आधुनिकता की भेड़चाल ने कैंसर को महामारी बना दिया

Update: 2017-08-08 14:33 GMT

कैंसर का इलाज अस्पताल में भले लाइलाज हो, पर आपके घर में इसका समुचित इलाज संभव है...

डाॅ. ए. के. अरुण, एमडी

देश और विदेश में रोज कैंसर के बढ़ते मामलों के बीच यह जानकारी चौंकाने वाली है कि हमारे दैनिक जीवन में रोज इस्तेमाल हो रहे रसायन, सौंदर्य प्रसाधन, शैंपू, तेल अल्कोहल आदि कैंसर के मामले को न केवल बढ़ा रहे हैं बल्कि उसे जटिल और लाइलाज बना रहे हैं।

ब्रिटेन के कैम्ब्रीज विश्वविद्यालय में भारतीय मूल के प्रोफेसर अशोक वेंकटरामण के नवीनतम शोध ने यह स्पष्ट किया है कि हमारे दैनिक जीवन में प्रयुक्त कृत्रिम रसायन व कृत्रिम रंग तेजी से फैलते और जटिल होते विभिन्न प्रकार के कैंसर के लिये ज्यादा जिम्मेवार हैं।

प्रो. वेंकटरामण के अध्ययन में यह भी खुलासा हुआ है कि लोगों द्वारा अल्कोहल का बढ़ता उपयोग भी कैंसर रोगों में वृद्धि का महत्वपूर्ण कारक है। उनके अध्ययन में यह बात उभर कर आयी है और मानव जीवन में ‘एलीहाइड’ के बढ़ते उपयोग ने कैंसर को बढ़ाने में मदद दी है और अलकोहल या शराब एलीहाइड का प्रमुख स्रोत है।

एक अन्य अध्ययन में भारतीय लोगों में बढ़ते मोटापे को भी कैंसर से जोड़कर देखा जा रहा है। इन्टरनेशनल एजेंसी फाॅर रिसर्च आन कैंसर तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन (आईएआरसी-डब्ल्यूएचओ) के अध्ययन में पाया गया है कि बढ़ते मोटापे से कैंसर के रोगियों में 13 से 15 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन 'डब्लूएचओ' के कैंसर फैक्टशीट फरवरी 2016 के अनुसार दुनियाभर में एक करोड़ लोग प्रतिवर्ष कैंसर की वजह से मर रहे हैं। यह आंकड़ा 2030 तक बढ़कर सवा करोड़ हो जाएगा, लेकिन इसमें सबसे ज्यादा चिन्ता की बात यह है कि कैंसर से होने वाली मौतों में गरीब और विकासशील मुल्क के गरीब लोगों की संख्या सबसे ज्यादा होगी। यानि भारत कैंसर के निशाने पर मुख्य रूप से है।

डब्लूएचओ की यही रिपोर्ट यह भी बताती है कि इन मामलों में 40 प्रतिशत मौतों को समुचित एवं समय पर इलाज से रोका जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार फेफड़े के कैंसर से होने वाली मौतें सबसे ज्यादा 1.4 मिलियन, पेट के कैंसर .74 मिलियन, लिवर कैंसर .70 मिलियन, आंतों के कैंसर.61 मिलियन तथा स्तन कैंसर .46 मिलियन प्रमुखता से पहचाने गए हैं। स्त्रियों में गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इसलिये कैंसर के बढ़ते संक्रमण और मामले एक तरह से खतरे की घंटी भी हैं।

डब्लूएचओ की इसी कैंसर फैक्टशीट में यह भी जिक्र है कि तम्बाकू के बढ़ते उपयोग, शराब, डब्बाबन्द अस्वास्थ्यकर खान-पान, कुछ वायरल रोगों या विषाणुओं का संक्रमण जैसे हेपेटाइटिस बी.,सी, हयूमेन पेप्लियोमा वायरस (एचपीवी() आदि विभिन्न कैंसर को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।

इसी में यह भी जिक्र है कि उपरोक्त कारकों से बचाव कर कैंसर की सम्भावनाओं को कम किया जा सकता है। यों तो डब्ल्यूएचओ ने वैश्विक स्तर पर कैंसर से निबटने के लिये एक नाॅन कम्यूनिकेबल डिजिज एक्सन प्लान 2008 भी बनाया है, लेकिन व्यापक जन जागृति के अभाव में कैंसर जैसे घातक रोग से निबटना या बचना आसान नहीं है।

कैंसर के प्रति न केवल आम आदमी बल्कि चिकित्सकों का भी जो प्रचलित दृष्टिकोण है, वह रोगी को भयभीत करने वाला ही है। कैंसर मनोविज्ञान पर डाॅ. वृंदा सीताराम की मशहूर पुस्तक ‘नाट-आउट विनिंग द गेम आॅफ कैंसर’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।

उनकी पुस्तक का सारांश इन वाक्यों से समझा जा सकता है ‘जिन्दगी ताश के पत्तों के खेल की तरह है। आपको शायद अच्छे पत्ते न मिलें, लेकिन जो कुछ आपको मिला है उससे आपको खेलना ही पड़ता है।’ ज्यादा गहरी रुचि वाले पाठक इस पुस्तक को पढ़ें तो अच्छा रहेगा।

विगत वर्ष कैंसर पर एक और पुस्तक मशहूर हुई और वह है ‘द इम्पेरर आॅफ आल मलाडिज’। डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी की इस पुस्तक को वर्ष 2011 का मशहूर अंतरराष्ट्रीय पुलिन्जर पुरस्कार भी मिल चुका है। 41 वर्षीय डाॅ. मुखर्जी भारतीय मूल के अमेरिकी चिकित्सक हैं और यह पुरस्कार पाने वाले वे चौथे भारतीय हैं।

अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में मेडिसीन पढ़ाते हुए उन्होंने यह कैंसर की जीवनी लिखी, जो अभी तक की कैंसर पर उपलब्ध सर्वाधिक प्रमाणिक पुस्तक है। इस पुस्तक की खासियत है कि यह तथ्यात्मक तो है ही रोचक भी है। इसे सभी पाठक पढ़ें। यह भी पढ़ने लायक एक जरूरी पुस्तक है।

अब यह तथ्य प्रमाणित हो रहा है कि हमारी कथित आधुनिक जीवन शैली ही कैंसर जैसे घातक रोगों को आमंत्रण देती है। इस महंगी आधुनिक जीवन शैली में कैंसर बढ़ेगा ही और फिर इसके उपचार के नाम पर अनेक पांचसितारा कैंसर अस्पताल भी खुलते जाएंगे, लेकिन क्या इससे कैंसर रोगियों का वास्तव में भला हो पाएगा? यह सवाल हर व्यक्ति, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारों से तवज्जो की मांग करता है।

यह भी सच है कि लाइलाज कैंसर के उपचार के अनेक देसी एवं फर्जी दावे भी कैंसर रोगियों को गुमराह कर रहे हैं। प्रत्येक चिकित्सा पद्धति में ऐसे फर्जी दावे और भ्रामक विज्ञापनों पर रोक की जो नैतिक पहल होनी चाहिये, वह नहीं है।

सरकारों और समाज को भी यह प्रयास करना होगा, ताकि लोग प्राकृतिक उपचार जैसे होमियोपैथी, आयुर्वेद आदि के प्रति अपना रूझान बनाएं और इसके उपचारक लाभ प्राप्त करें। इन चिकित्सा पद्धतियों के नियामक संस्थाओं को भी नेतृत्वकारी व सहकारी भूमिका निभानी होगी।

(लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं। लेखक की पुस्तक 'कैंसर को समझना क्यों जरूरी है' चर्चा में है।)

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