आलोक धन्वा नीतीश कुमार पर हुए हमलावर, कहा जघन्य कांडों में मंचों का बहिष्कार होना ही चाहिए

Update: 2019-01-31 16:32 GMT

मुजफ़्फ़रपुर बालिकागृह केस में तख्तियां लेकर सड़कों पर बिहार सरकार के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करने वाली सीपीआई नेशनल कमेटी सदस्य NFIW सदस्य वरिष्ठ कवयित्री निवेदिता शकील पटना लिटफेस्ट में शिरकत कर रही हैं, जिसे बिहार सरकार और दैनिक जागरण मिलकर आयोजित कर रहे हैं। निवेदिता शकील से जब इस बाबत सुशील मानव ने वॉट्सएप पर बात की तो उन्होंने कहा-

पटना लिटरेचर फेस्टिवल में आप भी पार्टिसिपेट कर रही हैं क्या?

हाँ क्यों?

मुजफ़्फ़रपुर केस को लेकर आप दो महीने पहले बिहार सरकार के खिलाफ़ प्रतिरोध का सबसे सशक्त चेहरा रही हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर महीने में बिहार सरकार पर मुजफ्फ़रपुर के आरोपियों को बचाने की कोशिश करने का आरोप लगाते हुए डांट लगाई थी उसके बाद ही मंत्री मंजू वर्मा और आरोपी मधु ने कोर्ट में सरेंडर किया था। फिर आपका बिहार सरकार के लिट फेस्टवल में भागीदारी करना स्वाभाविक तौर पर खलता है?

ये कोई बात नहीं हुयी। जहाँ विरोध करना है वहाँ विरोध करेंगे। तो क्या विरोध समय, स्थान और इवेंट का मोहताज़ है तुमको जो समझ आये करो, हमको जो सही लगता है करेंगे।

इस विचलन के बाबत स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन कहते हैं कि – 'जिस विषय या समूह के प्रति आप कोई पक्षधर संघर्ष में हैं या संघर्ष के साथ हैं तो आपकी सब्जेक्टिव इंगेजमेंट ज़रूरी है। संवेदना के स्तर पर जुड़ाव अन्यथा आपकी पूरी कवायद इवेंट और सेल्फ प्रमोशन से अधिक कुछ नहीं हो सकता।'

वहीं अपने समय में मुखर प्रतिरोध के प्रतिमान रहे वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से भी इस मुद्दे पर सुशील मानव की फोन पर लंबी बातचीत हुई। वो फिलहाल अस्वस्थ हैं और अपनी अस्वस्थता के चलते इलाहाबाद में गोरख पांडे पर हुए कार्यक्रम में शिरकत न कर पाने का खेद व्यक्त करते हैं।

यूनियन नेता के तौर पर लंबा जनसंघर्ष करने वाले दिवंगत जॉर्ज फर्नांडीज बाद में गिरने की हद तक मनुष्यविरोधी दक्षिणपंथ के पाले में गिर जाते हैं। यही प्रवृत्ति साहित्यकारों में भी दिख रही है। ऐसा क्यों होता है?

इसे समन्वय में देखना चाहिए। काम क्या हुआ ये देखना चाहिए। हमें याद है आजाद भारत का सबसे बड़ा हड़ताल था वो जब पूरे देश में कहीं भी चेल का चक्का नहीं घूमा। हम भी बीस पच्चीस लोग बाब नागार्जुन को लेकर उस हड़ताल में शामिल होने मुंबई गए थे। सरकार उस समय हड़ताल का बहुत क्रूरता से दमन कर रही थी। हम लोग वहीं खड़े होकर अपनी कविताएं पढ़ रहे थे प्रशासन की हिम्मत नहीं हो रही थी हमारे नजदीक आने की, ऐसा था उस समय बाबा नागार्जुन और जॉर्ज फर्नांडीज का प्रभाव। स्टालिन ने कहा है – बंदूक कहाँ से आ रहे ये मायने नहीं रखता, मायने ये रखता है कि बंदूक किसके खिलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा है।

अब देखिए प्रभात जोशी ने पूरे देश भर में नामवर सिंह पर उनके 75 वें सालगिरह पर कार्यक्रम किया। ये पिछले 50 साल में घटी बड़ी घटना थी। हमने उनसे पूछा कि आप नामवर पर कार्यक्रम कर रहे हैं, जबकि वो तो कभी भी उस खेमे में नहीं रहे।

शेल्टर होम में बच्चियों के कस्टोडियल रेप करनेवालों को संरक्षण देने वाली दमनकारी सत्ता द्वारा दिए जा रहे मंच पर साहित्यकार को जाना चाहिए या नहीं?

इस पर आलोकधन्वा का कहना है कि- जघन्य कांडो में मंचों का बहिष्कार करना ही चाहिए, क्योंकि आपकी उपस्थिति जघन्यता को कम कर देती है।

साथ ही आलोक धन्वा ये भी कहते हैं कि जनता ने नितीश कुमार को नहीं बल्कि जदयू-राजद महागठबंधन को मैंडेट दिया था। जनता ने भाजपा को नकारा था। राजद के साथ गठबंधन तोड़कर और भाजपा को सरकार में भागीदार बनाकर नितीश कुमार ने जनमत और लोकतंत्र का अपमान किया है।

आलोकधन्वा आगे कहते हैं ज्यां पाल सार्त्र ने तो नोबल पुरस्कार भी लेने से मना कर दिया था। सार्त्र मानते थे कि लेखक को पुरस्कार स्वीकार ही नहीं करना चाहिए। पुरस्कार ले लेने से लेने वाला न तो स्वतंत्र रह पाता है न ही तटस्थ।

क्या कारण है कि आज के समय में प्रतिरोध इवेंट में बदलते जा रहे हैं। एक दिन जिसके खिलाफ लोग सड़क पर प्रतिरोध करते हैं वो अगले दिन उसके द्वारा दिए जा रहे मंच के लिए सबसे आगे भागते हैं?

ऐसे लोग अपनी स्वार्थ पूर्ति कर सकते हैं, लोगों का प्यार नहीं अर्जित कर सकते। न ही सिर्फ कविता लिखने से इमेज बनती है। बर्बरता के खिलाफ़ खड़े रहने से इमेज बनती है। जब लेखन और चरित्र में दूरी नहीं रह जाती लोग तब प्यार देते हैं। बाबा नागर्जुन ऐसे ही थे। जो अपने समय के हर आंदोलन में शामिल रहे। उन्होंने तो नेपाल के लोकतंत्र के लिए भी लड़ाई में भाग लिया।

मैंने भी एक यूनिवर्सिटी के ख़िलाफ़ लड़ाई में भाग लिया और बाद में यूनिवर्सिटी छोड़ दिया। अनिल चमड़िया भी उस समय उसी यूनिवर्सिटी में थे। मैं भी वहां रहता तो प्रोफेसर हो जाता पर वो यूनिवर्सिटी सत्ताविरोधी रुझानों के चलते मेधावी छात्रों को फेल कर दे रही थी। मेरे लिए ये सब असह्य था। उस समय यूनिवर्सिटी में फेल किए गए मेधावी छात्रों में दिलीप खान और देवाशीष प्रसून और राकेश थे। राकेश जी बाद में इप्टा के महासचिव हुए।

आलोक धन्वा की ज़रूरत क्यों है इन मंचों को?

आलोक धन्वा जवाब में बताते हैं कि आजतक के साहित्य महोत्सव के लिए एक दिन मेरे पास आजतक से एक लड़की का फोन आया। मैंने उससे पूछा कि आपका कार्यक्रम दिल्ली में हो रहा है और मंगलेश डबराल दिल्ली के बड़े लेखक और पत्रकार हैं। आपने उन्हें क्यों नहीं बुलाया। क्या सिर्फ इसलिए कि वो भाजपा का खुला विरोध करते हैं। इस पर उस महिला ने कहा कि आप रेणु और दिनकर की माटी से आते हैं। फिर मैंने कहा कि अरुण कमल तो जा रहे हैं वो भी तो उसी माटी से आते हैं। इस पर आजतक चैनल की उस लड़की ने कहा कि अरुण कमल को छोड़िए, वो तो हैं ही। पर आप की बात कुछ और है, आप आंदोलनों से आये हैं।

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