किसी काम न आया मायावती का 'इस्तीफा स्टंट'

Update: 2017-07-24 16:40 GMT

मायावती और उनके नजदीकी लोगों को उम्मीद थी कि मायावती के इस्तीफा देने के बाद दलितों खासकर चमार समुदाय के लोगों में एक उबाल आएगा, प्रदेश में प्रदर्शनों का सिलसिला चल पड़ेगा, पर कोई सुगबुगाहट नहीं हुई...

आशीष वशिष्ठ

दलितों के आवाज न उठाने देने से नाराज मायावती ने क्या राज्यसभा से इस्तीफा देकर दलित संघर्ष की राजनीति में जोरदार वापसी का संकेत दिया है?

क्योंकि राज्यसभा में मायावती ने 18 जुलाई को कहा, 'जिस सदन में मैं अपने समाज के हित की बात नहीं रख सकती उस सदन का सदस्य बने रहना का कोई मायने नहीं है।’ ऊपरी तौर ऐसा लगता है मानो मायावती दलितों के दुःख-दर्दों और परेशानियों के बोझ से कमजोर हुई जा रही हैं।

पर क्या सच्चाई भी इतनी स्पष्ट और पाक—साफ है? क्या उम्र के छठे दशक को पार कर चुकीं मायावती फिर एक बार 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' के असल नारे की ओर लौटेंगी! या उनमें अभी वह ओज बचा है कि वह कार्यकर्ताओं में 'चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर' के जोश को फिर से भर पाएंगी।

मायावती खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता बताती हैं। 2012 में यूपी की सत्ता से बेदखल होने के बाद से उनकी पार्टी का ग्राफ तेजी से गिरा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी जीरो पर बोल्ड हुई। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी झोली में 19 विधायक आए। मायावती ने विधानसभा चुनाव में 100 से अधिक टिकट मुस्लिम प्रत्याशियों को बांटे। दलितों के हिस्से में मात्र 87 टिकट आये।

बीते विधानसभा चुनाव में मायावती ने मुस्लिमों को अपने भाषणों में तरजीह भी खूब दी, पर दलितों को मैडम का यह राजनीतिक स्टाईल पसंद नहीं आया। दलितों की नाराजगी और मुस्लिमों का मायावती पर पूरी तरह से यकीन न करना ‘हाथी की हार’ की वजह बना। मायावती ने अपनी हार का ठीकरा बीजेपी और ईवीएम पर फोड़कर अपनी झेंप मिटाने का ‘महान काम’ किया।

पर बात नहीं बनी, उनके अपने भी कन्विंस नहीं हुए और कार्यकर्ता पहले से भी अधिक निराश हुए। यह निराशा गुणात्मक रूप से पार्टी में लगातार बढ़ती देख मायावती को लंबे समय से नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करें?

ऐसे में उन्हें इस्तीफा सूझा और उन्होंने इस्तीफा दे दिया? उन्हें लगा कि उनकी कुर्बानी यूपी राज्य में दलितों खासकर चमारों में एक राजनीतिक उबाल ला देगी। पर ऐसा हुआ नहीं, यहां तक कि कोई बड़ा प्रदर्शन तक नहीं हुआ।

दलितों पर अत्याचार के कारण उनका दिल पिघलता तो कई मौके आए जब वह कुछ कर सकती थीं, पर उन्होंने कभी पीड़ितों के इलाकों या घरों तक का दौरा नहीं किया।

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध घटित होता है। औसतन हर रोज तीन दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं, दो दलित मारे जाते हैं और दो दलित घरों को जला दिया जाता है।

मायावती इन तमाम अत्याचारों को न सिर्फ चुपचाप देखती रही, बल्कि जब भी मुख्यमंत्री रहीं दलितों पर अत्याचार के मामले कम नहीं हुए। यहां तक कि एससीएसटी एक्ट में मायावती ने सबसे पहले ढील दी थी और हरिजन एक्ट में पकड़े जाने वालों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी।

आंकड़ों पर नजर डालें तो 2007 से अब तक उत्तर भारत और हैदराबाद में आत्महत्या करने वाले 25 छात्रों में से 23 दलित थे। इनमें से दो एम्स में और 11 तो सिर्फ हैदराबाद शहर में थे। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा आपराधिक मामले प्रकाश में आए हैं। दक्षिण भारत में अविभाजित आंध्र प्रदेश का नंबर पहले आता है।

पर दलितों ने 2012 में मायावती को नकार दिया। 2014 में घास नहीं डाली और अब 2017 में उनकी झोली में कुछ फुटकर डालकर दरवाजा बंद कर लिया। मायावती के लिए दलितों की ओर से इससे बड़ा सबक नहीं हो सकता, बशर्ते उन्हें समझ में भी आये। पश्चिमी यूपी में भीम आर्मी का तेजी से उभार भी इस बात का प्रतीक है कि दलित सशक्त व जमीनी नेतृत्व चाहते हैं।

दूसरी तरफ बीजेपी का लगातार दलितों में जनाधार बढ़ता जा रहा है। भीम आर्मी जैसे संगठन सिर नहीं उठा रहे बल्कि वो बड़ी जमीन तैयार कर चुके हैं। मायावती भले ही कांग्रेस और भाजपा के दलित प्रेम को नाटक बताती रहें, दरअसल दलित भी आपका ‘दौलत वाला चेहरा’ पहचान चुके हैं।

ऐसे में इस छवि से मायावती निकल पाएंगी और 60 वर्ष की मायावती नौजवान मायावती के रूप में फिर से फील्ड में लौट पाएंगी, यह मुश्किल ज्यादा लगता है।

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