रोहिंग्या शरणार्थियों पर चुप रहकर विश्वनेता बनेंगे मोदी

Update: 2017-09-08 19:40 GMT

किसका डर है जो मोदी बर्मा के रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों की भीषण तबाही और पलायन पर चुप हैं, वे एक बार शरणार्थियों की मदद तक पर मुंह नहीं खोल रहे...

पीयूष पंत, वरिष्ठ पत्रकार  

ज़रा देखिये। बुधवार 6 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी म्यांमार पंहुचते हैं और वहां भारत के नेतृत्व में शुरू किये गए विकास कार्यों की चर्चा करते हुए राखिने प्रान्त में भारत द्वारा  विकास सम्बन्धी परियोजना लगाने की पेशकश करते हैं, बिना सैन्य बलों द्वारा अल्पसंख्यक रोहिग्या मुस्लिम समुदाय पर की जा रही भयंकर हिंसा के प्रति संवेदना दिखाते हुए।  

यह वही पश्चिमी राखिने प्रांत है जहां म्यांमार की सेना ने अक्टूबर 2016 से ही रोहिंग्या मुसलामानों को खदेड़ने का अभियान छेड़ा हुआ है। पिछले अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह से रोहिंग्या मुसलमानों पर सेना द्वारा की जा रही हिंसा में एकदम तेज़ी आ गयी। नतीजतन संयुक्त संघ के अनुमान के अनुसार तबसे 87 हज़ार रोहिंग्या मुसलमान पलायन कर पड़ोसी बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में पनाह ले चुके हैं। 

प्रधानमंत्री मोदी ने "आतंकी हिंसा" के प्रति चिंता तो दिखाई, लेकिन उन्होंने म्यांमार सरकार द्वारा अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय पर किये जा रहे उत्पीड़न की चर्चा तक करना उचित नहीं समझा।

भला मोदी चर्चा करते भी कैसे, क्योंकि खुद उनकी सरकार गैर-ज़िम्मेदाराना और संवेदनहीन तरीके से भारत में रह रहे 40 हज़ार से भी अधिक रोहिंग्या मुसलमानों को देश से खदेड़कर वापिस म्यांमार भेजने पर आमादा है, ये जानते हुए भी कि वापिस म्यांमार जाने पर ये लोग सुरक्षित नहीं बचेंगे। 

भारत के गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू पहले ही संसद में कह चुके हैं कि सरकार रोहिंग्या मुसलमानों को वापस म्यांमार भेजेगी और यह कार्रवाई क़ानूनी प्रक्रिया के तहत की जाएगी।  रिजिजू के इस बयान और भारतीय सरकार के रवैये की देश के भीतर और बाहर काफी आलोचना हो रही है, खासकर मानवाधिकार संगठनों के द्वारा। 

उनका कहना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के तहत की गयी अंतरराष्ट्रीय संधि 1951 (जिसे रिफ्यूजी कन्वेंशन के नाम से भी जाना जाता है) यह कहती है कि अगर कोई आपके देश में पनाह लेने आये और उसके अपने मुल्क़ में उसकी जान को खतरा है तो उसको वापिस उसके देश में नहीं भेजा जाना चाहिए। 

दीगर है कि भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं, लेकिन क्या मानवता का तकाज़ा नहीं कहता कि अपने ही देश में बेगाने बना दिए गए रोहिंग्या मुसलमान प्रताड़ना और पलायन का दंश झेलते हुए अगर भारत की शरण में आये हैं तो भारत उन्हें सुरक्षा प्रदान करे, न कि वापस उन्हें उत्पीड़न के सागर में फेंक दे।  

वसुधैव कुटुम्बकं वाली भारतीय संस्कृति तो वैसे भी पूरे विश्व को अपना परिवार मानने का दंभ भरती है। खुद प्रधानमंत्री भी भारतीय संस्कृति के इस नज़रिये का बखान अपने जन सम्बोधनों में करते नहीं अघाते हैं तो फिर रोहिंगिया मुसलमानों के साथ दुश्मन से भी बदतर सलूक क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं और मुसलमानों के प्रति वैचारिक एवं शारीरिक हिंसा एवं प्रताड़ना आपकी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति को सुविधा प्रदान करती है?

सवाल म्यांमार के राखिने प्रांत से पलायन करने के लिए बाध्य की गयी आबादी का मुसलमान होना नहीं है। बड़ा सवाल तो ये है क्या उन्हें इन्सान ही ना माना जाये? क्या वे मानव जाति से इतनी अपेक्षा भी नहीं रख सकते कि बर्मा की जिस ज़मीन पर उनके पुरखे सदियों पहले बस गए थे और आजीवन अपने श्रम से जिस देश का वे निर्माण करते रहे वो देश उन्हें सम्मानित नागरिक का दर्ज़ा दे सके? 

आज रोहिंग्या मुसलमान न केवल नागरिकता और नागरिक अधिकारों से वंचित है बल्कि अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके अपने देश ने तो उन्हें नागरिकता से वंचित किया ही है और पलायन के लिए मजबूर भी किया है, वहीं दुनिया के अनेक देशों ने उन्हें गले लगाने से मना कर दिया है। 

अब तो वो बांग्लादेश भी रोहिंग्या मुसलमानों को अपने यहां शरण देने में आनाकानी करने लगा है जिनके निवासियों की शक्लोसूरत से मिलती-जुलती शक्ल रोहिंगिया मुसलमानों की होने का आरोप म्यांमार की बौद्ध बहुसंख्यक सरकार ने लगाया था। 

लाजिमी है कि अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही रोहिंगिया मुसलमानों की युवा पीढ़ी छापामार युद्ध की राह पर निकल पड़ी है। लेकिन वहां की आंग सांन सू ची की  सरकार द्वारा उन्हें आतंकी घोषित कर म्यांमार की सेना द्वारा रोहिंगिया मुसलमानों पर 25 अगस्त से बड़े पैमाने पर हिंसा का तांडव रचा गया। 

नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि इस हिंसा में सितम्बर के पहले सप्ताह तक हज़ार से भी ज़्यादा रोहिंग्या मारे गए हैं और तक़रीबन लाख़ लोग बांग्लादेश की और पलायन के लिए बाध्य हुए हैं। इन लोगों के पलायन के दर्द और मुसीबत को उन दृश्यों को देख कर समझा जा सकता है जो रोज़ टेलीविज़न के परदे पर दिखाए जा रहे हैं। 

बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलायें शिशुओं तथा सामान को गोदी में उठाये मीलों पैदल चलते हुए बांग्लादेश की सीमा की और बढ़ते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ लोग हताशा में नावों में लदे-फदे नदी पार करते हुए देखे जा सकते हैं। भोजन के अभाव में इनमें से ज़्यादातर लोगों के पेट हाड़ से चिपक से गए हैं। निस्संदेह ये दृश्य मन को विचलित कर जाते हैं और आँखों को नम। 

शायद ये चित्र प्रधानमंत्री मोदी जी की आँखें गीली नहीं कर पाते हैं, उन्हीं मोदी जी की जो राजनीतिक फायदे के लिए जब-तब अपनी आँखें नम कर लेते हैं। इन रोहिंग्या मुसलामानों का दर्द उन्हीं मोदी जी को नहीं दिखाई देता जो रेडियो में मन की बात तो कर लेते हैं, लेकिन हक़ीकत में इंसानियत के तक़ाज़े को समझने का प्रयास नहीं करते हैं। तभी तो उनकी सरकार भारत में शरण ले चुके 40 हज़ार रोहिंग्या मुसलमानों को ग़ैरक़ानूनी ढंग से रह रहे मान कर उनके निर्वासन पर आमादा है।

सुकून की बात यही है कि भले ही मोदी जी भारत की उदार संस्कृति और अतिथि देवो भव की परंपराओं को भुला चुके हों, लेकिन भारतीय मानस आज भी उसे भूला नहीं है। यही कारण है कि क़ानून का हवाला देने वाली सरकार को उदार सोच के भारतीयों ने क़ानूनन जवाब देने का मन बनाया है। 

मानव अधिकारों के सम्मान में आस्था रखने वाले कुछ भारतीय वकीलों ने पिछले दिनों रोहिंया मुसलमानों की तरफ से एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की है। रोहिंग्या मुसलमानों ने अपनी याचिका में कहा है कि भारत से निकालने पर उनकी मृत्यु लगभग निश्चित है और सरकार का यह कदम भारतीय संविधान के तहत सभी को मिले जीवन के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन है। इससे सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों का भी उल्लंघन होगा। उनकी दलील है कि संविधान नागरिकों के साथ ही सभी व्यक्तियों को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है।

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए सरकार से जवाब मांगा है। सरकार की ओर से जवाब मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं पर 11 सितम्बर को सुनवाई करेगा।

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