मनोवैज्ञानिक से जानिए धर्मगुरु कैसे बनाते हैं अंधभक्त

Update: 2017-08-26 12:31 GMT

धर्म की आड़ लेकर बलात्कार, हत्या जैसे संगीन मामलों में दोषी पाए गए राम रहीम जैसे बाबाओं को इतना अटेंशन मिलने का क्या कारण है, बता रहे हैं वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉक्टर चंद्रशेखर तिवारी

बाबाओं को समाज में इतना तूल देने के मामले में कुछ लोगों को लगता है कि राम रहीम या अन्य किसी बाबा समर्थकों की लाइन में वो पहली पंक्ति में सामने दिखेंगे तो उन्हें मीडिया समेत दूसरी जगह अटेंशन मिलेगा। लाइमलाइट में आ जाएंगे, क्योंकि अभी तक तो कोई उन्हें जानता तक नहीं था। अचानक उन्हें हीरो बनने जैसा अहसास होने लगता है।

मोब मानसिकता
दूसरा इस मामले को मोब मानसिकता या भीड़ कहेंगे, यानी आपकी दिशा आप खुद नहीं तय कर रहे होते, बल्कि कोई और यह तय कर रहा होता है कि आपको क्या करना है, आप जैसे एक रिमोट से नियंत्रित होते हैं। जहां पर भी भीड़ इकट्ठा होती है वहां पर भीड़ का अपना विवेक काम नहीं कर रहा होता बल्कि वह मोब की शक्ल अख्यितयार कर लेती है। राम रहीम के मामले में उनके मैनेजर तय कर रहे हैं कि उन्हें भीड़ का इस्तेमाल कैसे करना है और इस मामले में अब तक हुई कई मौतों से यह बात साबित भी हो चुकी है।

गरीबों की भरमार
राम रहीम के भक्तों में तकरीबन 80 फीसदी लोग निम्न आय वर्ग तबके से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जिनके पास दो जून की रोटी का जुगाड़ भी ठीक से नहीं है। बाबाओं द्वारा चलाई जाने वाली संस्थाओं या आश्रम के मार्फत इनको कुछ आर्थिक मदद मिल जाती है, जैसे इनके बच्चों की शादी में कुछ मदद या फिर अन्य किसी तरह की दुर्घटनाओं या फिर त्रासदियों में इन्हें इनके आश्रमों से कुछ मदद मिल जाती है तो ये लोग सोचते हैं कि यही हमारे तारणहार हैं और ये बाबाओं के अंधभक्त बन इनके लिए मरने—मारने तक को तैयार हो जाते हैं।

सम्मान ही सबसे बड़ा सहयोग
ऐसा ही बाबा राम रहीम के मामले में भी दिख रहा है। इस स्थिति के लिए हमारी कानून और व्यवस्था काफी हद तक जिम्मेदार है। हमारे सामाजिक ढांचे में चूंकि गरीबों की स्थिति बहुत खराब है, अमीर उन्हें अपने पास नहीं फटकने देना चाहते, सामाजिक जीवन में उनकी सहभागिता तो दूर की बात है, ऐसे में अगर कोई उन्हें प्यार—दुलार से अपनी समानता में लाकर बात करता है तो जाहिर तौर पर इसका मनोवैज्ञानिक असर होता है। गरीबों को लगता है कि हमारे लिए कानून, न्याय व्यवस्था जो काम नहीं कर रही है सत्ता में बैठे लोग हमारे बारे में नहीं सोच रहे हैं, मगर देखो एक साधु हमारे लिए हद तक सोच रहा है। हमारी बेटियों की शादियों के लिए सहायता कर रहा है या फिर हमारे बच्चों के स्कूली शिक्षा में योगदान दे रहा है। बाबाओं ने गरीबों के इस मनोविज्ञान को बखूबी समझा है।

मध्यवर्ग क्यों आता है यहां
उच्च और मध्य वर्गीय लोगों के बाबाओं के अनुयायी बनने का मनोवैज्ञानिक कारण देखें तो वो है इस वर्ग में व्याप्त तनावपूर्ण जीवन। इनमें से ज्यादातर लोग जो पढ़े—लिखे, खाते—पीते, अच्छे खासे ओहदों पर हैं, चूंकि मानसिक रूप से किसी न किसी रूप से परेशान रहते हैं, तो मन की शांति की तलाश में बाबाओं के शरणागत होते हैं। धर्म के ठेकेदार और भगवान बने बैठे इन बाबाओं को पता है कि यह खाता—पीता वर्ग उनके पास सिर्फ मानसिक शांति के उपाय के लिए आता है तो वह भी उनका भरपूर फायदा उठाते हैं।

अंधविश्वास का मकड़जाल
हमारा देश अंधविश्वास में बुरी तरह जकड़ा हुआ है और इसी बात को बाबा जानते हैं। कई बार जब कोई सौ बातें बताता है तो उनमें से दो—चार बातें हम पर भी सटीक बैठ जाती हैं। ऐसा ही इन लोगों के मामले में भी होता है। मान लीजिए किसी के घर में लगातार कलेश हो और बाबा ने गृह शांति का कोइ कॉमन सा उपाय बता दिया, और उसके घर की समस्या किसी भी तरह से हल हो गई, तो वह आदमी घर समेत बाबा का अनुयायी कहें या अंध अनुयायी बन जाता है। फिर उसके मार्फत बाबा का प्रचार उसी स्टेटस के अन्य घरों तक पहुंचता है और बाबा का प्रचार भगवान की तरह होने लगता है। इस तरह अंधभक्तों की एक बड़ी फौज तैयार हो जाती है, जो अच्छे खासे पढे लिखे लोगों की होती है।

सबसे ज्यादा महिलाएं क्यों हैं भक्त
मान लीजिए आपका कोई दोस्त—साथी है और आपको उससे बात करके मानसिक शांति मिलती है या अपनी समस्याओं का समाधान मिलता है, मगर आप यह बात अपने घर में बताएंगे कि आपके फलां दोस्त के पास जा रहे हैं या फिर घर से बाहर लोग यह जानेंगे कि आप किसी लड़के—परपुरूष से मिल रही हैं तो आप पर लांछन लगने शुरू हो जाएंगे। मगर जैसे ही आप किसी बाबा—साधु के पास जाने और उनकी शिष्या बनने की बात घर या बाहर बताएंगे तो घर के साथ—साथ समाज भी आपकी वाहवाही करेगा कि देखो कितनी सभ्य और शालीन महिला/युवती है, बाबाओं की शरण में जाकर पूजा—पाठ करती है।

बाबाओं के मामले में भी यह मास हिस्टीरिया टाइप बन गया है, लग रहा है लोग अटेंशन पाने के लिए भी बाबाओं के समर्थन में होने वाली रैलियों में जाते हैं। यहां उन्हें अटेंशन मिलता है, जैसे तमाम न्यूज चैनल इंटरव्यू कर रहे हैं, पुलिसवाले घटना की छानबीन कर रहे हैं, कहीं न कहीं सेलिब्रेटी जैसा अहसास होता है उन्हें।

(प्रेमा नेगी से बातचीत पर आधारित)

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