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भारत का बजट अमेरिका में बनता है का रहस्य बताने वाले अर्थशास्त्री नहीं रहे
किस तरह अमेरिका के नेतृत्व में विश्वव्यवस्था अपने दलालों को भारत का वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री बनाती है, इसका खुलासा डॉ. अशोक मित्र ने ही किया था...
उन्हें याद कर रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास
लाल सलाम कामरेड। कल सुबह दक्षिण कोलकाता के एक निजी अस्पताल में जीवित किंवदन्ती प्रख्यात अर्थशास्त्री,समाज विज्ञानी डॉ.अशोक मित्र का निधन हो गया।
कोलकाता से बाहर रहने की वजह से लंबे समय से उनसे मुलाकात नहीं हो पायी। वृद्धावस्था और अस्वस्थता के बावजूद मरण पर्यंत अपनी विचारधारा और सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अटूट रही है।
कोलकाता के तमाम जीवन्त विमर्श में उनकी उपस्थिति लगभग अनिवार्य रही है। वे पार्टीबद्ध नहीं थे, न ही उनका कोई पाखंड था।
उन्होंने हमेशा दोटूक शब्दों में सच को सच कहा है और इसलिये वे सत्ता वर्ग की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। उन्होंने बंगाल के तमाम स्वनामधन्य मनीषियों की तरह सत्ता से अपना टांका कभी नहीं जोड़ा।
अशोक मित्र न सिर्फ कामरेड ज्योति बसु के पहली वाम मोर्चा सरकार के वित्तमंत्री थे, बल्कि वे इंदिरा गांधी के राष्ट्रीयकरण आधारित समाजवादी दौर के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी थे।
अर्थशास्त्री वे जितने बड़े थे, उससे भी बड़े वे समाजशास्त्री थे। अद्भुत लेखक थे वे।
समयांतर के लिए जब भी हमने उनके लिखे के अनुवाद के लिए अनुमति मांगी,उन्होने तत्काल दे दी। उनकी आत्मकथा पैरोट्स टेल में उन्होंने भारत विभाजन और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के मूल में साम्राज्यवादी सामंती माफिया गठजोड़ का पर्दाफाश किया है।
उन्होंने पहली बार बताया कि भारत का बजट किस तरह अमेरिका में बनता है और किस तरह अमेरिका के नेतृत्व में विश्वव्यवस्था अपने दलालों को भारत का वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री तक बनाता है।
उदारीकरण के लिए विश्वबैंक के अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री के रुप में नियुक्ति का उन्होंने खुलासा किया है। न उनके खिलाफ कोई मानहानि का मुकदमा चला न उन्होंने आज के क्रांतिकारियों की तरह माफी मांगी और न मनमोहन सिंह जैसे लोगों ने उनके दावे का कोई खंडन किया।
कामरेड ज्योति बसु के मंत्रिमंडल से उनके इस्तीफे को भारत में वाम विचलन का निर्णायक मोड़ कहा जा सकता है। जिस वर्चस्ववाद और पाखंड की वजह से भारत में वाम आंदोलन के विघटन से मेहनतकश बहुसंख्य आम जनता के हक हकूक की लड़ाई सिरे से खत्म हो गयी, उसका शायद पहली बार विरोध डॉ. अशोक मित्र ने ही किया था।
लेकिन परिवर्तन के नाम मौकापरस्ती का रास्ता न अपनाकर वे बाहैसियत एक लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता बतौर आजीवन सक्रिय रहे और करीब चार दशकों में एक बार भी राजनीतिक मौकापरस्ती का रास्ता नहीं चुना।
सत्ता वर्ग ने इसीलिए हमेशा उनकी उपेक्षा की। हम उनसे विस्तृत बातचीत करना चाहते थे, लेकिन अपनी पत्नी के निधन के बाद वे बातचीत करने की स्थिति में नहीं थे।
उन्होंने वादा किया था कि फिर कभी बात करेंगे। वह बातचीत अब कभी नहीं हो सकेगी इसका अफसोस है। रचनात्मकता ही प्रतिरोध का सबसे मजबूत हथियार है, ऐसा उन्होंने अपनी करनी और कथनी से साबित किया है।