ब्वायज़ लॉकर रूम का ताला खोलना है तो पहले अपने दिमागी तहख़ानों को टटोलिए
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अपने अपने दिमाग के भीतर पल रहे सीलनदार बदबूदार लॉकर रूमों में झांकने की किसी ने ज़हमत नहीं उठायी। चौंक रहे इन लोगों की ब्राउज़िंग हिस्ट्री पता की जाए, तो समाज की तलछट खुलकर सामने आ जाएगी। सब बिखर जाएगा। समाज नंगा हो जाएगा क्योंकि पॉर्न बैन होने के बावजूद यह महान राष्ट्र दुनियाभर में पॉर्नहब ट्रैफिक देनेवालों में तीसरे नंबर पर है....
पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव को उनके साप्ताहिक कॉलम ‘कातते-बीनते’ में
जनज्वार। हमारा समाज भूलने के मामले में बहुत तेज़ है। एक जुर्म होता है। लोग चौंकते हैं। कुछ सवाल करते हैं। फिर अगली घटना तक शांत हो जाते हैं। जानकार लोग बने बनाए नुस्खे पेश करते हैं। सोचना मना है यहां। सोचने में ज़ोर लगता है। फ़तवा देना आसान काम है। ब्वायज़ लॉकर रूम के मामले में समाज ने अपेक्षित प्रतिक्रिया दी है। सब चौंक गए हैं। अपने अपने दिमाग के भीतर पल रहे सीलनदार बदबूदार लॉकर रूमों में झांकने की किसी ने ज़हमत नहीं उठायी। चौंक रहे इन लोगों की ब्राउज़िंग हिस्ट्री पता की जाए, तो समाज की तलछट खुलकर सामने आ जाएगी। सब बिखर जाएगा। समाज नंगा हो जाएगा क्योंकि पॉर्न बैन होने के बावजूद यह महान राष्ट्र दुनियाभर में पॉर्नहब ट्रैफिक देनेवालों में तीसरे नंबर पर है।
जिन किशोरों के खिलाफ़ अभी मोर्चा खोला गया है दिल्ली में, क्या वे अपराधी हैं? एक लड़का तो अपराध साबित होने से पहले ही गुड़गांव में बारहवें माले से कूद गया। क्या हम चाहते हैं कि ये लड़के अपनी फंतासी और रंगीन ख़याली पुलावों के एवज में मानव की तरह कूद कर मरते रहें?
आज से बीसेक साल पहले इंटरनेट पैदा हुआ था। लोग तब याहू के प्राइवेट रूम में चैट करते थे पचास रुपये घंटे पर। कुछ संपन्न लड़के जिनके यहां केबल होता था, आधी रात प्लेबॉय और फैशन टीवी देखते थे। जेब से अभागे लड़के तांगा स्टैंडों और बस स्टेशनों के बाहर पीली पन्नी में लिपटी कोकशास्त्र और मस्तराम डाइजेस्ट खरीदते थे। अगली का पैसा आने तक एक से ही काम चलाते थे। जिनके पास दस रुपया भी नहीं होता था खर्च करने को, वे अंग्रेज़ी फिल्मों के पोस्टर से ही मन बहला लेते थे।
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उससे भी पीछे जाइए, किशोरवय के लोग 'लोलिता' पढ़ते मिलेंगे। किताबों के बीच छुपाकर ओशो टाइम्स पत्रिका पढ़ी जाती थी, इस समझदारी में कि कुछ तो गलत कर रहे हैं। और कुछ नहीं तो तीन रुपये की सरस सलिल के भीतर किसी न किसी कहानी में सरल रेखांकन से बनी स्त्री देह की नाव और नदीघाटी जीवंत हो उठती थी। और पीछे जाइए, आपको अज्ञेय के यहां 'शेखर : एक जीवनी' और जैनेंद्र कुमार के यहां 'त्यागपत्र' के नायकों में वर्जित कामनाओं का बेमेल उभार मिलेगा। बीच में धर्मवीर भारती के यहां सुधा और चंदर का सस्ता रूमान भी खूब चला था।
वर्जित यौनेच्छाओं की अभिव्यक्ति हमेशा आपराधिक नहीं रही। ज़रूरी भी नहीं है। अपने यहां तो चंद्रकांता सन्तति को भी छुपाकर प़ढ़ने का चलन रहा है। संभव है कि ब्वायज़ लॉकर रूम में तैयार की जा रहीं आपराधिक योजनाएं वहीं तक सीमित रह जाती हों। हम नहीं जानते कि इस किस्म के चैट समूहों से प्रेरित होकर कितने युवकों ने कितने बलात्कार किए।
हमारे पास प्रेरणाओं के आंकड़े नहीं हैं, इसलिए ये लड़के ज्यादा से ज्यादा संभावित अपराधी हैं, कुत्सित दिमाग वाले हैं। यह वर्जना है, कुंठा है, जो लड़कियों में भी बराबर है। दूसरे पाले में गर्ल्स लॉकर रूम की चर्चा भी चल रही है। विडम्बना है कि दुनिया फ्रायड से भी सौ साल आगे आ गयी है, लेकिन यहां नुस्खे के नाम पर हर बार बचपन में सेक्स एजुकेशन की खुराक विशेषज्ञों द्वारा पिला दी जाती है।
इन्हीं 'बालमन' विशेषज्ञों की सलाह पर हम शहरी मध्यवर्गीय लोगों ने अपने बच्चों का बचपन छीन लिया। उन्हें 'गुड टच' और 'बैड टच' सिखाकर उनके भीतर सहज रूप से सोलह साल की उम्र में पनपने वाली समझदारी को पांच साल में ही भीतर ठेल दिया। नयी नस्ल की फसलें जल्दी पकने लगीं। इनकी भाव भंगिमा बड़ों जैसी होने लगी। इनकी प्रतिक्रियाएं वयस्क दिखने लगीं।
बच्चा बचपन में ही अपने बाप का बाप बन गया और मां-बाप को इसकी वजह जानने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। आप ब्वायज़ या गर्ल्स लॉकर रूम के हैशटैग से लिखी पोस्ट इंस्टाग्राम पर देखें, वहां सोलह से अठारह साल के किशोर फेमिनिज्म शब्द का प्रयोग करते दिखेंगे। सवाल है कि इतने भारी-भरकम अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने वाले ये शहरी संस्कारी मध्यवर्गीय साधन-संपन्न बच्चे कुछ समझते भी हैं कि बस बोलते ही हैं?
मैं यहां केवल शहरी या कहें महानगरीय मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग की बात कर रहा हूं। गांव और कस्बे या छोटे जिले से लॉकर रूम आदि का लेना देना नहीं है। इस बात को थोड़ा कायदे से समझना हो तो अटकलबाज़ी से बेहतर है कि राष्ट्रीय अपराध आंकड़ा ब्यूरो (एनसीआरबी) के डेटा को देख लिया जाए।
जुवेनाइल यानी अवयस्कों के किये जुर्म के आंकड़े 2019 और 2020 के लिए उपलब्ध नहीं हैं। केवल 2016 से 2018 तक का आंकड़ा है, लेकिन वो भी ट्रेंड को समझने के लिए काफ़ी है। आइए, देखते हैं कि यौन हमलों पर इतनी सहजता से चर्चा करने वाले लड़के-लड़कियों के ये जो तहखाने इस समाज में दबे—छुपे रोशन हैं, इसके पीछे कौन काम कर रहा है। डेटा के बगैर शायद बात मुकम्मल न हो, इसलिए थोड़ा सब्र रखना होगा।
एनसीआरबी के मुताबिक 2016 से 2018 के बीच अवयस्क यानी जुवेनाइल अपराधियों ने जितने भी जुर्म किए, उनमें अकेले दिल्ली की हिस्सेदारी 35.1 फीसद है। इसके बाद मुंबई 12.7 फीसद के साथ दूसरे, चेन्नई 7.4 फीसद के साथ तीसरे और पुणे 7.1 फीसद के साथ चौथे नंबर पर है। पांचवें पर मौजूद सूरत के 6.0 फीसद हिस्से को पहले तीन में जोड़ लें तब भी दिल्ली किशोर अपराधियों के मामले में इन सब पर अकेले भारी पड़ती है।
ये पांचों शहर विकसित हैं। तीन तो महानगर ही हैं, बाकी सूरत औद्योगिक केंद्र है और पुणे आइटी केंद्र। इनके उलट पिछड़े हुए शहर कानपुर और पटना को ले लीजिए जिनकी किशोरों द्वारा किए गए अपराध में हिस्सेदारी सबसे कम 0.1 फीसद है।
अब दूसरा डेटा देखते हैं इन किशोर अपराधियों की उम्र और पृष्ठभूमि का। एनसीआरबी के मुताबिक 2018 में जितने किशोर अपराधियों को गिरफ्तार किया गया, उनमें सबसे ज्यादा संख्या प्राइमरी से इंटर तक (जिसमें हाइस्कूल से इंटर तक सबसे ज्यादा है) पढ़े लिखों की रही। यह ट्रेंड दिल्ली, मुंबई, पुणे, हैदराबाद, अमदाबाद, चेन्नई, बंगलुरु, आदि बड़े शहरों में समान है। केवल सूरत में पकड़े गए सभी किशोर प्राइमरी तक पढ़े हुए हैं।
पिछले साल अक्टूबर में एनीआरबी ने एक डेटा जारी किया था जिसमें बताया गया था कि 2017 तक हुए अपराधों के हिसाब से स्कूल जाने वाले किशोर ज्यादा अपराध करते हैं। मैट्रिक तक पढ़े और हायर सेकंडरी के बीच वाले शिक्षित अपराधियों की संख्या 2016 में 4244 थी जो 2017 में बढ़कर 6260 हो गयी, यह 32 फीसद का इजाफा है।
दूसरी ओर इसी अवधि में अनपढ़ अपराधियों की दर में 20 फीसद गिरावट आयी। शहरों के मामले में दिल्ली यहां भी अव्वल है जहां किशोरों द्वारा किया गया अपराध 2017 में 11.5 फीसद बढ़ गया। कुल 19 महानगरों के बीच किशोर अपराधियों के मामले में अकेले दिल्ली की हिस्सेदारी 35.2 फीसद रही। 2017 में इन पढ़े-लिखे किशोर अपराधियों ने दिल्ली में कुल 2677 जुर्म किए जिनमें 132 बलात्कार, 46 हत्याएं, 93 यौन हमले, 320 चोरियां, 17 अप्राकृतिक यौनाचार, सात डकैतियां और 49 गलत ढंग से गाड़ी चलाने के केस रहे।
एनसीआरबी के इन दोनों ही आंकड़ों की तालिका में कोलकाता शहर का डेटा नहीं है, क्योंकि राज्य की ओर से उसे जमा नहीं किया गया है। दूसरे, किए गए कुल अपराधों और गिरफ्तारियों में अपराध की श्रेणी के हिसाब से बंटवारा नहीं है जिससे यह नहीं समझ आता है कि महिला विरोधी अपराध कितने हैं। इसके बावजूद निर्भया कानून बनने के एक साल बाद यानी 2016 के अंत में एनसीआरबी ने जो डेटा जारी किया था, उसके मुताबिक निर्भया कांड के एक साल के भीतर कुल 2034 किशोर बलात्कार के आरोप में पकड़े गए थे, जिनमें 76 फीसद की उम्र 16 से 18 बरस थी।
ये वही उम्र है जिसके ज्यादातर छात्र ब्वायज़ या गर्ल्स लॉकर रूम के सदस्य रहे हैं। इन अपराधियों में 79 फीसदी वे थे जिन्होंने महिलाओं पर उनकी इज्ज़त लूटने की मंशा से हमला किया था। इसके एक साल बाद यानी 2017 के अंत में ब्यूरो ने जो डेटा जारी किया, वह बताता है कि किशोर अपराधों के मामले में मुंबई पहले नंबर पर थी और दिल्ली दूसरे पर। 2017 में पकड़े गए कुल 40,000 किशोरों में 72 फीसदी 16 से 18 बरस के बीच के थे और महिलाओं के खिलाफ़ इन्होंने कुल 3070 अपराध किए थे, जो 2016 से भी ज्यादा था। महिलाओं के खिलाफ़ किए अपराध से ज्यादा संख्या चोरी की है।
इन आंकड़ों से निकल रहे निष्कर्षों को संजो लेना ज़रूरी हैः
1) किशोरवय में सबसे ज्यादा अपराध 16 से 18 बरस की उम्र के बीच किए जाते हैं।
2) ये अपराधी महानगरों में सबसे ज्यादा पाए जाते हैं, जिनमें दिल्ली अव्वल है।
3) ये अपराधी न्यूनतम हाइस्कूल पढ़े होते हैं और अधिकतम इंटर।
4) इनमें सबसे ज्यादा संख्या उनकी है जो बाकायदे अपने घरों में माता-पिता के साथ रहते हैं।
5) इनके किए अपराधों में सबसे ज्यादा चोरी, उसके बाद बलात्कार और यौन हमले हैं।
6) यौन हमले जानबूझ कर महिलाओं की इज्जत लूटने की मंशा से किए जाते हैं।
इन छह बिंदुओं में जो प्रोफाइल निकल कर सामने आती है, वह ब्वायज़ लॉकर रूम के सदस्यों से मेल खाती है। इसका मतलब यह नहीं कि लॉकर रूम के सभी सदस्य संभावित अपराधी ही हैं। ये कह सकते हैं कि उनमें अपराधी बन जाने की संभाव्यता (गणितीय प्रायिकता) किसी गरीब, ग्रामीण/कस्बाई, बेघर, अनपढ़, अनाथ किशोर के मुकाबले बहुत ज्यादा होती है।
अब सवाल पूछना बनता है।
हमने डोनेशन देकर अपने बच्चों का दिल्ली या मुंबई जैसे महानगर में अंग्रेज़ी पब्लिक स्कूल में नाम लिखवाया। स्कूल की डिमांड पूरी करते रहे। बच्चे के नखरे सहते रहे। हर विषय का ट्यूशन लगवाया। मोबाइल दिया। स्कूल बस लगवायी। मॉल घुमाया। इंटरनेट दिया। अतिरिक्त गतिविधियों में उसे लगाया। स्टेडियम ले गए। मोटरसाइकिल लाकर दी। डांस क्लास लगवायी। गिटार सिखवाया। फ्रेंच पढ़वा दिया। उसे बचपने से ही जेंडर सेंसिटिव बनाया। पर्यावरण का ज्ञान दिया। साइंस मॉडल बनवाया। हिंदी की कीमत पर अंग्रेज़ी बोलना सिखाया। ब्रांडेड कपड़े पहना दिए। पैरेंट टीचर मीटिंग में जाते रहे। सेवा टहल के लिए आया भी लगवा दी। कमरे में दो टन का एसी लगवा दिया। बोर्नवीटापिलाया। रेड बुल पिलाया।
इतना सब किया और लड़का जवान होने से पहले ही बलात्कारी सांड़ निकल गया? क्यों? कैसे? कब? क्या घर की चौखट पर पुलिस आवे, ये दिन देखने के लिए हम जिंदगी भर की कमाई फूंक रहे थे? क्या पुलिस के डर से लड़का छत से कूद जाए, क्या इसी दिन के लिए हम अपना पेट काट कर उसे पाल रहे थे? सवाल तो पूछना पड़ेगा। अभी नहीं, तो कभी नहीं। वरना एक और तहखाना बजबजाते हुए बाहर निकल आएगा। एक और लड़का छत से कूद जाएगा।