मध्यवर्गीय बौद्धिकों के संकट को मृणाल सेन ने तीस साल पहले ही उकेर दिया था
हर मनुष्य को ज़िंदगी एक ही मिली है। दूसरी ज़िंदगी की सदिच्छा या इस ज़िंदगी से शिकवा का कोई मतलब नहीं है। एक आदमी के पास एक ज़िंदगी होना दुख की बात नहीं है। कतई नहीं...
पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव को उनके साप्ताहिक कॉलम ‘कातते-बीनते’ में
उस रात कलकत्ता में ज़बरदस्त बरसात हुई थी। दिन भर से रह-रह कर बरस रहा था। प्रोफेसर शशांक राय अपनी बालकनी में कुर्सी पर बैठे बूंदों को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई बच्चा पहली बार बारिश देख रहा हो। शाम सात बजे के आसपास बादल कुछ थमे। वे भीतर कमरे में आये। काग़ज़ पर कुछ लिखा। सदरी पहनी। फोन नंबरों वाली छोटी डायरी जेब के सुपुर्द की। पत्नी से कहा, “मैं आता हूं।” पत्नी ने क्षण भर को रोका। वे नहीं रुके। निकल गये। फिर कभी नहीं घर लौटे।
ये फ्लैशबैक में हमें बताया गया है। वरना पहले ही दृश्य से ही फिल्म में उसका नायक यानी रिटायर्ड प्रोफेसर फ्रेम से गायब है। बावजूद इसके, पूरी फिल्म इस प्रोफेसर के चरित्र का पंचनामा है। मृणाल सेन के सिनेमा की यही खूबी है। “एक दिन अचानक” 1989 में आयी थी। मृणाल सेन ने बाद में दिये एक साक्षात्कार में कहा था कि यह फिल्म उनकी “पर्सनल” है। प्रोफेसर राय का किरदार बुढ़ाते हुए मृणाल सेन की एक छाया हो सकता है, जिस उम्र में यह अहसास सघन होता है कि “जीवन क्या जिया, अब तक क्या किया”।
वही दौर था जब इस देश के चार महानगरों में सिमटे मध्यवर्गीय बौद्धिक ने बाकी हिस्सों में पैर पसारे। इलाहाबाद, पटना, बनारस, भोपाल का बौद्धिक दिल्ली और बॉम्बे की ओर बढ़ चला। छोटे शहरों में उच्च शिक्षा पहुंची, बाज़ार पहुंचा, पूंजी पहुंची, अवसर पहुंचे। मध्यवर्ग का विस्तार हुआ। मध्यवर्ग के एक छोटे से हिस्से यानी बुद्धिजीवी वर्ग का भी उसी अनुपात में विस्तार हुआ। यह अकारण नहीं है कि उदारवाद के आने से पहले गोविंद निहलानी 1984 में अघाये मध्यवर्गीय बौद्धिकों पर “पार्टी” बना चुके थे। पुरानी पार्टी खत्म हो रही थी। नयी शुरू।
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उदारवाद की पैदाइश इस मध्यवर्ग की नयी पार्टी तीस साल से लगातार चल रही थी। पहली बार उस पर लगाम लगी मार्च में। जैसा मैंने पिछले हफ्ते के स्तम्भ में ज़िक्र किया था, मोटे तौर पर पूरे मध्यवर्ग को छह दिन काम और एक दिन आराम के हिसाब से कंडीशन कर दिया गया था। मृणाल सेन के यहां से उधार लेकर कहें, तो यह मध्यवर्ग “सफलता” नामक मंत्र को केंद्र में रखकर ज़िंदगी जी रहा था। इसका एक हिस्सा बेशक हमेशा की तरह भीतर किसी कोने में हर जगह मौजूद रहा, जिसने प्रोफेसर राय की तरह सफलता की जगह “डेडिकेशन” को अपनी ज़िंदगी का मंत्र बनाया।
यह मध्यवर्गीय बौद्धिक था- लेखक, पत्रकार, अकादमिक, इतिहासकार, संस्कृतिकर्मी, कलाकार, आंदोलनकारी, सिद्धांतकार, आलोचक, कवि, रंगकर्मी, इत्यादि। दरअसल, इस छोटे से तबके की पैदाइश ही नौ से पांच की नौकरी बजाने के प्रति अवमानना से हुई थी। इसे गुलाम बनाना थोड़ा मुश्किल था।
जब पार्टी रुकी, तो सबकी रुकी। एक दिन अचानक सब कुछ ठहर गया। शायद वैसे ही, जैसे किसी एक दिन प्रोफेसर राय रिटायर हुए रहे होंगे और घर बैठ गये होंगे। ज़ाहिर है, जो बौद्धिक तबका नियमित नौ से पांच की नौकरी में बंधा नहीं था, वह अब तक आत्मानुशासन के तहत ही रच रहा था। एक किस्म के स्व-आरोपित लॉकडाउन में था, जैसे प्रोफेसर राय, जिन्होंने रिटायरमेंट के बाद न तो एक्सटेंशन लिया न ही बाहर कोचिंग क्लास ली। अवकाश की अवधि में प्रोफेसर का सारा उद्यम इस पर केंद्रित रहा कि वे कैसे कुछ अलग कर के दिखाएं। कुछ बड़ा करें। कुछ हटकर करें। यह बौद्धिकों की विशिष्ट समस्या है, कि वे अवकाश को उत्कृष्ट रचना या उत्पादन के किसी दैवीय कर्तव्य की तरह देखने लगते हैं। फिर अपनी ही पूंछ का पीछा करते कुत्ते की तरह रह-रह कर भौंकते जाते हैं।
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मसलन, बौद्धिक दायरे में आजकल लोग एक-दूसरे को फोन करते हैं तो इस बात का ज़िक्र करते हैं कि उन्होंने क्या रचा। क्या अलग किया। क्या लिखा। क्या पढ़ा। फेसबुक पर सबसे सामान्य तस्वीर शुरुआती दिनों में यह दिखी कि ये लोग अपनी पुरानी किताबें छांटने और साफ़ करने में लगे रहे। कुछ अचानक हाथ लग जाये ऐसा जिसका प्रचार मूल्य हो, तो उसे पोस्ट करने में तनिक भी देर किसी ने नहीं की। किसी ने बड़ी मेहनत से किसी क्लासिक का तर्जुमा कर डाला। किसी ने किताब लिख डाली। कोई चुप मार कर किसी गुप्त अध्ययन में लगा हुआ है। कुछ ज्यादा गंभीर बौद्धिक सोशल मीडिया से कट लिए हैं। वे एकान्त में जाने क्या पका रहे हैं। ये सब वास्तव में “डेडिकेटेड” लोग हैं (सफलता के मारे हैं या नहीं, इस पर पक्का कुछ कहना मुश्किल है) लेकिन ये सब किसी अनसुने-अदृश्य फ़रमान पर खुद से ही होड़ में लगे हुए हैं ताकि इसी बीच अपना सबसे बेहतर पैदा कर दें। प्रोफेसर राय भी इसी विशिष्टताबोध और उत्कृष्टताबोध के मारे थे।
फिल्म भले उनकी गैर-मौजूदगी में आगे बढ़ती है, लेकिन परिवार के दूसरे सदस्यों के माध्यम से प्रोफेसर के व्यक्तित्व की परतें लगातार खुलती जाती हैं। छोटी बेटी तो शुरू से ही मानती थी कि पिता अहंकारी हैं। बेटे से खटपट चलती ही रहती थी। पत्नी ने भी एक दिन खुल के कह दिया था, “तुमने आज तक हमारे लिए किया ही क्या?" केवल बड़ी बेटी नीता (शबाना आज़मी) है जिसने अपनी बुद्धिजीवी पिता पर अंत तक पूरी आस्था जतायी, लेकिन एक रात उसने अपने पिता के व्यक्तित्व का अचानक विखंडन कर डालाः “कहीं वे सामान्य आदमी तो नहीं थे और हम ही लोग उन्हें बड़ा बनाये हुए थे?" यह सवाल चौंकाता है। वह कहती है कि शायद पिता उतने ही काबिल थे जितना उन्होंने किया, वे उससे बड़े नहीं थे। ये सब कह कर वह ग्लानि में भी डूब जाती है, कि पिता के बारे में उसने ऐसा सोचा भी कैसे!
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जो नहीं है, जैसे कि प्रोफेसर, उसका ग़म तो है। यह ग़म ही उसके बारे में सोचने की मोहलत देता है और साथ रहने वालों को सच के थोड़ा और करीब लाता है। प्रोफेसर के घर से जाने के ठीक साल भर बाद वैसी ही बरसात की एक रात में सब अपने-अपने सच को लेकर साथ बैठते हैं। दोनों बेटियां और बेटा याद करते हैं कि उन्होंने पिता के बारे में अब तक क्या-क्या कहा। पिता की विखंडित होती तस्वीर को अचानक पत्नी आकर संभालती है अंतिम दृश्य में। पत्नी सुधा कहती है कि घर से जाने के एक रात पहले प्रोफेसर राय ने उससे एक बात कही थी। उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का था एक आदमी को एक ही ज़िंदगी मिलती है।
प्रोफेसर का यह दुख दरअसल मृणाल सेन का “पर्सनल” दुख है। मृणाल सेन का दुख दरअसल एक बौद्धिक, एक कलाकार का दुख है। हर रचनाकार अपने बेहतरीन कामों में पड़ी दरारों को जानता है, समझता है। उसे एक अवकाश चाहिए होता है जिसमें वह खुद को उत्कृष्ट तरीके से पेश कर सके। अपनी गलतियों को दुरुस्त कर सके। रचना में ही सही, प्रायश्चित कर सके। इसे अज्ञेय ने “शेखरः एक जीवनी” में बड़ी खूबसूरती से कहा है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में की गयी रुखाई की कीमत कभी न कभी अवश्य चुकाता है। खुद को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने की यह उत्कण्ठा जानलेवा हो सकती है।
प्रोफेसर शशांक राय को लगा कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में जो बेरुख़ी की है- अपने “डेडिकेशन” के चक्कर में “सफलता” की कुंजी से चूक गये जिसका ख़मियाज़ा परिवार को भुगतना पड़ा- उसका हर्ज़ाना इस ज़िंदगी में भर पाना मुमकिन नहीं तो वे अपना दुख लिए कहीं निकल लिए। निकलने के फैसले से पहले तक वे खुद से ही होड़ में लगे रहे। मुक्तिबोध और गोरख पांडे की दिमागी बीमारी से मौत, स्वदेश दीपक का घर छोड़ना, शैलेश मटियानी... लंबी फेहरिस्त है जहां हम प्रोफेसर शशांक राय के किरदार को पा सकते हैं। लॉकडाउन में बौद्धिकों के साथ तकरीबन यही हो रहा है, अलग-अलग रूपों में।
यह अवकाश जो हमें मिला है, उत्पादन में प्रतिस्पर्धा ठानने के लिए नहीं है। ढेर सारा या उत्कृष्टतम पैदा करने के लिए नहीं है। अगर आपको लगता है कि आपने इतना सारा वक्त “खराब” कर दिया, तो आप गलत लीक पर हैं। अगर आपको लगता है कि आप वह नहीं कर सके जो कर सकते थे, तो आप गलत लीक पर हैं। आप जो कर सकते थे, आपने वही और उतना ही किया है। इसे मान लें। हर कोई अपने सामर्थ्य के बराबर ही उत्पादन करता है, न उससे ज्यादा, न कम। और बेचैनी में घर से भागने, ख़ुदकुशी करने या मानसिक विक्षिप्तता पालने से कहीं बेहतर यह नहीं है कि यह समय बरबाद ही चला जाय?
हर मनुष्य को ज़िंदगी एक ही मिली है। दूसरी ज़िंदगी की सदिच्छा या इस ज़िंदगी से शिकवा का कोई मतलब नहीं है। एक आदमी के पास एक ज़िंदगी होना दुख की बात नहीं है। कतई नहीं। इसका मतलब यह भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि “ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा” की तर्ज़ पर सब करम यहीं कर डालो। यह बात सबसे ज्यादा उनके समझने की है जो कुछ रचते हैं।
बाकी के समझने के लिए केवल एक बात है कि आपके आसपास जो रच रहा है, कलाकार है, बौद्धिक है, उसे बेमतलब झाड़ पर न चढ़ाएं। सामान्य मनुष्य होने का अहसास उसे भी होने दें। दूसरों की अपेक्षा को तोड़ना तो फिर भी सुख दे सकता है, अपनी अपेक्षाओं के प्रति अपर्याप्तता का बोध आत्मघाती है। इस दौर में संवेदनशील और रचनात्मक लोगों के आसानी से निकल लेने को ऐसे भी देखा जाना चाहिए।