सप्ताह की कविता में पढ़िए मुक्तिबोध को

Update: 2017-07-07 11:24 GMT

मुक्तिबोध की 1966 में लिखी कविता ‘शून्य’ वर्तमान माहौल को प्रतिबिंबित करती है। कविता का आरंभ शून्य के बर्बर, काले और नग्न चेहरे से होता है जिसके ‘जबड़े में मांस काट खाने के दरांतीदार दांत हैं’ और कवि इसका कारक हमारे भीतर के अभाव को पाता है जो समय की मार खा लोगों का स्वभाव बनता जा रहा।

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सत्ता के केंद्रीकृत होने से अभाव के इस दैत्य को शून्य में ‘जबड़ा’ फैलाने में मदद मिलती है, नतीजतन बीभत्स मार-काट है। मुक्तिबोध के यहां शून्य की फंतासी ठोस है इसलिए कि यह जनअभावों और उससे जन्मी समस्याओं को प्रतिबिम्बि‍त करती है। वे देखते हैं कि आमजन के मिथकीय चरित्र शून्य में पनाह पाते हैं। शून्य को इस तरह भरा-भरा ठोस रूप में देखना, कि ठोस के अस्त‍ितत्व को ही चुनौती मिलने लगे, मुक्तिबोध की अपनी खास पहचान है। इस तरह ठोस को शून्य में लटकाकर वे उसका ज्यादा सही आकलन कर पाते हैं।

मुक्तिबोध के लिए शून्य ही सत्य है। क्योंकि तमाम संभावनाओं की सृष्टि के लिए स्पेश वहीं है। नये सितारों के जन्म का स्पेश वहीं है। जो भी नयी जीवंतता जन्म लेगी वह इस खालीपन में ही जन्म लेगी। बाकी जो ठोस है और ठस होने की ओर है वे सारे सितारों भी अपने लिए अपना अपना ब्लैकहोल इसी खाली स्पेस में रच रहे हैं, और उसी काल विवर में उन्हें एक दिन आखि‍र को बिला जाना है, नष्ट हो जाना है।  - कुमार मुकुल

मुक्तिबोध की दो कविताएं

शून्य
भीतर जो शून्य है
उसका एक जबड़ा है
जबड़े में माँस काट खाने के दाँत हैं;
उनको खा जायेंगे,
तुम को खा जायेंगे।
भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह
हमारा स्वभाव है,
जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में
ख़ून का तालाब है।
ऐसा वह शून्य है
एकदम काला है,बर्बर है,नग्न है
विहीन है, न्यून है
अपने में मग्न है।
उसको मैं उत्तेजित
शब्दों और कार्यों से
करता रहता हूँ
बाँटता फिरता हूँ।
मेरा जो रास्ता काटने आते हैं,
मुझसे मिले घावों में
वही शून्य पाते हैं।
उसे बढ़ाते हैं,फैलाते हैं,
और-और लोगों में बाँटते बिखेरते,
शून्यों की संतानें उभारते हैं।

बहुत टिकाऊ है,
शून्य उपजाऊ है।
जगह-जगह करवत,कटार और दर्रात,
उगाता-बढ़ाता है
मांस काट खाने के दाँत।
इसीलिए जहाँ देखो वहाँ
ख़ूब मच रही है,ख़ूब ठन रही है,
मौत अब नये-नये बच्चे जन रही है।
जगह-जगह दाँतदार भूल,
हथियार-बन्द ग़लती है,
जिन्हें देख, दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।


एक अरूप शून्‍य के प्रति
रात और दिन
तुम्हारे दो कान हैं लंबे-चौड़े
एक बिल्कुल स्याह
दूसरा क़तई सफ़ेद।
हर दस घंटे में
करवट एक बदलते हो।

एक-न-एक कान
ढाँकता है आसमान
और इस तरह ज़माने के शुरू से
आसमानी शीशों के पलंग पर सोए हो।
और तुम भी खूब हो,
दोनों ओर पैर फँसा रक्‍खा है,
राम और रावण को खूब खुश,
खूब हँसा रक्खा है।
सृजन के घर में तुम
मनोहर शक्तिशाली
विश्वात्मक फैंटेसी
दुर्जनों के घर में

प्रचंड शौर्यवान् अंट-संट वरदान!!
खूब रंगदारी है,
तुम्हारी नीति बड़ी प्यारी है।
विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर
स्वर्ग के पुल पर
चुंगी के नाकेदार
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार!!

ओ रे, निराकार शून्य!
महान विशेषताएँ मेरे सब जनों की
तूने उधार ले
निज को सँवार लिया
निज को अशेष किया
यशस्काय बन गया चिरंतन तिरोहित
यशोरूप रह गया सर्वत्र आविर्भूत।

नई साँझ
कदंब वृक्ष के पास
मंदिर-चबूतरे पर बैठकर
जब कभी देखता हूँ तुझे
मुझे याद आते हैं
भयभीत आँखों के हंस
व घावभरे कबूतर
मुझे याद आते हैं मेरे लोग
उनके सब हृदय-रोग
घुप्प अंधेरे घर,
पीली-पीली चिता के अंगारों जैसे पर.
मुझे याद आती है भगवान राम की शबरी,
मुझे याद आती है लाल-लाल जलती हुई ढिबरी
मुझे याद आता है मेरा प्यारा-प्यारा देश,
लाल-लाल सुनहला आवेश।
अंधा हूँ
खुदा के बंदों का बंदा हूँ बावला
परंतु कभी-कभी अनंत सौंदर्य संध्या में शंका के
काले-काले मेघ-सा,
काटे हुए गणित की तिर्यक रेखा-सा
सरी-सृप-स्नेक-सा।
मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,
दाग हैं,
और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है
अग्नि-विवेक की।
नहीं, नहीं, वह तो है ज्वलंत सरसिज!!
ज़िंदगी के दलदल-कीचड़ में धँसकर
वृक्ष तक पानी में फँसकर
मैं वह कमल तोड़ लाया हूँ –
भीतर से, इसीलिए, गीला हूँ
पंक से आवृत्त,
स्वयं में घनीभूत
मुझे तेरी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है।

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