कुंभ के शंकराचार्य होंगे स्वामी स्वरूपानंद, संघ के नजदीकी संत को सुप्रीम कोर्ट ने किया किनारे

Update: 2018-10-09 07:44 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने दिया उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश कि स्वामी स्वरूपानंद को कुम्भ में जमीन और सभी सुविधाएं

वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट

राम मन्दिर के मुद्दे को गर्माकर 2019 का आम चुनाव जितने का मंसूबा पाले केंद्र और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को उच्चतम न्यायालय ने तब तेज झटका दिया जब 2019 के इलाहाबाद कुंभ में द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद को ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य के रूप में भी जमीन का आवंटन करने का निर्देश दिया और कहा कि फिलहाल स्वामी स्वरूपानंद ही ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य पद पर विराजमान माने जाएंगे। स्वरूपानंद के प्रतिद्वंद्वी स्वामी वासुदेवानंद संघ परिवार के निकटवर्ती माने जाते हैं।

उच्चतम न्यायालय ने स्वामी स्वरूपानंद को ज्योतिष्पीठ का शंकराचार्य मानते हुए कुंभ मेले में भूमि और सुविधाएं देने का राज्य प्रशासन को निर्देश दिया है। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि इस मामले में दोनों पक्षों के अधिकार का निर्णय अंतिम सुनवाई के बाद होगा। स्वामी स्वरूपानंद की ओर से दाखिल विशेष अनुमति याचिका पर जस्टिस अरुण मिश्र और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने यह आदेश पारित किया है।

माघ मेले (2018) में नहीं मिली थी जमीन

गौरतलब है कि पिछले वर्ष कुंभ मेले में उनको ज्योतिष्पीठ, बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य के तौर पर भूमि आवंटित नहीं की गई थी तो स्वामी स्वरूपानंद ने अपना शिविर नहीं लगाया था।

पीठ ने कहा कि स्वरूपानंद शारदापीठ, द्वारिका के भी निर्विवाद रूप से शंकराचार्य हैं। इसलिए उनको शंकराचार्य मानते हुए कुंभ मेले में भूमि आवंटित की जाए। पीठ ने कहा है कि स्वामी वासुदेवानंद को भी कुंभ मेले में भूमि आवंटित की जाए, मगर शंकराचार्य की हैसियत से नहीं। उनके अधिकारों पर फैसला अंतिम सुनवाई के बाद होगा।

स्वामी स्वरूपानंद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 22 सितंबर 2017 के निर्णय को एसएलपी दाखिल कर चुनौती दी है। हाईकोर्ट ने ज्योतिष्पीठ बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य की गद्दी को लेकर चले विवाद में स्वामी स्वरूपानंद और स्वामी वासुदेवानंद दोनों की नियुक्ति को अवैध मानते हुए नए सिरे से शंकराचार्य की नियुक्ति का आदेश दिया था।

क्या है पूरा मामला

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में एक उत्तराखंड के जोशीमठ की ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी को लेकर विवाद देश की स्वाधीनता के तुरंत बाद से ही शुरू हो गया था। यह विवाद सबसे पहले वर्ष 1960 में एक निचली अदालत में दाखिल हुआ और उसके बाद से यह मामला अलग-अलग अदालतों में चला।

उत्तराखंड की ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य विष्णुदेवानंद के निधन के बाद 1989 में वासुदेवानंद और स्वरूपानंद के बीच उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ। 8 अप्रैल, 1989 को ज्योतिषपीठ के वरिष्ठ संत कृष्णबोधाश्रम की वसीयत के आधार पर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने खुद को शंकराचार्य घोषित कर दिया। दूसरी ओर शांतानंद ने 15 अप्रैल, 1989 को स्वामी वासुदेवानंद को शंकराचार्य की पदवी दे दी, जिसके बाद वासुदेवानंद अदालत चले गए।

1989 में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती द्वारा इस गद्दी पर बैठने के बाद द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने उनके खिलाफ इलाहाबाद की अदालत में मुकदमा दाखिल किया और उन्हें हटाए जाने की मांग की। लंबा समय बीतने के बाद हाईकोर्ट और उच्चतम न्यायालय के दखल के बाद इलाहाबाद की जिला अदालत में लगभग 3 साल पहले इस मामले की सुनवाई रोज चलनी शुरू हुई थी।

निचली अदालत का फैसला स्वामी स्वरूपानंद के पक्ष में

ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी को लेकर करीब 27 साल तक चले इस मुकदमे की कार्रवाई में निचली अदालत के सामने दोनों तरफ से लगभग पौने दो सौ गवाहों को पेश किया गया था। इलाहाबाद की जिला अदालत ने 5 मई, 2015 को स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के हक में अपना फैसला सुनाया था और 1989 से इस पीठ के शंकराचार्य के तौर पर काम कर रहे स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की पदवी को अवैध करार देते हुए उनके काम करने पर पाबंदी लगा दी थी।

सिविल जज सीनियर डिवीजन गोपाल उपाध्याय की कोर्ट ने 308 पन्नों के फैसले में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की वसीयत को फर्जी करार दिया था। निचली अदालत के इस फैसले के खिलाफ स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दाखिल की थी। इसके बाद शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने भी एक अर्जी दाखिल की और प्रार्थना पत्र में कहा कि उनकी उम्र 92 साल हो गई थी, इसलिए वह चाहते हैं कि उन्हें इस मामले में जीवित रहते इंसाफ मिल जाए और मामले का निपटारा हो जाए।

हाईकोर्ट ने नये सिरे से शंकराचार्य नियुक्त करने के आदेश दिए

उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर हाईकोर्ट की खंडपीठ ने पिछले साल कई महीने तक इस मामले की सुनवाई रोज की थी और अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया था। जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस के जे ठाकुर की खंडपीठ ने स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और स्वामी वासुदेवानंद को इस पीठ का शंकराचार्य मानने से इनकार करते हुए उन दोनों का दावा खारिज कर दिया।

हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि वासुदेवानंद सरस्वती ने संन्यास नहीं लिया था और वो सरकारी नौकरी में कार्यरत थे, जिसमें उनको वेतन भी मिल रहा था। पीठ ने यह भी कहा कि 12 जून, 1953 तक पीठ में शांतानंद सरस्वती शंकराचार्य बने। पद खाली नहीं था, जिसकी वजह से कृष्ण बोधाश्रम को शंकराचार्य घोषित करना भी अवैध था। इसके बाद 15 जनवरी, 1970 में सिविल विवाद में शांतानंद सरस्वती को वैधता मिल गई थी।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्वामी कृष्णबोधाश्रम के बाद स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को शंकराचार्य बनाना पद खाली न होने की वजह से वैध नहीं माना और कहा कि इसलिए स्वामी शांतानंद के पद छोड़ने के बाद स्वरूपानंद सरस्वती का शंकराचार्य बनना अवैध है। पीठ ने यह भी आदेश दिया कि स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के छत्र चंवर सिंहासन धारण करने पर लगी रोक भी जारी रहेगी। हाईकोर्ट ने दोनों संतों की इस पद के लिए हुई नियुक्ति को गलत माना और 3 महीने में परंपरा और पूर्व नियोजित प्रक्रिया के तहत नया शंकराचार्य चुनने को कहा था। तब तक स्वामी स्वरूपानंद ही इस पद को संभालेंगे।इस बीच एक गुट ने स्वामी स्वरूपानंद को ही फिर से ज्योतिष्पीठ का शंकराचार्य चुन लिया है।

राजनीति का घालमेल

हालांकि शंकराचार्य के पद का राजनीति से दूर दूर तक सम्बंध नहीं है, लेकिन परोक्ष रूप से जहां स्वामी स्वरूपानंद को उनके संघ के विरूद्ध बेबाक बोल के कारण उन्हें कांग्रेस का निकटवर्ती मन जाता है, वहीं स्वामी वासुदेवानंद का विहिप और संघ परिवार से निकट का नाता है क्योंकि वे इनके कार्यक्रमों में खुलकर भाग लेते हैं।

राजनीति की बानगी अभी कुछ महीने पहले भी दिखी जब ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपने शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के साथ बद्रीनाथ धाम प्रवास के लिए गए थे। इस दौरान वहां ज्योतिष पीठ का 2500वां महापर्व मनाया जा रहा था।

स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद ज्योतिषपीठ बद्रीनाथ धाम में स्थित पूर्णागिरि देवी की पूजा-अर्चना करने गए, उस समय इस मंदिर पर ताला लगा हुआ था। स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने प्रशासन से ताला खोलकर पूजा-अर्चना करने का अनुरोध किया। प्रशासन ने मामला अदालत में चलने का तर्क दिया, इस पर वो मंदिर के सामने बेमियादी अनशन पर बैठ गए।

पूर्णागिरि मंदिर ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य होने का दावा करने वाले स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के आधिपत्य में है। उनकी संघ से नजदीकियां जगजाहिर हैं और वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल से भी जुड़े हैं।

फिर उत्तराखंड में भाजपा सरकार होने के कारण प्रशासन का झुकाव स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की तरफ रहता है। इसलिए मंदिर में पूजा करने के मामले में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और उनके शिष्य स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद सरस्वती को वापस लौटना पड़ा।

Tags:    

Similar News