किसी को भी डराने की मंशा नहीं है, लेकिन दुनिया भर का ट्रेंड बता रहा है कि भारत के लिए आने वाले दिन बहुत कठिन होने जा रहे हैं. ये शायद आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी सार्वजनिक आफ़त होगी जो अमीर, ग़रीब सब पर भारी पड़ेगी. बुज़ुर्गों और कम रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों पर सबसे अधिक...
सुशील बहुगुणा की टिप्पणी
जनज्वार। किसी को भी डराने की मंशा नहीं है, लेकिन दुनियाभर का ट्रेंड बता रहा है कि भारत के लिए आने वाले दिन बहुत कठिन होने जा रहे हैं. ये शायद आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी सार्वजनिक आफ़त होगी जो अमीर, ग़रीब सब पर भारी पड़ेगी. बुज़ुर्गों और कम रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों पर सबसे अधिक.
दरअसल कोरोना संकट पर सबसे गंभीर बहस अंग्रेज़ी में चल रही है शायद इसीलिए हमारी आम जनता को सामने खड़े इस संकट का अहसास नहीं हो रहा. तभी तो बाज़ारों में अब भी भीड़ है, सड़कों पर अब भी ट्रैफ़िक है. लोग पार्कों में टहल रहे हैं, बच्चों की टीमें खेलने में जुटी हैं. लोग गंभीरता समझ ही नहीं रहे. हलके में टाल रहे हैं. यही वजह है कि अब आम लोगों की भाषा में बताना ज़रूरी हो गया है कि ये अभी नहीं तो कभी नहीं वाली हालत है.
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दुनिया का दादा अमेरिका भयानक डरा हुआ है, इटली लड़खड़ा गया है, ईरान की असली हालत का हम सबको ठीक अंदाज़ा नहीं, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन सब किसी तरह इस आफ़त से निपटने की जद्दोजहद में लगे हैं, चीन ने पता नहीं जैसे तैसे कुछ रोकथाम कर ली है लेकन बड़ी क़ीमत चुकाने के बाद. इन हालात में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले भारत को गंभीर होना ही होगा.
जो देश आज कोरोना के आगे बिखरे से दिख रहे हैं, उन देशों ने दरअसल जो भी कदम उठाए वो देर से उठाए और टुकड़े टुकड़े में उठाए. भारत भी अभी तक ऐसा ही करता दिख रहा है. इससे बचना होगा. एक दिन का जनता का कर्फ्यू काफ़ी नहीं होगा. इसे Public Health Emergency घोषित करते हुए एक हफ्ते का कर देना चाहिए और इस कठोरता के साथ लागू करना चाहए. तमाम बड़े शहरों को लॉक डाउन कर देना चाहिए. अगर अभी ऐसा नहीं किया तो आगे कई महीनों तक इसके बुरे परिणाम इस देश को भुगतने पड़ेंगे.
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लिखना ख़राब लग रहा है लेकिन अगर सैकड़ों लाशें इस बीमारी की वजह से देखनी पड़ीं तो वो बहुत बुरे दिन होंगे. तब पछताने का मतलब नहीं. ये देश बहुत बड़ा है, बहुत घनी आबादी है इसकी. इस बीमारी की अभी न दवा है, न टीका. इस साल के अंत तक कारगर दवा आ भी पाएगी या नहीं, कह नहीं सकते. ऐसे में बचाव ही एकमात्र उपाय है. जानता हूं कि ये उपाय ख़ासतौर पर ग़रीबों की जेब पर बहुत भारी पड़ेगा, लेकिन कुछ दिन बाद जान पर अधिक भारी पड़ेगा.
सरकारें ग़रीब वर्ग के लिए कुछ उपाय सोचें कि अगर कुछ दिन कामबंदी हुई तो कैसे उनके लिए कुछ ठीक इंतज़ाम हो जाएं. लेकिन अब कोई चारा नहीं दिख रहा. इन हालात में पैनिक करना और ख़तरनाक होगा. ठंडे दिमाग़ से अभी इस चुनौती से निपट लें. ये बीमारी कुछ तो लेकर जाएगी, या तो पैसा या फिर पैसा और जान दोनों. ये तय हमें करना है कि हम क्या, कैसे गंवाना चाहते हैं. समय नहीं है.
वो लोग जो इस पर दक्षिणपंथ और वामपंथ करना चाहते हैं वो अभी समय की नज़ाक़त समझें. अभी सरकार और जनता को सार्थक सुझाव देना ही सबके हित में है.
(सुशील बहुगुणा की यह टिप्पणी एफबी से)