जिस रात की सुबह नहीं

Update: 2017-12-15 19:22 GMT

'सप्ताह की कविता' में आज ख्यात कवि निर्मला गर्ग की कविताएं

'जिस रात की कोई सुबह नहीं/ वह रात है गुजरात.../ यह रात फैलती जा रही है /... सच होते जा रहे बारंबार दुहराए झूठ/... नाच रही नंगी यह रात/... विदेशी पूंजी से बहनापा रखती
जनता की जेबों में कर रही छेद/ इस रात के बाजू सहस्‍त्र हैं /इसके हैं चेहरे अनेक।'

निर्मला गर्ग जैसी राजनीतिक सचेतनता नहीं के बराबर है क‍वयित्रियों में, कुछ हैं तो अनावश्‍यक तौर पर लाउड हैं। बातों से ज्‍यादा उनका शोर रह जाता है, बाकी। विष्‍णु खरे ने गर्ग के आब्‍जर्वेशन को 'अदभुत' कहा है। वह अद़भुत से ज्‍यादा स्‍पष्‍ट है, इतना स्‍पष्‍ट कि हमारे भीतर की कायरता को लगता है कि, अद़भुत है -
'मौसम्‍मी के रस की दरकार मुझे ज्‍यादा है/ या उस बच्‍चे की निस्‍तेज देह को/ इसका फैसला नहीं करती सांसद/ न्‍यायालय नहीं करता/...संसद और न्‍यायालय मेरे पक्ष में हैं।'

मृत्‍यु को लेकर बहुत लकीर पीटी है अशोक वाजपेयी ने, पर इधर पूरनचंद जोशी के बाद मौत को लेकर जैसा ट्रीटमेंट निर्मला की कविताओं में दिखता है वह 'अदभुत' है -
'मृत्‍यु का आसरा नहीं होता/ तो जीना भी आसान नहीं होता...'

मृत्‍यु को आश्वस्ति के इस भाव से देखना नया है कविता में। इस नयेपन के साथ उन्‍होंने बहुत सी बातों को देखा है, असफलताएं, युद्ध, आदि कई शब्‍दों के नये भाष्‍य हैं गर्ग की कविताओं में... 'ताकतवर देश/ अंधेरे की भाषा बोलते हैं/ उपनिवेशों की सरकारें उसे दुहराती हैं...'

अपनी सारी उधेडबुन, संघर्ष के बाद भी अपनी कविता को वे एक आश्‍वस्तिदायक जगह के तौर पर देखना चाहती हैं-'लिखी गयीं इतनी कविताएं कि/ सड़क बन गयी एक छोटी सी/ ...शहर में जब-जब धुआं उठेगा/...लोग इसी सडक से घर आएंगे।' आइए पढ़ते हैं निर्मला गर्ग की कविताएं - कुमार मुकुल

गज़ा पट्टी-1
गज़ा पट्टी रक्त से सनी है
खुले पड़े हैं अनगिनत जख़्म

अरब सागर अपनी चौड़ी तर्जनी से बरज़ रहा है
इस्त्राइल को किसी की परवाह नहीं है
काठ का हो गया है
उसका ह्रदय
ताकत के नशे में वह इतिहास को भूल रहा है

अभागे फिलिस्तीनी अपनी मिट्टी से
बेदख़ल किए गए
उनके घर के दरवाज़े
उनके चाँद तारे
सब पर कब्ज़ा कर लिया
दुनियाभर से आए यहूदियों ने
अमेरिका का वरदहस्त सदा रहा इस्त्राइल के कंधे पर

इस्त्राइल के टैंक रौंदते रहे
फिलिस्तीनियों के सीने
उनकी बंदूकें उगलतीं रहीं आग
मक्का के दाने से भुन गए छोटे छोटे शिशु भी
पर टूटे नहीं फिलिस्तीनियों के हौसले

आज़ फिर ख़ामोश है अमेरिका यूरोप
आज फिर उद्देलित है
अरब सागर
सूअरों-कुत्तों की तरह फिर मारे जा रहे फिलिस्तीनी
लाल हो रही रक्त से फिर
गज़ा पट्टी ।

गज़ा पट्टी-2
इस्त्राइल तांडव कर रहा है
गज़ा मृत्यु-क्षेत्र में तब्दील हो रहा है
बुश तो हमेशा अत्याचारियों के साथ रहे
पर तुम?
तुम बराक हुसैन ओबामा!
तुमने भी कुछ नहीं कहा
कुछ नहीं किया

श्वेत श्याम
अमेरिका के दो चेहरे नहीं
दो नीतियाँ नहीं
दो दृष्टिकोण नहीं
सामाज्यवाद के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
शायद
बुश और ओबामा!

फ़ेयर एंड लवली
फ़ेयर एंड लवली की सालाना बिक्री है आठ हज़ार करोड़...
कविता की किताब छपती है मात्र तीन सौ

फ़ेयर एंड लवली = गोरा रंग
गोरा रंग = सुंदर दिखना
सुंदर दिखना = स्त्री होना

स्त्री जो कविता लिखती है
स्त्री जो कविता पढ़ती है
इस फ़ॉर्मूले से बाहर होती है

कविता
जुटी रहती है चींटी-सी
समाज की संरचना को बदलने के लिए
फ़ेयर एंड लवली
अँगूठा दिखाती है उस श्रम को।

डायना
वह बार-बार साधारणता की ओर मुड़ती। बार-बार
उसे ख़ास की तरफ ठेला जाता। उसके चारों ओर
पुरानी भव्य दीवारें थीं। उनमें कोई खिड़की नहीं थी
सिर्फ बुर्जियाँ थीं। वहाँ से झाँकने पर सर चकराता था।
कमरों में बासीपन के अलावा और कई तरह की बू शामिल थी।
एक दिन यह सब लाँघकर वह बाहर चली आई। हवा
और धूल की तरह सब ओर फैल गई

वह एक मुस्कुराहट थी टहनी और पत्ती समेत। सुबह का
धुला हुआ बरामदा थी। उसे प्रेम चाहिए था अपनी
कमज़ोरियों और कमियों के बावजूद। जैसी वह थी वैसी
होने के बावजूद। उसमें प्रेम था। उसे उलीचना चाहती
थी अपने पर औरों पर। उलीचती भी थी कच्चा
पक्का जो तरीका आता था

दुःख और तनाव अक्सर उसे घेर लेते। वह मृत्यु की
तरफ भागती। मृत्यु उसे लौटा देती। बाद में यह सब
एक खेल में बदल गया।

Similar News