पहले खबरों के लिए पिटते थे, अब नेताओं के लिए लात खाने लगे हैं पत्रकार

Update: 2017-07-16 19:09 GMT

संपादक चुनते वक्त योग्यता के तौर पर भाषा और पत्रकारिता की जानकारी नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की निकटता देखी जाती है। जो सम्पादक मालिक को जितना विज्ञापन लाकर देगा, उतना महान होगा...

धनंजय कुमार

पिछले दिनों पटना में जब लालू प्रसाद यादव के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के सुरक्षा गार्डों द्वारा एक टीवी पत्रकार के साथ मारपीट की गई, तो पत्रकारों की पिटाई एक बार फिर सुर्खियां बनी।

पत्रकार हमेशा से निशाने पर रहे हैं। पहले भी बहुत से पत्रकारों को पिटाई हुई है और कई पत्रकारों की हत्या भी हुई है। यह क्रम आज भी जारी है, लेकिन जैसे बाकी दुनिया बदली है पत्रकारिता भी बदली है और पत्रकार भी बदले हैं।

जब गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे लोग पत्रकारिता कर रहे थे, तब पत्रकारिता का मूल लक्ष्य था समाज के दबे—कुचले, कमजोर लोगों की आवाज सत्ता तक पहुंचाना और इस क्रम में पत्रकार सत्ता के खिलाफ लिखने से भी बाज नहीं आते थे। लेकिन पत्रकारिता जैसे जैसे व्यापारियों की गोद में जाती गयी, पत्रकारिता का स्वरूप बिगड़ता गया।

पत्रकार मालिक के सिपाही की तरह काम करने लगे। समाज के प्रति उनकी कर्त्तव्य भावना शिथिल होती गयी और अब स्थिति यह बन गयी है की पत्रकारिता भी एक किस्म की नौकरी हो गयी है। पत्रकारों को मालिक के इंटरेस्ट के अनुसार काम करना पड़ता है। जब तोप हो मुक़ाबिल तो अखबार निकालो की जगह अब जब सत्ता को हो साधना तो अखबार निकालो कहावत बन आई है।

ऐसे में पत्रकारिता और पत्रकार दोनों का सम्मान गिरा है। और इस हद तक जा गिरा है कि पत्रकार सत्ता की चाटुकारिता करने में होड़ कर रहे हैं। गरीब और कमजोर की आवाज बनने की जगह पत्रकार अपने मालिक और मालिक की वफादारी के अनुकूल राजनेता की आवाज बन गए हैं।

ऐसे में उन पत्रकारों के सामने बेशक खतरे बढ़ गए हैं जो पत्रकारिता धर्म के अनुकूल पत्रकारिता कर रहे हैं। चूंकि पत्रकारिता की मुख्य धारा चाटुकारितावाली पत्रकारिता हो गयी है, इसलिए उसूल के साथ चलने वाले पत्रकार विजातीय और अकेले दिखते हैं।

और ऐसे पत्रकार सिर्फ अपराधियों को ही नहीं, राजनेताओं को भी चुभते हैं। और मौक़ा मिलते ही उन्हें रास्ते से हटा देते हैं, अपराधी हत्या करवा देते हैं तो राजनीतिज्ञ नौकरी से निकलवा देते हैं। ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जब राजनीतिज्ञों के कहने पर पत्रकारों को नौकरी से हाथ होना पड़ा है।

अब चूँकि पत्रकारिता व्यापारियों के लिए अपना हित साधने का माध्यम बन गयी है, इसलिए जाहिर है कि वह ऐसे व्यक्तियों को ही नौकरी पर रखेगा जो पत्रकारिता के मूल्य की जगह मालिक के हित साधने में सहायक हो। तभी तो ऐसे हालात हैं कि संपादक चुनते वक्त योग्यता के तौर पर भाषा और पत्रकारिता की जानकारी नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की निकटता देखी जाती है। जो सम्पादक मालिक को जितना विज्ञापन लाकर देगा, उतना महान होगा।

ऐसे में पत्रकार पत्रकार कम वसूली एजेंट ज्यादा बन जाते हैं। उनकी रिपोर्टिंग एकतरफा होती है। फिर वह अपनी गरिमा भी खो देते हैं और सुरक्षा भी। वह शालीन रहने के बजाय दंभी हो जाते हैं और पार्टी के हार्डकोर कार्यकर्त्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं। ऐसे पत्रकार हर चैनल और अखबार में आसानी से दिख जाते हैं।

पटना के पत्रकार भी अलग नहीं हैं। प्रथमदृष्टया सबने माना की तेजस्वी के अंगरक्षकों ने बदमाशी की, लेकिन जब तफसील से देखा गया, तो पता चला कि गार्ड ने अपनी ड्यूटी निभाई। नियमतः पत्रकारों को कैमरा लेकर विधानसभा परिसर में जाने की इजाजत नहीं है, लेकिन एक्सलूसिव बाईट लेने और सबसे पहले हम के चक्कर में पत्रकार सारी मर्यादाएं तोड़कर अन्दर घुस आया करते हैं।

प्रत्यक्षदर्शी अन्य पत्रकार उस दिन की घटना को बयान करते हुए बताते हैं कि तेजस्वी खुद भी बाईट देना चाहते थे, लेकिन चूँकि विधानसभा कॉरिडोर में भीड़ ज्यादा हो गयी थी, घुटन भरा माहौल हो गया था, इसलिए तेजस्वी चाहते थे कि बाहर आकर खुले में पत्रकारों से बात की जाय।

इस क्रम में पत्रकारों में आपाधापी हुई और किसी का माइक तो किसी का कैमरा तेजस्वी के सर, गर्दन से जा टकराया, हालांकि फिर भी तेजस्वी ने आपा नहीं खोया, लेकिन गार्ड को अपनी ड्यूटी में मुश्किल आती दिखी, इसलिए उन्होंने पत्रकारों को तेजस्वी से दूर हटाना शुरू किया। इससे पत्रकार को भी गुस्सा आ गया और मामला पिटाई तक जा पहुंची। लेकिन प्रत्यक्षदर्शी का कहना है कि गार्ड का भी मकसद पत्रकार को पीटना नहीं था। यानी सब अपने आपको एडजस्ट करने में लगे हैं।

(पत्रकारिता से अपना करियर शुरू करने वाले धनंजय कुमार मुंबई में फिल्म राइटर्स एसोसिएशन के पदाधिकारी हैं।)

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