सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है

Update: 2017-06-29 10:50 GMT

मुझे याद है वो दिन जब अपने रंगकर्मियों को सफ़ेद कुर्ता देते हुए कहा था ‘ये है अपना कफ़न’! सभी कलाकारों ने दंगों की नफरत व घावों को अपनी कला से प्यार और मानवीय ऊष्मा से भर दिया....

मंजुल भारद्वाज, रंगकर्मी

नब्बे का दशक देश, दुनिया और मानवता के लिए आमूल बदलाव का दौर रहा। 'औद्योगिक क्रांति' के पहिये पर सवार होकर मानवता ने सामन्तवाद की दासता से निकलने का ख्वाब देखा, पर नब्बे के दशक तक आते आते साम्यवाद के किले ढह गए और 'औद्योगिक क्रांति' सर्वहारा की मुक्ति का मसीहा होने की बजाए पूंजीवाद का खतरनाक, घोर शोषणवादी और अमानवीय उपक्रम निकला, जिसने सामंती सोच को न केवल मजबूती दी बल्कि विज्ञान के आविष्कार को तकनीक देकर भूमंडलीकरण के जरिये दुनिया को एक शोषित ‘गाँव’ में बदल दिया. ऐसे समय में भारत भी इन वैश्विक प्रक्रियाओं से अछूता नहीं था.

एकध्रुवीय वैश्विक घटनाओं ने भारत की उत्पादक क्षमताओं को तहस—नहस करना शुरू किया. अपने हकों की मांग करने वाले 66 हजार मिल मजदूरों को पूंजीवादी षड्यंत्र के तहत काम से निकाल दिया गया और मिलों पर ताला लग गया। मुंबई को सिंगापुर और शंघाई बनाने की साज़िश को अमली जामा पहनाया गया, जो आज मिलों की जगह पर बड़े बड़े ‘माल’ और ‘टावर’ के रूप में मौजूद हैं.

ऐसे विकट और मानवीय संकट के समय में जनता को एक ऐसे मंच की ज़रूरत थी, जो उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का मौक़ा दे. जो उनके बीच उनकी अपनी बात को जन जन तक पहुंचाए! इसलिए एक रंग चिंतन की शुरुआत हुई और एक नये रंग सिद्धांत का सूत्रपात हुआ. इस रंग सिद्धांत ने पूंजीवाद के शोषण और दमनकारी ‘कला के लिए कला’ के कलात्मक भ्रम की साज़िश का भांडा फोड़ किया और नए रंग तत्व दुनिया के सामने रखे।

12 अगस्त 1992 को ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस' नाट्य दर्शन का सूत्रपात हुआ। पूंजीवाद के अपने शोषण के तरीके हैं, जो अक्सर धर्म,अज्ञान,राष्ट्रवाद और अन्य रुढ़िवादी परम्पराओं के तहत अपने कदम पसारता है. भारतीय संविधान के सबसे पवित्र और भारत के अस्तित्व के लिए आधारभूत सिद्धांत ‘सेकुलरवाद’ को खुलेआम चुनौती दी और धार्मिक कट्टरवादियों की उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद ढांचा ढहा दिया और देश, मुंबई साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया.

ऐसे नाजुक दौर में ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस' के प्रतिबद्ध कलाकारों ने अपनी जान पर खेलकर मुम्बई के चप्पे चप्पे पर जाकर ‘दूर से किसी ने आवाज़ दी’ नाटक खेला. मुझे याद है वो दिन जब अपने रंगकर्मियों को सफ़ेद कुर्ता देते हुए कहा था ‘ये है अपना कफ़न’! सभी कलाकारों ने दंगों की नफरत व घावों को अपनी कला से प्यार और मानवीय ऊष्मा से भर दिया।

मेरे मन में हर वो कलाकार सांस लेता है जिसने अपने कलात्मक दायित्व को निभाया! ये शोषण, हिंसा और धार्मिक कट्टरवाद से लम्बे संघर्ष की एक छोटी सी जीत थी, पर ये जीत हमें और हमारे कलात्मक सिद्धांत में विश्वास भर गई और ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस' रंग सिद्धांत को जन स्वीकार्यता दे गयी.

भारतीय परिप्रेक्ष्य में जातिवाद,पितृसत्तात्मक समाज,रूढ़ीवाद और धार्मिक कट्टरवाद से लैस एक मध्यम वर्ग के रूप में मौजूद हैं.‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस' ने इन चुनौतियों का एक योजनाबद्ध तरीके से सामना किया. मसलन बच्चों के अधिकार की एक लम्बी लड़ाई लड़ी जो आज भी जारी है.

'थिएटर ऑफ़ रेलेवंस'‘नाटक से बदलाव आता है’ की प्रयोगशाला है। उस बदलाव को आप छूकर, नाप कर देख सकते हैं। ‘मेरा बचपन’ नाटक के 12000 से ज्यादा प्रयोग और इस नाटक के जरिये पूरे देश में 50000 से ज्यादा बाल मजदूरों का जीवन बदला जो आज स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। कुछ तो आज कॉलेज जा रहे हैं और कुछ पेशेवर रंगकर्म कर रहे हैं।

जीवन को नाटक से जोड़कर रंग चेतना का उदय करके उसे ‘जन’ से जोड़ा है। अपनी नाट्य कार्यशालाओं में सहभागियों को मंच,नाटक और जीवन का संबंध,नाट्य लेखन,अभिनय, निर्देशन, समीक्षा, नेपथ्य, रंगशिल्प, रंगभूषा आदि विभिन्न रंग आयामों पर प्रशिक्षित किया है और कलात्मक क्षमता को दैवीय से वरदान हटाकर कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तरफ मोड़ा है। 2

4 सालों में 16 हजार से ज्यादा रंगकर्मियों ने 1000 कार्यशालाओं में हिस्सा लिया। पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला– कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिसकर ख़त्म हो जाते हैं. अब तक हमने 28 नाटकों का 16,000 से ज्यादा बार मंचन किया है.

पितृसत्ता की सत्ता को अपने आधा दर्जन से ज्यादा नाटकों से चुनौती दी,घरेलू हिंसा पर नाटक ‘द्वंद्व’, अपने अस्तित्व को खोजती हुई आधी आबादी की आवाज़ बुलंद की नाटक ‘मैं औरत हूँ’ ने और ‘लिंग चयन’ के विषय को राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बनाया नाटक ‘लाडली’ ने!

“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने भारतीय मानस में बसी औपनिवेशिक समझ को धीरे धीरे बदला. थियेटर एक अनुभव है। जो कहीं भी, किसी भी समय सृजित एवं पुनः सृजित किया जा सकता है, किया जाता है। थियेटर में समय और स्पेस को मानवीय अनुभवों से जीवित किया जाता है। इसीलिए थियेटर में टाइम और स्पेस मौलिक पहलू हैं।

थिएटर करने के लिए व्यवसायिकता के नाम पर बड़े बड़े औपनिवेशिक संसाधनों या रंग ग्रहों की ज़रूरत नहीं है. थिएटर की बुनियादी ज़रूरत है एक परफ़ॉर्मर और एक दर्शक यहीं हमारी मौलिक और आधारभूत ज़रूरत है. रंग सिद्धांत के अनुसार रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित होने की बजाय दर्शक और लेखक केन्द्रित हो क्योंकि दर्शक सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है. दर्शक के मुद्दों और सरोकारों को अपना मिशन बनाया.

भूमंडलीकरण ने दुनिया की जैविक और भौगोलिक विविधता को बर्बाद किया है और कर रहा है. इसका चेहरा बहुत विद्रूप है. इसके खिलाफ नाटक “बी-7” से थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ने अपनी वैश्विक हुंकार भरी और सन 2000 में जर्मनी में इसके प्रयोग किये.

मानवता और प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनों के निजीकरण के खिलाफ सन 2013 में नाटक “ड्राप बाय ड्राप :वाटर” का यूरोप में मंचन किया. नाटक पानी के निजीकरण का भारत में ही नहीं, दुनिया के किसी भी हिस्से में विरोध करता है.पानी हमारा नैसर्गिक और जन्मसिद्ध अधिकार है निजीकरण के लिए अंधे हो चले सरकारी तन्त्र को समझना होगा की जो सरकार अपने नागरिकों को पीने का पानी भी मुहैया ना करा सके वो संस्कार, संस्कृति की दुहाई और विकास का खोखला जुमला बंद करे.

दक्षिणपंथी पार्टियां जन आस्था, धर्म, राष्ट्रीयता, संस्कृति, संस्कार,सांस्कृतिक विरासत जैसे भावनात्मक मुद्दों का उपयोग अपने शुद्ध राजनीतिक फायदे के लिए करती हैं। भारतीय विषमताओं में सामाजिक न्याय और समता के लिए अनिवार्य एक पहल आरक्षण पर बवाल इस बात का प्रमाण है कि सवर्ण जाति के युवा अपनी प्रगति में आरक्षण को एक बाधा मानते हैं। वो विचार करने की हालत में नहीं हैं कि भारत जैसे देश में जहाँ जन्म के संयोग से बच्चों का भविष्य तय होता हो वहां आरक्षण एक न्याय संगत संवैधानिक प्रावधान है.

ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में थिएटर ऑफ रेलेवंस युवाओं की रंगकर्म में सीधी सहभागिता करवा रहा है. हम समाज में थिएटर के प्रभाव का गुणगान करते हैं, लेकिन रंगकर्म में हमारी प्रत्यक्ष भागीदारी नगण्य है। दर्शक होने के नाते नाटक के मंचन या प्रस्तुति का हम पर गहरा असर पड़ता है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से नाटक (थिएटर) में भागीदारी से हमारे व्यक्तित्व, विचार और मूल्यों में परिवर्तन होता है।

मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए नाटक मंचित किया गर्भ. नाटक मानव जाति के संघर्ष और मानवता के साथ विशद जानकारी देता है, एक मानवीय जीवन जीने की चुनौतियों के साथ संबंधित है. मानव मनोविज्ञान और अदृश्य कोकून के अस्तित्व पर सवाल है जो हम में से हर एक के आसपास राष्ट्रवाद, नस्लवाद, धर्म,जाति, प्रणाली द्वारा बुना जाता है.

धर्म, कला, साहित्य और सांस्कृतिक परम्पराएं थी मनुष्य के आपसी संवाद, मेल मिलाप और सम्पर्क कीं, पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी और साम्राज्यवादी देशों ने ‘व्यापार’ को विश्व के सम्पर्क का बुनियादी सूत्र माना, बनाया और विश्व में WTO के माध्यम से प्रस्थापित किया जिसका एक ही उद्देश्य है ‘मुनाफ़ा’.

इस संकल्पना की जड़ में मनुष्य, इंसानियत श्रेष्ठ नहीं है, सभ्यता श्रेष्ठ नहीं है मुनाफ़ा श्रेष्ठ है जिसने मनुष्य को केवल और केवल खरीद फ़रोख्त का सामान बना दिया है. ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के तत्व से संचालित नई आर्थिक नीति का आधार है बोली, बाज़ार, उपभोग और मुनाफ़ा. इस तंत्र का शिकार हमारा किसान आज आत्महत्या को मजबूर है. किसानों की आत्महत्या और खेती के विनाश पर नाटक किया ‘किसानों का संघर्ष’

कलाकारों को कठपुतली बनाने वाले इस आर्थिक तंत्र से कलाकारों की मुक्ति के लिए नाटक 'अनहद नाद-अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ यूनिवर्स' का मंचन किया. नाटक कलात्मक चिंतन है, जो कला और कलाकारों की कलात्मक आवश्यकताओं, कलात्मक मौलिक प्रक्रियाओं को समझने और खंगालने की प्रक्रिया है।

ऐसे समय में जब लोकतांत्रिक व्यवस्था की आवाज़ ‘मीडिया’ पूंजीवादियों की गोद में बैठकर मुनाफ़ा कमा रहा है, थिएटर ऑफ रेलेवंस” नाट्य सिद्धांत राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करता है बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करता है।

सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है चाहे वो सत्ता तानाशाह की हो या लोकतांत्रिक व्यवस्था वाली हो. तलवारों, तोपों या एटम बम का मुकाबला ये सत्ता कर सकती है पर कलाकार, रचनाकार, नाटककार, चित्रकार या सृजनात्मक कौशल से लबरेज़ व्यक्तित्व का नहीं. क्योंकि कलाकार मूलतः विद्रोही होता है, क्रांतिकारी होता है और सबसे अहम बात यह है कि उसकी कृति का जनमानस पर अदभुत प्रभाव होता है.

“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने जीवन को नाटक से जोड़कर रंग चेतना का उदय करके उसे ‘जन’ से जोड़ा है। इसकी रंग प्रस्तुतियाँ किसी विशेष प्रतिष्ठित रंग स्थल तक सीमित नही हैं या इन रंग स्थलों की मोहताज नहीं हैं, न ही किसी सरकारी, ग़ैर सरकारी, देशी, विदेशी संस्था से वित्तपोषित है.

इसका असली ‘धन’ है इसका मकसद और असली संसाधन है ‘दर्शक’, जिसके बूते ये हालातों के विरुद्ध ‘इंसानियत’ की आवाज़ बनकर राष्ट्रीय और वैश्विक पटल पर अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर, सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है!

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