उत्तराखंड के माननीयों की दिल्ली दौड़ फिर से सत्ता परिवर्तन की सुगबुगाहट तो नहीं?

Update: 2018-01-07 18:23 GMT

विधायकों की लगातार दिल्ली दौड़ और भाजपा के शीर्ष मंत्रियों से मुलाकातों का दौर देख लग रहा है कि त्रिवेन्द्र सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं...

देहरादून से मनु मनस्वी

बीते कई दिनों से सर्द मौसम के बीच उत्तराखंड की राजनीति गर्माई हुई है। हरीश रावत सरकार के समय कांग्रेस से बागी बनकर सरकार गिराने की असफल कोशिश करने वाले विधायकों ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बत्ती ऐसी गुल की कि भाजपा भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हो गई।

इन सभी बागियों को पूरे सम्मान के साथ मंत्रिमंडल में शामिल भी किया गया, लेकिन जिसके मुंह ताजा शिकार लग गया हो, वो हमेशा पेट भरा होने पर भी भूखा ही महसूस करता है। नई सरकार बने अभी एक साल भी नहीं हुआ है और इन बागियों के सुर फिर बदलने लगे हैं। कम से कम विधायकों की लगातार दिल्ली दौड़ और भाजपा के शीर्ष मंत्रियों से मुलाकातों का दौर तो यही कहानी बयां कर रहा है कि त्रिवेन्द्र सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

कारण साफ है। एक तो त्रिवेन्द्र का स्वभाव अंतर्मुखी है, दूसरा वो शुरू से ही अलग थलग से रहते आए हैं। अब ये उनके अंतर्मुखी स्वभाव के कारण है या उनकी अकड़, पता नहीं, पर यह बात साफ है कि वे अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही मिलनसार प्रवृत्ति के नहीं रहे हैं। इसी के चलते उन्हें चाहने वालों (वास्तविक रूप से) की संख्या नगण्य है।

इस बार इन विधायकों की दिल्ली दौड़ की वजह वही है, जो हरीश सरकार के समय थी- सरकार परिवर्तन की जद्दोजहद। इस बार इन बागियों को लीड कर रहे हैं सतपाल महाराज। पर्यटन जैसा मंत्रालय संभालने के बाद भी न जाने सतपाल महाराज को कौन सा और सुख चाहिए था, जो वे अनमने से हैं।

कर्णप्रयाग रेल पहुंचाने के अपने इकलौते नारे की बदौलत अब तक राजनीति कर रहे सतपाल महाराज चुनाव से पहले खुद को मुख्यमंत्री मानकर चल रहे थे, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी उत्तराखंड के हिस्से ‘सरप्राइज सीएम’ ही आया।

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नित्यानंद स्वामी, कोश्यारी, एनडी तिवारी से लेकर विजय बहुगुणा, हरीश रावत और अब त्रिवेन्द्र रावत.. सभी मुख्यमंत्री जनता पर जबरिया थोपे ही गए हैं। यही कारण है कि तिवारी को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। तिवारी भी पूरे पांच सालों तक अपनी ही पार्टी के विधायकों के विरोध से जूझते रहे, लेकिन लंबे राजनीतिक अनुभव के चलते वे पांच साल निकाल ले गए।

सूत्रों की मानें तो इस बार सतपाल की अगुवाई में चल रहे इस ड्रामे का मकसद उन्हें मुख्यमंत्री बनाना ही है। ऐसा नहीं है कि त्रिवेन्द्र इससे अनजान हैं, लेकिन वे हाईकमान द्वारा राज्य पर थोपे गए नख, शिख और दंतविहीन मुख्यमंत्री हैं, जिनका रिमोट केन्द्र के हाथों में है। कौन सा बटन कब दबना है और उससे क्या होगा, सब कुछ दिल्ली दरबार से तय है।

हां, त्रिवेन्द्र को बचाने में आबकारी मंत्री प्रकाश पंत लगातार फ्रंटफुट पर हैं और सरकार पर उठने वाली हर उंगली पर जवाब देने हर बार वही सामने आते हैं। अब देखना यह होगा कि क्या इस बार पंत त्रिवेन्द्र सरकार के संकटमोचक बन पाते हैं या नहीं।

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