झीरम घाटी माओवादी हमले की जांच कराएगी कांग्रेस सरकार

Update: 2018-12-26 06:42 GMT

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क्या कभी झीरम घाटी के माओवादी हमले का वास्तविक सच सामने आएगा, मुख्यमंत्री ने की एसआईटी जांच कराने की घोषणा

वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट

जनज्वार। क्या झीरम घाटी में हुए हुए सबसे बड़े माओवादी हमले की सुपारी नक्सलियों ने ली थी? क्या इस कांड के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह ने नक्सलियों को करोड़ों रुपये भिजवाये थे?आखिर एनआईए ने अपनी जाँच में इस घटना के पीछे राजनीतिक षड्यंत्र को क्यों नहीं शामिल किया था? छत्तीसगढ़ में नयी कांग्रेस सरकार ने झीरम घाटी कांड की एसआईटी जांच कराने की घोषणा कर दी है। अब लाख टके का सवाल है कि क्या झीरम घाटी के इस माओवादी हमले का वास्तविक सच सामने आएगा।

25 मई 2013 को झीरम घाटी में हुए हुए सबसे बड़े माओवादी हमले में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं समेत 29 लोग मारे गए थे। मान लिया गया था कि कांग्रेस पार्टी के लिए राजनीतिक तौर पर इस हमले से उबरने में कई साल लग जाएंगे। लेकिन कांग्रेस पार्टी फिर से एकजुट हुई और राज्य में विधानसभा की 90 में से 68 सीटों पर जीत हासिल करके सरकार बनाने में कामयाब रही।

मारे जाने वालों में पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ला, प्रदेश के पूर्व मंत्री और पूर्व सांसद महेंद्र कर्मा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार और कांग्रेस नेता योगेंद्र शर्मा शामिल थे। अब छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने शपथ लेने के बाद कुछ ही घंटों के भीतर 2013 में बस्तर की झीरम घाटी में हुए माओवादी हमले की एसआईटी जांच कराने की घोषणा कर दी है।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि हमारी पार्टी शुरू से कहती रही है कि यह हमला एक षड्यंत्र था और इस मामले में हमारे शहीद नेताओं को न्याय नहीं मिला। हम चाहते हैं कि इस हमले का सच दुनिया के सामने आए। भूपेश बघेल पिछले साढ़े पांच सालों में कई बार आरोप लगा चुके हैं कि कांग्रेस पार्टी के नेताओं की हत्या एक राजनीतिक साज़िश है।

यहाँ तक कि अप्रैल 2017 में पत्रकार वार्ता में छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने दावा किया था कि उन्हें इस तरह की जानकारी मिली है कि राज्य में झीरम घाटी हमले से पहले राज्य सरकार ने किसी के माध्यम से नक्सलियों को करोड़ों रुपये भिजवाए थे। बघेल ने राज्य में पुलिस और नक्सलियों के बीच सांठगांठ का भी आरोप लगाया था।

गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष नंद कुमार पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी की सरकार को हटाने के लिए परिवर्तन यात्रा निकाली थी। 25 मई 2013 की सुबह 10 बजे के आसपास यह यात्रा जगदलपुर से सुकमा के लिए निकली। विद्याचरण शुक्ल की गाड़ी में नंदकुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल भी थे।

विद्याचरण शुक्ल ने हमेशा से माओवादियों के निशाने पर रहे महेंद्र कर्मा को भी अपनी गाड़ी में साथ आने के लिए कहा, लेकिन महेंद्र कर्मा सुरक्षा का हवाला देकर दूसरी गाड़ी में चले गए। दरभा घाटी के पास गाड़ी पर ताबड़तोड़ चार फायरिंग हुई। किसी की समझ में कुछ नहीं आया।लेकिन अनुभवी ड्राइवर ने गाड़ी नहीं रोकी।

उसने चिल्लाते हुए कहा कि नक्सली हमला हो गया है। आगे यू टर्न था आगे जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। गाड़ी मुश्किल से तीन-चार सौ मीटर आगे बढ़ी होगी तो वहां पूरा रास्ता जाम था। सारी गाड़ियों पर ताबड़तोड़ फायरिंग हो रही थी। घने जंगलों की फिज़ा में सब तरफ़ बारूद की गंध भरी हुई थी। पूरा काफिला पूरी तरह से माओवादियों से घिर चुका था।

विद्याचरण शुक्ल ने सभी को अपनी-अपनी सीट को पीछे करके लेटने का निर्देश दिया। सभी दम साधे सिर पर मंडराती मौत को महसूस कर रहे थे। लेकिन विद्याचरण शुक्ल के सुरक्षा गार्ड प्रफुल्ल ने अपनी पिस्तौल निकाली और जिस ओर से फायरिंग हो रही थी, उधर जवाबी फायरिंग की। पूरी गाड़ी को जगह-जगह गोलियों छेद रही थीं। तभी एक गोली अगली सीट पर बैठे विद्याचरण शुक्ल की पेट पर लगी और ख़ून का फव्वारा छूट गया। कोई दो घंटे तक चली गोलीबारी के बाद सैकड़ों की संख्या में हथियारबंद महिला और पुरुष माओवादियों ने कांग्रेसी नेताओं के इस काफिले को अपने घेरे में ले लिया।

निशाने पर महेंद्र कर्मा

माओवादी माओवादियों के खिलाफ़ सलवा जुडूम अभियान चलाने वाले महेंद्र कर्मा को तलाश रहे थे। एक गाड़ी से छुपकर बैठे कर्मा को जब पता चला कि माओवादी उन्हें तलाश रहे हैं तो वे दोनों हाथ ऊपर उठा कर समर्पण वाली मुद्रा में बाहर निकले और चिल्लाते हुए कहा कि सारे लोगों को छोड़ दो, मैं महेंद्र कर्मा हूं।

माओवादी तेज़ी से उनकी ओर लपके और उन्हें अपने क़ब्ज़े में ले लिया और उनकी हत्या कर दी। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश पटेल और विधायक कवासी लखमा को भी अपने क़ब्ज़े में लिया और फिर सभी नेताओं को घाटी की दूसरी ओर लेकर चले गए। घटना के अगले दिन ख़बर मिली कि माओवादियों ने बंधक बना कर कुछ घंटों तक रखे गए कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल की भी हत्या कर दी थी। इस हमले में कुल 10 पुलिसकर्मियों समेत 29 लोग मारे गए थे, जबकि 38 लोगों की जान बच गई थी।

जांच में झोल

भाजपा सरकार ने झीरम कांड की एनआईए से जांच कराई थी। एनआइए ने राजनीतिक षड्यंत्र को जांच के प्रमुख बिंदुओं में शामिल नहीं किया था। जबकि कांग्रेस लगातार यह मांग कर रही थी कि यह मामला राजनीतिक षडयंत्र है, इसकी सीबीआई जांच कराई जाए। कांग्रेस विधायकों ने विधानसभा में जब सीबीआई जांच का दबाव बनाया, तो रमन सरकार ने पत्र लिखा, लेकिन सीबीआई ने एनआईए जांच का हवाला देकर जांच से इनकार कर दिया था। कांग्रेस ने झीरम की जांच के लिए सड़क से लेकर विधानसभा तक लड़ाई लड़ी, लेकिन भाजपा सरकार ने एक न सुनी।

अनुत्तरित सवाल

पहला सवाल सुरक्षा व्यवस्था को लेकर है। हमले के बाद सबसे बड़ा सवाल उठा कि क्या यह सुरक्षा व्यवस्था में चूक थी? झीरम कांड की जांच कर रहे आयोग की सुनवाई में जो तथ्य सामने आए हैं वे तो इसकी चुग़ली ही करते हैं। बस्तर इस समय देश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित इलाक़ों में से एक है। झीरम घाटी को माओवादियों गतिविधियों का गढ़ माना जाता है। तथ्य बताते हैं कि झीरम घाटी में सुरक्षा के लिए राज्य सरकार ने सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त नहीं रखी।

दूसरा सवाल राजनीति को लेकर है। ये सवाल लगातार उठ रहे थे कि क्या सत्तारूढ़ पार्टी और माओवादियों के बीच कोई तालमेल है? आंकड़े बताते हैं कि जब भी माओवादी चुनाव बहिष्कार की बात करते हैं तो माओवादी प्रभावित इलाक़े में भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलता है।सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नान घोटाले में लीक हुई डायरी में भी माओवादियों को भाजपा के नेताओं के नाम से बड़ी धनराशि देने का ज़िक्र आता है। तो क्या यह हमला राजनीतिक कारणों से भी हुआ था जिसमें सरकार की कोई भूमिका थी?

तीसरा सवाल इस घटना की जांच पर उठता है। इतने बड़े हमले के बाद राज्य सरकार को जिस तरह की कार्रवाई करनी थी, वह तो नहीं हुई। लेकिन इसके बाद एनआईए ने अपनी जांच के बाद जो चार्जशीट फ़ाइल की है उसमें भी कई बड़ी खामियां नज़र आती हैं।

एक तो यह कि एनआईए ने अपनी जांच में बस्तर के तीन बड़े पुलिस अधिकारियों बस्तर के एसपी, सुकमा के एसपी और बस्तर के आईजी को पूछताछ के लिए ही नहीं बुलाया। दूसरा यह कि एनआईए जैसी एजेंसी ने भी इस हमले में किसी षड्यंत्र के कोण से जांच ही नहीं की।

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