अब यह हत्या थी या आत्महत्या, इसे आप पर छोड़ता हूँ

Update: 2017-12-03 23:14 GMT

सप्ताह के कवि में इस बार वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंह की कविता लोक के जीवट को तमाम तरह से अभिव्‍यक्‍त करती है. यहां तक कि आधुनिक तकनीक के संदर्भ भी जब केदारजी की कविता में आते हैं तो वे भी लोक की संवेदना को ही इंगित करते हैं. जैसे ‘घास’ कविता में घास लोक जनों का ही प्रतीक है क्‍योंकि केदार जी के शब्‍दों में ‘ दुनिया के तमाम शहरों से खदेडी हुई, जिप्‍सी है वह’ और वे उसके धुंधले ‘मिस्‍ड-काल’ मोबाइलों में देखने की बात करते हैं.

किसानों की आत्‍महत्‍या को लेकर केदार जी की एक मार्मिक कविता है ‘फसल'. इसमें वे उनकी लगातार बिगडती हालत को बयां करते हैं. कवि की निगाह में आज भी किसान ‘सूर्योदय और सूर्यास्‍त के विशाल पहियों वाली' गाडी से चलता है पर विकास के इस मोड़ पर उसकी यह गाडी अटक जा रही है और किंकर्तव्‍यविमूढ़ वह नयी द्रुतगामी अंधी सभ्‍यता के चक्‍कों तले कुचल दिया जाता है.

पर कवि यहां इस हत्‍यारी सभ्‍यता की परिभाषाओं से सहमत नहीं है, इसलिए वह तय नहीं कर पाता कि यह ‘हत्‍या थी या आत्‍महत्‍या’. नयी सभ्‍यता के आत्‍मघाती चकाचौंध और गति की इस मार को आलोक धन्‍वा ने भी अपनी एक कविता में अभिव्‍यक्‍त किया है. आलोक कहते हैं कि हत्‍या और आत्‍महत्‍या को एक साथ रख दिया गया है तुम फर्क कर लेना साथी. ‘फसल’ कविता में केदार जी कहते हैं –‘अब यह हत्‍या थी या आत्‍महत्‍या/ यह आप पर छोडता हूं’.

नया तकनीकी समय कई मामलों में निराश करता है तो उसके गर्भ में संभावनाएं भी ढेरों हैं, पर इस तरह की संभावना के बारे में तो कोई कवि ही सोच सकता है- ‘यह क्‍लोन-समय है/कहीं ऐसा न हो/ कोई चुपके से रच दे/ एक क्‍लोन पृथ्‍वी.'

आइए पढ़ते हैं केदारनाथ सिंह की कविताएं - कुमार मुकुल

 दाने
नहीं
हम मण्डी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दाने॔

जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे
जाते-जाते
कहते जाते हैं दाने

अगर लौट कर आये भी
तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे
अपनी अन्तिम चिट्ठी में
लिख भेजते हैं दाने

इसके बाद महीनों तक
बस्ती में
कोई चिट्ठी नहीं आती।


 फसल
मैं उसे बरसों से जानता था
एक अधेड़ किसान
थोड़ा थका
थोड़ा झुका हुआ
किसी बोझ से नहीं
सिर्फ़ धरती के उस सहज गुरुत्वाकर्षं से
जिसे वह इतना प्यार करता था
वह मानता था--
दुनिया में कुत्ते बिल्लियाँ सूअर
सबकी जगह है
इसलिए नफ़रत नहीं करता था वह
कीचड़ काई या मल से

भेड़ें उसे अच्छी लगती थीं
ऊन ज़रूरी है--वह मानता था
पर कहता था--उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है
उनके थनों की गरमाहट
जिससे खेतों में ढेले
ज़िन्दा हो जाते हैं

उसकी एक छोटी-सी दुनिया थी
छोटे-छोटे सपनों
और ठीकरों से भरी हुई
उस दुनिया में पुरखे भी रहते थे
और वे भी जो अभी पैदा नहीं हुए
महुआ उसका मित्र था
आम उसका देवता
बाँस-बबूल थे स्वजन-परिजन
और हाँ, एक छोटी-सी सूखी
नदी भी थी उस दुनिया में-
जिसे देखकर-- कभी-कभी उसका मन होता था
उसे उठाकर रख ले कंधे पर
और ले जाए गंगा तक--
ताकि दोनों को फिर से जोड़ दे
पर गंगा के बारे में सोचकर
हो जाता था निहत्था!

इधर पिछले कुछ सालों से
जब गोल-गोल आलू
मिट्टी फ़ोड़कर झाँकने लगते थे जड़ों से
या फसल पककर
हो जाती थी तैयार
तो न जाने क्यों वह-- हो जाता था चुप
कई-कई दिनों तक
बस यहीं पहुँचकर अटक जाती थी उसकी गाड़ी
सूर्योदय और सूर्यास्त के
विशाल पहियोंवाली

पर कहते हैं--
उस दिन इतवार था
और उस दिन वह ख़ुश था
एक पड़ोसी के पास गया
और पूछ आया आलू का भाव-ताव
पत्नी से हँसते हुए पूछा--
पूजा में कैसा रहेगा सेंहुड़ का फूल?
गली में भूँकते हुए कुत्ते से कहा--
'ख़ुश रह चितकबरा,
ख़ुश रह!'
और निकल गया बाहर

किधर?
क्यों?
कहाँ जा रहा था वह--
अब मीडिया में इसी पर बहस है

उधर हुआ क्या
कि ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़
कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज़ आई
और कहते हैं-- क्योंकि देखा किसी ने नहीं--
उसे कुचलती चली गई

अब यह हत्या थी
या आत्महत्या--इसे आप पर छोड़ता हूँ
वह तो अब सड़क के किनारे
चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था
और उसके होंठों में दबी थी
एक हल्की-सी मुस्कान!

उस दिन वह ख़ुश था।

सन 47 को याद करते हुए
तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर में लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा

तुम्हें याद है शुरू से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियाँ
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में

तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?

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