बीते 30 सालों से लगातार युद्ध की विभीषिका से क्यों जूझ रही अरब दुनिया की जनता ?

Update: 2020-02-01 10:31 GMT
बीते 30 सालों से लगातार युद्ध की विभीषिका से क्यों जूझ रही अरब दुनिया की जनता ?
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सवाल उठता है कि जब शांति स्थापित करने के लिए अमेरिका ने लीबिया पर हमला किया था और 42 साल से स्थापित गद्दाफी शासन को जड़ से उखाड़ दिया था फिर क्या कारण है कि अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ के होते हुए भी लीबिया लगातार सुलग रहा है ?

अबरार खान का विश्लेषण

अरब दुनिया की जनता पिछले 30 साल से लगातार युद्ध की विभीषिका से जूझ रही है। शांति स्थापना के तमाम प्रयास अब तक कामयाब नहीं हुए है। फिलहाल लीबिया, यमन और ईरान इस वक्त के संकट में हैं लेकिन लीबिया और यमन युद्ध के मैदान में तब्दील हो चुके हैं। आज हम बात करेंगे लीबिया की लेकिन पहले लीबिया के इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं और इतिहास की रोशनी में ही वर्तमान संकट को समझने का प्रयास करेंगे।

र्नल मुअम्मर गद्दाफी जब 1969 में लीबिया की सत्ता पर काबिज हुए उस समय आज की बागी जनरल खलीफा हफ्तार गद्दाफी के राइट हैंड हुआ करते थे। माना यह भी जाता है कि गद्दाफी के सत्ता हासिल करने की मुहिम में इनका भी बड़ा योगदान था। गद्दाफी ने 1969 से 2011 तक लीबिया पर एकछत्र राज किया। गद्दाफी के शासन काल में डेमोक्रेसी तो नहीं थी मगर खुशहाली बहुत थी। तेल के धनी इस देश में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। लीबिया की जनता को बिजली पानी के साथ-साथ एक बच्चे को जन्म से लेकर के उच्च शिक्षा तक की सारी सुविधाएं उपलब्ध थी।

हां तक कि विदेशों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने तक सारी सुविधाएं सरकार की तरफ से मुफ्त हासिल थीं। मगर अमेरिका की चौधराहट को यह रास नहीं आया। दरअसल कर्नल मुअम्मर गद्दाफी अमेरिका की बेवजह की चौधराहट को पसंद नहीं करते थे। ऐसा माना जाता है कि कर्नल मुअम्मर गद्दाफी ने 80 के दशक में सीरिया, इराक और पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों के बीच प्रस्ताव रखा था कि वह डॉलर के बजाय गोल्ड में लेनदेन करें जिससे अमेरिका की दखलअंदाजी कम हो और उसे रोका जाए।

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गर ऐसा हो जाता तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भरी नुकसान होता। अमेरिका ने जैसा की उम्मीद भी थी, इसे गंभीरता से लिया और इन चारों देशों के पीछे पड़ गया। सीरिया और इराक का अमेरिका ने क्या किया सब जानते हैं। पाकिस्तान के उस शासक की भी हत्या कर दी गई थी और उसके बाद 21 मार्च 2011 में लीबिया पर भी अमेरिका ने हमला कर दिया।यहां एक बात ध्यान देने वाली है कि अमेरिका जिस भी देश पर हमला करता है कोई ना कोई बहाना जरूर तलाश करता है। हालांकि उन बहानों में कोई दम नहीं होता मगर उन्हीं बहानों के दम पर उसे यूनाइटेड नेशन का समर्थन प्राप्त हो जाता है।

मोहम्मद गद्दाफी को ठिकाने लगाने के लिए अमेरिका ने कभी कर्नल गद्दाफी के मित्र रहे इन्हीं खलीफा हफ्तार को चुना। हफ्तार 1961 में लीबिया की सेना में भर्ती हुए थे। 1969 के तख्ता पलट में गद्दाफी का साथ दिया था। 1987 में गद्दाफी से अनबन होने पर सेना की सर्विस छोड़ दिया और 1990 में अमेरिका भाग गये। 2011 में जब अमेरिकी सेना द्वारा गद्दाफी का तख्तापलट हुआ और गद्दाफी को मारा गया, तब हफ्तार दोबारा लीबिया आये। खलीफा हफ्तार को चूंकि अमेरिका का समर्थन हासिल था इसलिए उसे पांव जमाने में कोई समस्या नहीं आई।

मेरिका ने हफ्तार सहित कई गद्दाफी विरोधी गुट तय्यार किए। इन सभी विद्रोही गुटों तथा कबीलों को अमेरिका ने धन और हथियार मुहैया कराए जिसके दम पर इन अमेरिकी पिट्ठुओं ने त्रिपोली स्थित गद्दाफी की सत्ता पर हमला बोल दिया। दो-तीन महीनों तक गद्दाफी की सेना और बागियों में या यूं कहें कि अमेरिकी पिट्ठुओं में युद्ध हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गये। इन मौतों को बहाना बनाकर अमेरिका 17 मार्च 2011 को यूनाइटेड नेशन गया। वहां 1970-1973 के तहत प्रस्ताव पारित कराया और नाटो देशों के साथ लीबिया पर हमला कर दिया। (भारत ने इस प्रस्ताव का इनडायरेक्ट विरोध करते हुए वॉकआउट किया था) जिसके बाद कर्नल गद्दाफी मारा गया।

गर कर्नल गद्दाफी के मारे जाने के बाद भी समस्याएं समाप्त नहीं हुईं जिन छोटे-छोटे समूहों को अमेरिका ने हथियार बांटे थे वे सत्ता का लोभ या सत्ता में हिस्सेदारी पाने के लिए या असुरक्षा की भावना के तहत हथियार छोड़ने को सहमत नहीं हुए। जिसका नतीजा यह निकला कि पूरे लीबिया में गृहयुद्ध शुरू हो गया। शांति के तमाम प्रयासों के असफल होने के बाद नेशनल ट्रांजिशन काउंसिल (एनटीसी) की अंतरिम सरकार का गठन हुआ और इसी एनटीसी के तहत 24 नवंबर 2011 को एक प्रधानमंत्री अब्दुल रहमान अल कीव का चयन हुआ।

7 जुलाई 2012 में संसदीय चुनाव हुए। एनटीसी की जगह जनरल नेशनल कांग्रेस (जीएनसी) ने ले लिया। त्रिपोली से सांसद अली जिदान प्रधानमंत्री बने। (आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अली जिदान दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र रह चुके हैं)। देखा जाये तो खलीफा हफ्तार की महत्वाकांक्षा ने ही लीबिया को इस मुकाम तक पहुँचाया है, उनकी महत्वाकांक्षा फिर ज़ोर मारा और उन्होंने संसद पर कब्जा कर लिया, प्रधानमंत्री अली जिदान को गिरफ्तार कर लिया गया और जीएनसी को भंग कर दिया जाता है।

जून में फिर चुनाव हुए काउंसिल ऑफ डिस्प्यूट (Council of dispute) वजूद में आई और अब्दुल्लाह अल थानी को प्रधानमंत्री चुना गया। लेकिन जीएनसी के चुने सदस्यों ने काउंसिल ऑफ डिस्प्यूट (सीओडी) को मानने से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप जीएनसी और सीओडी बीच पहले तो रस्साकसी हुई फिर युद्ध शुरू हो गया। काउंसिल ऑफ डिसप्यूट की राजधानी त्रिपोली या बेनगाजी न होकर तुबरूक है। इसीलिए इसे तुबरुक या टोबरुक सरकार भी कहते हैं। इसी सीओडी रूल गवर्नमेंट ने ही 2 मार्च 2015 में जनरल हफ्तार को लीबिया नेशनल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया है।

संयुक्त राष्ट्र की दखलअंदाजी से दोनों गुटों (सीओडी-जीएनसी) में युद्धविराम हुआ और नए समझौते के तहत गवर्नमेंट ऑफ नेशनल अकॉर्ड वजूद मे आई। इस नई राजनीतिक व्यवस्था के तहत फ़ैज अल सिराज को प्रधानमंत्री बनाया गया जो कि अभी तक अपने पद पर हैं, लेकिन जीएनसी (जनरल नेशनल कांग्रेस) इस नई व्यवस्था और पीएम को स्वीकार नहीं करती। ज्ञात रहे कि गवर्नमेंट ऑफ नेशनल अकॉर्ड और उसके पीएम फ़ैज अल सिराज ही लीबिया की तरफ से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मान्यता रखते हैं इनके अलावा किसी भी अन्य गुट को सुरक्षा परिषद मान्यता नहीं है।

शुरू में अमेरिका भी मौजूदा पीएम फ़ैज अल सिराज अथवा गवर्नमेंट ऑफ नेशनल अकॉर्ड के साथ था पर बाद में इजिप्ट के शासक अलसीसी के घर हुई ट्रंप और हफ्तार की मुलाकात के बाद अमेरिका पूरी तरह से ख़लीफा जनरल हफ्तार के पक्ष में चला गया। जहां एक तरफ खलीफा जनरल हफ्तार को यूएई, फ्रांस, रूस, अमेरिका, इजिप्ट का समर्थन प्राप्त है वहीं दूसरी तरफ गवर्नमेंट ऑफ नेशनल अकॉर्ड को टर्की, ईरान, सूडान जैसे देशों सहित अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का भी समर्थन हासिल है। खलीफा हफ्तार को शुरू से ही सऊदी सरकार हथियार और नकदी मदद पहुंचा रही है। बीच-बीच में जब हालात बेकाबू हुए तो कई बार अमेरिका, फ्रांस आदि ने एयर स्ट्राइक करके हफ्तार को मदद पहुंचाई है।

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ब सवाल उठता है कि जब शांति स्थापित करने के लिए अमेरिका ने लीबिया पर हमला किया था और 42 साल से स्थापित गद्दाफी शासन को जड़ से उखाड़ दिया था फिर क्या कारण है कि अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ के होते हुए भी लीबिया लगातार सुलग रहा है ? मेरे खयाल से इसका एकमात्र कारण है तेल। जी हां लीबिया तेल संपन्न राष्ट्र है। इस गृह युद्ध के कारण हर रोज लीबिया को सिर्फ तेल उत्पादन से होने वाले राजस्व का नुकसान 77 मिलियन डॉलर है। जब किसी देश में मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था होती है तो वह अपने देश के संसाधनों का सदुपयोग करती है और उसका लाभ देश की जनता या सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने में लगाती है।

रंतु उसी देश में यदि कोई सरकार न हो, गृहयुद्ध हो, देश के अलग-अलग भागों पर अलग अलग समूहों का शासन हो और ज्यादा से ज्यादा लूटने और अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ हो, तब देश की संपदा कौड़ियों के मोल बिकती है। लीबिया का तेल कौड़ियों के मोल मिलता रहे इसीलिए लीबिया का अस्थिर रहना जरूरी है। इस कारण जनरल हफ्तार अमेरिका समेत अन्य यूरोपीय देशों का चहेता है। दूसरा कारण ये की अमेरिका की नीति ही कुछ ऐसी है जिसका उदाहरण हमें लीबिया के अतिरिक्त सीरिया, ईराक में भी देखने को मिल जाता है। जहां अमेरिका ने कई तरह के गुटों को हथियार और पैसा देकर इन देशों को आज भी अस्थिर कर रखा है। यहां भी कारण सिर्फ इन देशों की तेल संपदा है।

न देशों में विवाद के लंबा खिंचने का दूसरा कारण अमेरिका और रूस की वर्चस्व की लड़ाई भी है। सीरिया, ईरान, इराक, लीबिया हर जगह इन दोनों के अपने-अपने गुट हैं जिन्हें यह पैसे से लेकर हथियार देते हैं। बीते कुछ सालों तक इस क्षेत्र में अमेरिका का एकछत्र राज था मगर अब रूस उसे कड़ी चुनौती दे रहा है। सीरिया से भी अमेरिका द्वारा फंडेड आईएसआईएस को भागना पड़ा। लीबिया में भी पहले रूस ने हफ्तार को अपना समर्थन दे रखा था। मगर जब हफ्तार ने अमेरिकी खेमे को चुन लिया तब रूस ने सस्ते तेल का मोह छोड़कर अपने नये-नवेले दोस्त तुर्की को खुश करने के लिए अल सिराज के समर्थन में आ गया।

ताजा घटनाक्रम इस प्रकार है कि पिछले दिनों तुर्की और रूस की कोशिशों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तहत जर्मनी फ्रांस आदि देशों की अगुवाई में बर्लिन में एक बैठक का आयोजन किया गया जहां समझौते पर हस्ताक्षर होने थे। मगर हस्ताक्षर करने से ठीक पहले हफ्तार वहां से भाग गया। जिसके बाद तुर्की ने अपनी असेंबली में एक रिजोल्यूशन पास किया जिसमें यह तय किया गया कि लीबिया की गवर्नमेंट ऑफ नेशनल अकॉर्ड की अल सिराज सरकार को बचाने के लिए तुर्की वहां पर अपनी सेना भेजेगा और अब टर्की ने अपने सैनिक लीबिया में तैनात कर दिए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तुर्की की सेना लिबिया नेशनल आर्मी से अधिक मजबूत है और अनुशासित भी, मगर यह कहना जल्दबाजी होगी कि तुर्की यहां से जल्दी निकल जाएगा या वह जीत जाएगा। क्योंकि हफ्तार के पास भी मजबूत सैन्य शक्ति है, अमेरिका निर्मित मिसाइल और रॉकेट हैं।

सके अलावा लीबिया के पुराने फाइटर जेट भी हफ्तार की सेना के पास है। साथ ही मिस्र, सऊदी अरब, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका का समर्थन भी हफ्तार को प्राप्त है। अब देखना यह है कि तुर्की के मैदान में उतरने के बाद उपरोक्त देश खुलकर हफ्तार को समर्थन देते हैं या हफ्तार के समर्थन में सैन्य सहायता करते हैं या तटस्थ रहते हैं। यदि अमेरिका, मिस्र, सऊदी अरब आदि हफ्तार की सहायता करते हैं तो देखने वाली बात यह भी होगी कि तुर्की के समर्थन में रूस आता है या नहीं। उम्मीद तो यही है तुर्की ने इन सारी बातों को मद्देनजर रखते हुए ही इतना बड़ा जोखिम लिया होगा।

वाल उठता है कि तुर्की लीबिया में इतना हस्तक्षेप क्यों कर रहा है? इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि तुर्की मुस्लिम वर्ल्ड का नेता बनना चाहता है। इसके पहले तुर्की ने सोमालिया में भी हस्तक्षेप किया था और वहां शांति की स्थापना की थी। म्यांमार में भी रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में आवाज बुलंद की थी। कश्मीरी मुसलमानों के लिए भी तुर्की मुखर था। मगर सिर्फ यही कारण है ऐसा कहना मुश्किल है। एक कारण यह भी हो सकता है कि अरब और यूरोप के बीच तुर्की एक दरवाजे की तरह है क्योंकि तुर्की का आधा हिस्सा जहां यूरोप में आता है वही आधा हिस्सा एशिया में।

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जाहिर सी बात है तेल की सप्लाई तुर्की के रास्ते से ही होनी है। एक कारण यह भी हो सकता है कि लीबिया की अराजकता का जो फायदा यूरोपीय देश उठा रहे थे तुर्की वहां अपना प्रभुत्व जमाकर स्वयं उठाना चाहता हो। एक कारण यह भी है कि लीबिया में तुर्की के कई उपक्रम हैं जिन्हें खलीफा हफ्तार लगातार निशाना बना रहा है। इसके अलावा हो सकता है तुर्की का पीछा उसका अतीत कर रहा हो। मेरे कहने का मतलब है तुर्की या एर्दोगान शायद नॉस्टैल्जिया के शिकार होकर यह कवायद कर रहे हैं। क्योंकि अतीत में लीबिया पर ऑटोमन एंपायर का शासन था। लीबिया ऑटोमन एंपायर की टेरिटरी था जिस पर एक लंबे संघर्ष के बाद इटली ने कब्जा कर लिया था।

1947 में इटली ने लीबिया को फ्रांस और ब्रिटेन को सौंप दिया और खुद लीबिया छोड़ दिया। 24 दिसंबर 1951 को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर आज़ादी के बाद वर्तमान लीबिया का गठन हुआ और स्वतंत्र लीबिया के पहले शासक इदरीस बने। 1957 में तेल की खोज हुई फिर लीबिया में खुशहाली आ गई। इन्हीं इदरीश का तख्ता पलट करके गद्दाफी सत्ता पर काबिज़ हुआ था। ऐसा भी हो सकता है तुर्की प्रशासन अपने उन बीते दिनों की निशानी को बचाने या पाने की कोशिश कर रहा हो। जो भी हो अरब देशों का लम्बे समय तक अस्थिर रहना अरब दुनिया की जनता के लिए तो दुखद है ही, ये संघर्ष पूरी दुनिया के लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन सकता है।

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