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राजनीति

अमेरिका-ईरान तनाव के बीच भारत बयान तो दे रहा है, लेकिन कूटनीतिक दुनिया में उपेक्षित क्यों है हमारा देश

Nirmal kant
11 Jan 2020 5:57 AM GMT
अमेरिका-ईरान तनाव के बीच भारत बयान तो दे रहा है, लेकिन कूटनीतिक दुनिया में उपेक्षित क्यों है हमारा देश
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भारत ने सिर्फ शांति बनाए रखने की औपचारिक अपील भर की है, जबकि यही मौका था कि भारत अपनी शक्ति का खुलकर प्रदर्शन करता। अमेरिका और ईरान दोनों से बार्गेनिंग करता और विश्व के बदलते समीकरण में अपना स्थान सुनिश्चित करता...

अबरार खान का विश्लेषण

किसी भी देश की कामयाबी के पीछे उस देश की कूटनीति और विदेशनीति का बड़ा हाथ होता है। अमेरिका तथा ईरान के बीच मचे घमासान में भारत की क्या कूटनीति है और इसका क्या महत्व है, इसे समझने की कोशिश करते हैं।

रान की तरफ से एक बयान आया कि 'यदि भारत शांति का प्रयास करता है तो हम उसका स्वागत करेंगे।' दरअसल कोई भी देश अपने ऊपर यह इल्जाम नहीं लेता कि वह युद्ध चाहता है इसलिए इस तरह का बयान देना कि हम शांति प्रयासों का स्वागत करते हैं शुद्ध डिप्लोमेसी है। ईरान के इस बयान पर भारतीय मीडिया फूला नहीं समा रहा है वह मोदी के गुण गा रहा है उसे लग रहा है कि भारत विश्वगुरु बन गया है और दो देशों के बीच के तनाव को भारत की कोशिशों से कम किया जा सकता है।

सा होता तो ये बहुत महत्वपूर्ण बात होती। लेकिन सवाल यह है कि भारत ने अब तक किया क्या है ? क्या बैक चैनल डिप्लोमेसी में भारत ने अमेरिका को या ईरान को कोई संकेत दिया है या सार्वजानिक रूप से कोई ऐसा बयान दिया है जिससे लगे कि भारत भी विश्व की राजनीति में कोई स्थान रखता है ? हकीकत ये है कि भारत ने अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है। हालांकि मेरा मानना है कि भारत के पास करने के लिए ज्यादा कुछ है भी नहीं, क्योंकि न तो हम ईरान के साथ सीमा साझा करते हैं न ही अमेरिका के साथ।

ब अमेरिका ने एयर स्ट्राइक में जनरल कासिम सुलेमानी को मार दिया तो ईरानियों का गुस्सा फूट पड़ा। ईरान ने बदला लेने की ठान ली और बकायदा बयान देकर धमकाया। तब अमेरिका को शायद स्थिति की गंभीरता का एहसास हुआ। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने पाकिस्तानी जनरल बाजवा, सऊदी, कुवैत, इराक, टर्की सहित अन्य कई देशों से फोन पर बात की और उनका सहयोग मांगा। लेकिन ऐसी कोई खबर नहीं है कि ट्रंप या माइक पॉम्पियो ने भारत से भी किसी तरह का समर्थन या सहयोग मांगा हो। इससे पता चलता है कि इन दोनों देशों से हमारे किस तरह के रिश्ते हैं और उनके लिए हमारा कितना महत्व है।

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भारत ने इस विषय में सिर्फ शांति बनाए रखने की औपचारिक अपील भर की है। जबकि यही मौका था कि भारत अपनी शक्ति का खुलकर प्रदर्शन करता। अमेरिका और ईरान दोनों से बार्गेनिंग करता और विश्व के बदलते समीकरण में अपना स्थान सुनिश्चित करता लेकिन भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया। इस तनावपूर्ण माहौल में जहां रूस ने खुलकर ईरान का साथ दिया। वहीं मौजूदा हालात पर बात करने और अमेरिका को एक तरह से खुला मैसेज देने के लिए सीरिया के राष्ट्रपति से मिलने रूस के राष्ट्रपति स्वयं गए। ध्यान रहे कि सीरिया की जंग में रूस, सीरिया और ईरान एक साथ हैं।

दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा की गई कार्यवाई को ईराक ने अपनी संप्रभुता पर हमला मानते हुए संयुक्त राष्ट्र में इसकी शिकायत भी कर दी। ईराक यहीं नहीं रुका बल्कि उसने अपनी संसद में बहुमत से प्रस्ताव पास कर अमेरिका को ईराक से निकल जाने को भी कह दिया। ईराकी प्रधानमंत्री आदिल अब्दुल मेहदी ने पार्लियामेंट में बताया कि कासिम सुलेमानी का कत्ल उस वक्त किया गया जब वे ईरान और सऊदी के बीच तनाव को कम करने के लिए ईराक आये थे।

राक के पीएम ने आगे बताया कि हमने सऊदी का शांति प्रस्ताव ईरान को दिया था जिसका सकारात्मक उत्तर लेकर जनरल कासिम ईराक आए थे। मेरी मुलाक़ात कासिम सलेमानी से तय थी लेकिन इसके पहले ही अमेरिका ने उन्हें मार दिया। यह पूरी तरह से राजनीतिक हत्या है। देखा जाए तो ईराक भी खुलकर ईरान के साथ है।

तुर्की के प्रेसीडेंट ने जनरल कासिम की मौत पर दुख व्यक्त करते हुए अमेरिका को चेतावनी दी है कि इसके परिणाम भयानक होंगे। ज्ञात रहे कि जनरल कासिम सुलेमानी एक कमांडर होने के साथ-साथ बेहतरीन कूटनीतिज्ञ भी थे। वह ईरान और सऊदी के बीच संधि स्थापित करने के लिए प्रयासरत थे। यह जनरल कासिम और ईरान की कूटनीति का ही कमाल है कि अमेरिका जैसे सुपर पावर के सामने ईरान के साथ उसके पड़ोसी सीरिया, कट्टर दुश्मन इराक, तुर्की, चीन, रूस, पाकिस्तान जैसे मुल्क डटकर खड़े हैं।

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने साफ कहा कि वह इस क्षेत्र में अशांति पैदा करने वाली किसी भी मुहिम का साथ हरगिज नहीं देंगे। उन्होंने आगे कहा कि ईरान के साथ हमारे पुराने ताल्लुकात हैं। जनरल कासिम की मौत पर हमें और हमारी आवाम को दुख है। यह बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। हमें लगता है इसका असर अफगानिस्तान पर भी पड़ेगा।

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पाकिस्तान की कूटनीतिक सरगर्मी का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि इस घटनाक्रम के बाद जहां अमेरिका ने पाकिस्तान से संपर्क साधा और सहयोग मांगा वहीं पाकिस्तान की विदेश मंत्री महमूद कुरैशी ने भी ईरानी विदेश मंत्री जव्वाद जरीफ से फोन पर बात की। पाकिस्तान ने भी अपनी सरजमीन किसी भी पक्ष को एक दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल न करने का वादा किया।

स तरह देखा जाए तो इस समय विश्व में दूसरे विश्व युद्ध के बाद बहुत कुछ बिलकुल पहली बार हो रहा है वो चाहे ईरान का अमेरिका जैसी सुपर पॉवर को ललकारना हो या फिर पाकिस्तना जैसे अवसरवादी का अमेरिका को ऐन मौके पर ठेंगा दिखाना हो।

मुझे याद 9-11 के बाद जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की थी उस समय पाकिस्तान ने अमेरिका की मदद की थी। बदले में अमेरिका से अरबों डॉलर की मदद ली लेकिन पाकिस्तान को इसके कारण अफगानिस्तान और खुद पाकिस्तान की जनता की नाराजगी झेलनी पड़ी। अफगानिस्तान से जहां आज अमेरिका अपना बोरिया बिस्तर समेटकर निकलने के जुगत में है। वहीं पाकिस्तान आज भी अफगान समर्थक लड़ाकों के हमले झेलने को मजबूर है। ईरान के साथ युद्ध में अमेरिका के साथ न जाने का शायद यह भी एक कारण है।

फिलहाल ईरान मामले में पाकिस्तान ने औपचारिक बयान देकर किनारा करने के बजाय खुलकर साथ दिया है जो कि ईरान की कूटनीतिक जीत है। पाकिस्तान ईरान के साथ 959 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा को साझा करता है। ईरान से जुड़ी सीमा पर पाकिस्तान के तीन एयरपोर्ट हैं जो अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकते थे। अफगान युद्ध के समय भी इन तीनों एयरबेस का कंट्रोल अमेरिकी हाथों में ही था।

ह सब देखते हुए भारत के पूर्व में डिप्लोमेट रहे एम. के. भद्राकुमार ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए अपने लेख में लिखा है कि भारत के बगल में इतना कुछ हो गया, फिर भी भारत के प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री को किसी ने कॉल तक नहीं किया। यह कूटनीतिक असफलता है। कई विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि अमेरिका ईरान की संभावित लड़ाई में अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत पड़ेगी। बदले में अमेरिका भी पाकिस्तान की मदद करेगा। इससे आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई और अफगानिस्तान में भारतीय हितों को नुकसान पहुंचेगा।

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हरहाल ईरान ने चैलेंज के मुताबिक इराक स्थित अमेरिकन एयरवेस पर हमला कर दिया है। कहने में तो बड़ी छोटी बात है कि हमला कर दिया, मगर यह बहुत बड़ी बात है क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद आजतक कभी ऐसा सुनने में नहीं आया कि किसी देश ने अमेरिका पर या उसकी आर्मी पर हमला किया हो। हालांकि ईरान अमेरिका और इजरायल के बीच प्रॉक्सी युद्ध दशकों से चल रहा है लेकिन इस तरह खुलकर दोनों एक दूसरे के खिलाफ पहली बार आए हैं जहां अमेरिका ने साहसी कदम उठाते हुए ईरान के नंबर दो की सबसे बड़ी शख्सियत पर हमला कर मार डाला। वहीं ईरान ने भी खुलेआम चुनौती देकर उसके एयरवेस पर बैलेस्टिक मिसाइलें दागी।

स हमले के बाद जहां ईरान का दावा है कि उसने सामरिक क्षति पहुंचाने के साथ-साथ 80 फौजियों को भी मार गिराया है वहीं डोनाल्ड ट्रंप 'सो फार सो गुड' का स्लोगन इस्तेमाल करते हुए जाहिर किया कि सब कुछ ठीक है कोई नुकसान नहीं पहुंचा है। बहरहाल अमेरिका की मान लेते हैं कि उसे कोई नुकसान नहीं हुआ है। मगर यह नुकसान कम नहीं है छोटे से देश ने सुपर पॉवर छवि को न सिर्फ ललकारा बल्कि उस पर बैलेस्टिक मिसाइलें दागने की जुर्रत भी कर डाली. ईरान की बदले की कार्रवाई के बाद जहां सऊदी अरब और इजरायल के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गई हैं वहीं ईरान की जनता में बदला लेने की खुशी साफ देखी जा सकती है।

हालांकि कुछ लोग इसे भी प्रॉक्सी युद्ध कह रहे हैं। उनका दावा है कि जंग नहीं होगी वहीं दूसरी तरफ भारत के रक्षा विशेषज्ञ कमर आगा का कहना है कि यह जंग भले ही आर-पार की जंग न हो मगर यह खुली जंग है। जो भी हो अबतक के घटनाक्रम से यह साफ हो गया है कि दोनों ही देश जंग नहीं चाहते, लेकिनर पीछे हटते हुए नजर आना भी नहीं चाहते। मेरे लिए ये बात हैरान करने वाली बात है कि अमेरिका के दो एयरबेस पर ईरान दर्जनभर से अधिक मिसाइलें दागकर तबाह कर देता है और अमेरिका का रिएक्शन "सो फॉर सो गुड" आता है, निश्चित रूप से ये बदले वैश्विक शक्ति संतुलन की और एक महत्वपूर्ण इशारा है।

फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन ने ईराक, ईरान सऊदी, ओमान के पश्चमि छोर से उड़ान भरने पर रोक लगा दी। ईरान द्वारा अमेरिकी अड्डों पर हमला करने के उपरांत ईरानी विदेश मंत्री जव्वाद जरीफ ने कहा हम जंग नहीं चाहते मगर अपनी संप्रभुता की रक्षा करना हमारा अधिकार है। ज्ञात रहे जव्वाद जरीफ बहुत ही नपी-तुली बात करते हैं।

राकी कार्रवाई के बाद पूरी दुनिया के घटनाक्रम में तेजी देखने को मिली। जहां एक तरफ जापानी पीएम शिंजो आबे ने सऊदी, ओमान, अरब अमीरात का प्रस्तावित दौरा रद्द कर दिया, वहीं अमेरिका और पाकिस्तान ने रक्षा मंत्रालय की विशेष बैठकें बुलाई। इसके साथ ही ईराक स्थित अन्य अमेरिकी सन्य ठिकानों पर भी चहल पहल बढ़ गई। खबर है कि ईराक द्वारा आंखें फेर लेने के बाद अमेरिकी फौजों ने ईराक से कूच करना शुरू कर दिया है।

स पर अमेरिकी रक्षा मंत्रालय बयान दिया कि हम न तो ईरान की धमकियों से डरते हैं न ही खाड़ी छोड़कर जा रहे हैं। हमारी फौजें अगर ईराक से हटती हैं तो अन्य स्थानों को मजबूत करेंगी। ध्यान रहे कि पूरे अरब में अमेरिका के दर्जनों अड्डे हैं। टर्की में 1700, सीरिया में 500-1000, ईराक में 5000, जॉर्डन में 3000, कुवैत में 13000, अफगानिस्तान में 12000, बहरीन में 7000, सऊदी में 3000, कतर में 10000, यूएई में 5000 फौजी किसी न किसी रूप में तैनात हैं। ईराक से निकलने वाली फौजों को कुवैत के अड्डे पर भेजा जा रहा है।

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रान के पास अमेरिका ही नहीं बल्कि आधी दुनिया की सांस रोक देने वाली कमजोर नस होर्मुज स्ट्रेट भी है। होर्मुज स्ट्रेट नाम है उस समुद्दी पट्टी की जो फारस की खाड़ी को अरब सागर से जोड़ती है। इस क्षेत्र पर ईरान का दबदबा है। होर्मुज स्टेट के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाइए कि सऊदी, कतर समेत कई देश इसी होर्मुज स्ट्रेट के किनारे बसे हैं। उनका और उनके साथ आधी दुनिया का पेट्रो, गैस समेत अन्य आयात निर्यात इसी होर्मू स्टेट से होता है। ईरान कुछ भी न कर पाने की स्थिति में भी होर्मुज स्ट्रेट को डिस्टर्ब कर ही सकता है जिससे दुनियाभर में तेल, गैस समेत इनसे जुड़े अन्य उत्पादों पर गहरा असर पड़ेगा। यदि अमेरिका ने ईरान के साथ जंग का पूरा मन बना ही लिया है तो इसका एक मात्र कारण होर्मू स्टेट पर कब्जा जमाना ही होगा।

दि होर्मुज स्टेट सुरक्षित रहता है। कार्रवाई सिर्फ अमेरिका और ईरान तक सीमित रहती है तब भी भारत पर इसका असर खतरनाक होगा क्योकि जहां एक तरफ हम ईरान से तेल गैस आदि आयात करते हैं वहीं चावल, चायपत्ती और मसालों का निर्यात भी करते हैं। तमाम पाबंदियों के बावजूद पिछले साल ईरान के साथ हमारा कारोबार 24920 करोड़ रुपए का था।

सके अलावा सऊदी हमारा बहुत बड़ा व्यापारिक साझीदार। सऊदी समेत सभी अरब मुल्कों में हम इसी होर्मुज रूट से ही निर्यात करते हैं। यदि युद्ध होता है तो पूरे अरब के साथ हमारा व्यपार भी प्रभावित होगा जिसका खामियाजा हमारी डूबती अर्थ व्यवस्था को भुगतना पड़ेगा। सारे नफा-नुकसान के अलावा सबसे बड़ा नुकसान है कि हम कूटनीतिक रूप से न अमेरिका के करीब हो पाए, न ही पाकिस्तान को अमेरिका के करीब जाने और मदद मांगने से रोक पाए। हमने विकल्प बनने का मौका गंवा दिया। उसपे भी तुर्रा ये कि हम विश्वगुरू बनेंगे।

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