जनसंघर्षों के साथी मास्साब का लंबी बीमारी के बाद निधन

Update: 2018-03-18 14:30 GMT

Sorry I can't say anything, मेरे प्रिय मास्टर प्रताप सिंह नहीं रहे, मास्साब जैसे लोगों का इस दुनिया से जाना ओह!

मास्साब के नाम से ख्यात उत्तराखण्ड के आंदोलनकारी और जनसंघर्षों के साथी मास्टर प्रताप सिंह का आज कैंसर की बीमारी के बाद निधन, उन्हें याद कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर जोशी

मास्टर प्रताप सिंह उत्तराखंड का जाना—माना नाम थे। वैसे तो मास्साब यूपी के बरेली जिले के रहने वाले थे, लेकिन रोजीरोटी की तलाश में नौजवानी में उधमसिंह नगर आ गए। तब न उत्तराखंड था और न ही उधमसिंह नगर जिला। विकट परिस्थितियों में मास्टर साहब ने परिवार पाला। शिशु मंदिर में नौकरी की। कट्टर आरएसएस की विचारधारा के प्रताप सिंह को जनता के दुख-दर्दों ने धर्म की राजनीति से दूर कर दिया। उनको हर विचारधारा वालों ने विरोधी बताया तो हर परेशान व्यक्ति ने अपना लिया।

शिशु मंदिर की नौकरी छोड़ उन्होंने दिनेशपुर कस्बे में एक छोटा—सा स्कूल चलाया। ये स्कूल तो क्या आंदोलनों और गरीब-पीड़ित लोगों का दपफ्तर ही बन गया। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के बाद तो वह स्कूल की गतिविधियों से दूर गांव और उद्योगों को ही समर्पित हो गए। उनको प्रशासन ने कई प्रकार से प्रताड़ित किया। लाठियां खाईं, जेल में बंद रहे। पत्नी गीता सिंह व बच्चों को घर में गुंडे-बदमाशों ने धमकाया, लेकिन पूरा परिवार कभी नहीं डिगा।

हर आंदोलन में पूरा परिवार साथ रहता। किसी भी विचारधारा या पार्टी से जुड़ा व्यक्ति परेशानी लेकर मास्साब के पास पहुंच जाए तो आधी रात में भी वह साथ हो लेते। दर्जनों लोगों को सूदखोरों से मुक्त कराया, दबंगों से जमीन वापस दिलाई, उद्योगों की हड़तालों में रात-दिन साथ रहे। टिहरी बांध के विरोध में मास्टर साहब कई दिनों तक वहां गांवों में रहे, आंदोलन को मजबूत करते रहे। कुमाऊं-गढ़वाल में जहां आंदोलन का पता चलता, मास्साब झोला उठाकर वहीं को चल पड़ते।

बीमारी की भी वह कभी परवाह नहीं करते थे। कुछ समय पहले एक अभियान के दौरान ही उनको बेहद कमजोरी थी। बहुत देर बाद चेकअप कराया तो कैंसर की बीमारी निकली। काफी समय से दिल्ली में उपचार के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। कई लोगों ने उनको आर्थिक मदद करने की कोशिश की, पर उन्होंने किसी से कोई मदद नहीं ली। शरीर क्षीण होता गया, पर दिमाग में कोई थकान नहीं। आंखें काम करना बंद कर गईं, लेकिन उन्होंने लिखना बंद नहीं किया।

फेसबुक पर हर मामले पर उनकी टिप्पणियां जरूर आती रहीं। अंतिम टिप्पणी तक भी कोई ये नहीं कह सकता कि मास्साब इतनी गंभीर हालत में हैं। उनके दिल में ऐसा असीम प्रेम था कि हर आदमी उनके घर का सदस्य ही होता। बुरे विचार और बुरे लोगों से उनकी ऐसी ही नफरत भी होती।

कितना ही बड़ा ओहदे का अधिकारी हो, मास्साब का सामना करने से घबराता था। समाज के लिए जीने वाले लोगों से बड़ा दम मिलता है। ऐसे लोगों का पूरा समाज घर होता है। अब यह सोच कम होती जा रही है।

हालात यहां तक पहुंच रहे हैं कि सारा जीवन समाज पर लगाने वाले लोग अंत समय में अकेले पड़ जाते हैं। हालांकि मास्साब के साथ ऐसा नहीं हुआ, उनके चाहने वाले देशभर से समय-समय पर उनसे मिलने जाते रहे। प्रताप जी कुशलक्षेम पूछने आने वालों में भी नया जोश भर कर विदा कर दिया करते थे।

मास्साब की उम्र के बहुत सारे लोग अभी भी जनता के संघर्षों में शामिल हैं। हर तकलीफ को अपनी समझ कर उसे हल करने में जुटे रहते हैं, पर नई पीढ़ी में अब वह जोश नहीं दिखता। जिंदादिल इंसानों का लगातार दुनिया से रुखसत होना ठीक नहीं है। इनकी कमी को कौन पूरी करेगा, समझ से परे है।

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