थागत नियन्त्रण और उससे मुक्ति का संघर्ष कायम रहेगा। जो इस संघर्ष को जीता है वो ‘जीवित’ है।

रंगकर्मी इस मुक्ति संघर्ष को जीते हैं। यही मुक्ति संघर्ष उनमें ‘कलात्मक दृष्टि’ बोध जगाता है। सत्ता अक्सर यहाँ घालमेल करती है। सत्ता रंगकर्मियों के कलात्मक दृष्टिबोध को खंडित करती है। ‘कलात्मक दृष्टि’ बोध में से ‘दृष्टि’ को खत्म करने का कुचक्र चलाती है और सिर्फ़ ‘कला’ का डंका बजती है। सत्ता सिर्फ़ नाचने गाने वाले हुनरमंद जिस्मों को कलाकार के रूप में स्थापित करती है। उन्हें दरबारी सम्मान देती है और सत्ता आश्रित बनाती है। ये दरबारी नाचने गाने वाले हुनरमंद जिस्म जीवनभर सत्ता की चाकरी करते हैं।

पर सत्ता भूल जाती है की ‘दृष्टि’ सम्मानों से नहीं आती, दृष्टि उसके द्वारा संचालित ‘ड्रामा स्कूलों’ से नहीं विकसित होती, दृष्टि उसके वजीफों से नहीं पनपती। दृष्टि ‘जीवन संघर्ष’ से उपजती है। दृष्टि महलों के बाहर निकलने पर मिलती है। दृष्टि ज़िन्दगी की ठोकरों की ध्वनियों में गूंजती है।

दृष्टि कोई दे नहीं सकता। दृष्टि को साधा जाता है। और जब तक दृष्टि साधने वाले रंगकर्मी जिंदा हैं तब तक सत्ता अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकती। क्योंकि प्रतिभा संसाधनों की मोहताज़ नहीं होती। संसाधन दृष्टि नहीं देते भोग और विलास की और मुखरित होते हैं।

इतिहास गवाह है क्या अमेरिका जैसे देश में तमाम सम्पन्नता के बावजूद ‘दृष्टिगत’ रंगकर्म जिंदा है? ट्रम्प का राष्ट्रपति बनाना उसका जवाब है! एक बात हमेशा स्मरण रहे सत्ता हमारे हिसाब से नहीं चल सकती, चलनी भी नहीं चाहिए। सत्ता को ‘संविधान’ के तहत नीतियों पर चलना है।

सत्ता को संविधान सम्मत नीतियों पर चलने के लिए बाध्य करना रंगकर्मियों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है। कला के नाम पर नुमाइश और भोगवादी कार्यक्रम चलते रहेगें। सत्ता हमेशा आत्म दम्भी, नाचने गाने वाले हुनरमंद जिस्मों को प्रोत्साहित करती रहेगी, ताकि जीवट रंगकर्मियों का हौंसला टूटे।

इसलिए सत्ता थिएटर के नाम पर थिएटर ओलम्पिक जैसे भद्दे मज़ाक करती है। रंगकर्मियों की जीवटता टूटती नहीं है सत्ता के विरोध में मुखर होती है। रंगकर्म जुनून से चलता है!

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