समलैंगिकता भारत में अब नहीं रह जाएगा अपराध

Update: 2017-08-28 20:34 GMT

उच्चतम न्यायालय ने माना कि समलैंगिकों को एक वर्ग मानकर उनकी गतिविधियों को आपराधिक करार देना, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटी किए गए समानता के मूलभूत अधिकार का भी उल्लंघन है...

रवींद्र गड़िया, सुप्रीम कोर्ट वकील

उच्चतम न्यायालय ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। निजता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया है। साथ ही उच्चतम न्यायालय के पहले के विभिन्न ऐसे फैसले जो कि निजता के अधिकार को मूल अधिकार नहीं मानते थे, उनसे असहमति व्यक्त की और उन फैसलों को कानून की अनुचित व्याख्या भी करार दिया। इस क्रम में उच्चतम न्यायालय ने कई ऐसे मसलों पर अपनी राय व्यक्त की जो निजता के अधिकार से जुड़े हुए थे।

ऐसा ही एक मुद्दा समलैंगिकों के अधिकार और समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का है। इस मसले पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह माना कि निजता किसी भी मनुष्य को दूसरे मनुष्यों के साथ अपनी मर्जी और इच्छानुसार संबंध बनाने की इजाजत देती है।

यह स्वतंत्रता किसी मनुष्य के लिए पूर्णता प्राप्त करना, आत्मविश्वास विकसित करना और अपने जीवन के लक्ष्य खुद निर्धारित करना संभव बनाती है, जिससे कि मनुष्य के लिए मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीना संभव होता है। मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार और निजता का अधिकार दोनों संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन का अधिकार के ही विभिन्न आयाम हैं।

धारा 377 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन यह कहते हुए माना कि किसी की समलैंगिक पहचान के आधार पर उसे धारा 377 के अंतर्गत अपराधी मानना उचित नहीं है। साथ ही उच्चतम न्यायालय ने यह भी माना कि समलैंगिकों को एक वर्ग मानकर उनकी गतिविधियों को आपराधिक करार देना, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटी किए गए समानता के मूलभूत अधिकार का भी उल्लंघन है।

हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई और इस अपील ने उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री सिंघवी की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के फसले को गलत करार दिया। जस्टिस सिंघवी का मानना था कि पिछले 150 सालों में धारा 377 के अंतर्गत 200 से भी कम आपराधिक मामले दर्ज हुए हैं। जनसंख्या का बहुत छोटा हिस्सा समलैंगिक या ट्रांसजेंडर है। इतने छोटे से हिस्से के अधिकारों की रक्षा करने के लिए या उनकी निजता, स्वतंत्रता या गरिमा की चिंता के कारण धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करना गलत है।

निजता के अधिकार में हालिया फैसले में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने जस्टिस सिंघवी के नजरिए को साफतौर पर गलत बताया और साफतौर पर कहा कि लैंगिक रूझान का मामला निजता के अधिकार और गरिमा से जुड़ा है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बहुत कम लोग समलैंगिक या ट्रांसजेंडर हैं।

बराबरी का अधिकार और सभी नागरिकों को बराबर सुरक्षा पाने का अधिकार यह मांग करता है कि किसी एक भी नागरिक में पहचान या निजता की सुरक्षा बिना किसी भेदभाव के की जाए।

वर्तमान फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्पष्ट राय व्यक्त करने का यह तो असर निश्चित  है कि अभी आगे सर्वोच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ में धारा 377 के मसले पर जो पुनर्विचार और सुनवाई चल रही है, उस पर इस फैसले का असर जरूर पड़ेगा। ज्यादा उम्मीद यह है कि निजता के अधिकार पर वर्तमान फैसले के आलोक में धारा 377 को असंवैधानिक कर दिया जाए और समलैंगिक/ट्रांसजेंडर समुदाय को राहत मिले।

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