राफेल डील में समझौते से पहले कैसे दी रक्षा मंत्री ने सहमति!

Update: 2019-01-03 06:53 GMT

राफेल सौदे में एचएएल की अनदेखी कर अनिल अम्बानी की कागजी कम्पनी को ऑफ-सेट पार्टनर चुना जाना, विमान का दाम एकाएक बढ़ जाना और भारतीय वायु सेना द्वारा वर्षों से की जा रही 126 जहाज की मांग के बावजूद 47 फीसद महंगे दाम पर केवल 36 विमान खरीदा जाना और निर्धारित प्रक्रियाओं के उल्लंघन से सौदे में आने लगी थी भ्रष्टाचार की गंध...

वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट

उच्चतम न्यायालय में राफेल सौदे को लेकर दाखिल याचिकाओं के खारिज होने के बाद राफेल लड़ाकू विमान सौदे का मुद्दा फीका पड़ने लगा था, लेकिन भाजपा के बड़े नेताओं मसलन अरुण जेटली, अमित शाह द्वारा कांग्रेस को बार—बार संसद में बहस के लिए ललकारने और कांग्रेस पर बहस से भागने का आरोप लगाए जाने के बाद कांग्रेस ने बहस की ललकार स्वीकार करके जिस तरह लोकसभा में विपक्ष के साथ मिलकर प्रधानमंत्री को घेरने में सफलता हासिल की है, उससे मुद्दे को संजीवनी मिल गयी है।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद लोगों में सरकार को क्लीनचिट मिलने का भ्रम पैदा होने लगा था। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इस आरोप को लेकर नये आरोप के साथ आए। उन्होंने मानसून सत्र के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लगाए आरोप में पूर्व रक्षा मंत्री और गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर और उनके स्वास्थ्य मंत्री के आडिओ टेप का हवाला देकर इस मुद्दे में नई जान फूंक दी है।

राफेल पर लगातार हो रहे हमले के बाद सरकार को जब उच्चतम न्यायालय से राहत मिली तब भी कांग्रेस बैकफुट पर नहीं आई, बल्कि लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मलिकार्ज़ुन खड़गे के बहाने कांग्रेस ने भाजपा पर एक बार फिर हमला बोल दिया। हालांकि भाजपा ने बचाव में ये बयान दिया की टाइपिंग की गलती के नाते ऐसा समझा गया कि पीएसी को रिपोर्ट साझा कर दी गई है, लेकिन मोदी सरकार जब तक बचाव में आती तब तक देर हो चुकी थी।

यही नहीं जिसे मोदी सरकार टाइपिंग की गलती बता रही है, उसी के आधार पर उच्चतम न्यायालय का फैसला आधारित है। यानी यदि इसे टाइपिंग की गलती उच्चतम न्यायालय मान लेती है तो फिर उसे अपने फैसले को नए सिरे से न्यायोचित सिद्ध करना पड़ेगा।

कांग्रेस की नयी टीम ने पूरा विश्लेषण करके यह नतीजा निकसला है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि पर हमला किए बिना 2019 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हरा पाना मुश्किल है। पहले राहुल ने सूटबूट की सरकार, फिर कार्पोरेट्स परस्त सरकार कहकर नरेन्द्र मोदी पर हमले कर रहे थे। फिर नोटबंदी और जीएसटी की विफलता और मेहुल भाई चौकसी भाई, माल्या और बैंकों के विशालकाय होते जाते एनपीए पर राहुल ने मोदी को घेरना शुरू किया।

इस बीच राफेल का मामला ऐसा कांग्रेस के हाथ लगा, जिससे मोदी और भाजपा लगातार बैकफुट पर जाती दिखने लगी। दरअसल राहुल का पूरी तरह टर्नएराउंड हो गया है और राहुल राफेल पर जितने आक्रमक हैं, अपने पूरे राजनीतिक जीवन में कभी इतने आक्रामक नहीं रहे। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि कांग्रेस ने राफेल पर जितनी तैयारी की है साढ़े चार साल के विपक्ष में रहने के दौरान किसी मुद्दे पर इतनी तैयारी नहीं की।

यही नहीं नरेन्द्र मोदी की छवि ध्वस्त करने के लिए राहुल पूरी तैयारी के साथ प्रेस वार्ता करने लगे और मोदी को प्रेसवार्ता करने के लिए ललकारने भी लगे। इससे जनता में यह भावना बढ़ने लगी की मोदी सही जवाब देने से बचते हैं, क्योंकि उनके पास जवाब है ही नहीं। राहुल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 'चौकीदार चोर है' कहकर यानी मोदी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा भाजपा की बुनियाद पर ही चोट कर दी है।

राहुल मोदी की बहस करने की हिम्मत पर भी सवाल उठाया है। राहुल ने कहा कि वह लगातार मीडिया के बीच में आते रहते हैं। मीडिया के सवालों का जवाब देते रहते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री जी में यह हिम्मत नहीं है।

प्रधानमंत्री ने साल के पहले इंटरव्यू में जब राफेल मामले पर सरकार का पक्ष रखा, उसके अगले दिन कांग्रेस ने एक बार फिर एक टेप के सहारे राफेल में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार पर हल्ला बोल दिया है। राहुल ने परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री के इंटरव्यू को प्रायोजित करार दे दिया और कहा कि इसमें टीवी रिपोर्टर सवाल भी पूछ रही थी और सवाल का जवाब भी दे रही थी।

गौरतलब है कि मोदी सरकार द्वारा 36 राफेल विमानों के खरीद की मंजूरी को लेकर नए तथ्य सामने आए हैं और इसके आधार पर इस मामले में विवाद बढ़ता जा रहा है। कहा जा रहा है कि सरकारी फाइलों में दर्ज है कि दिसंबर 2015 में जब समझौता वार्ता नाजुक मोड़ पर थी, उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय ने हस्तक्षेप किया था।

सरकारी फाइलों (आंतरिक ज्ञापनों) में यह दर्ज है कि रक्षा मंत्रालय की टीम के राफेल समझौता शर्तों को लेकर पीएमओ समस्या पैदा कर रहा था। प्रक्रिया के अनुसार, रक्षा मंत्रालय की कॉन्ट्रैक्ट वार्ता समिति में ऐसे विशेषज्ञ होते हैं जो रक्षा उपकरणों की खरीद का पूरी तरह से स्वतंत्र मूल्यांकन करते हैं। इसके बाद समिति के निर्णय और आकलन को कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) को भेज दिया जाता है। अब लाख टके का सवाल है कि रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा बनाई गई इन फाइल नोटिंग्स को उच्चतम न्यायालय के समक्ष रखा गया था या नहीं।

गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी द्वारा 10 अप्रैल, 2015 को फ्रांस में अचानक नए सौदे की घोषणा करने के बाद मनोहर पर्रिकर की अध्यक्षता वाली रक्षा अधिग्रहण परिषद ने मई 2015 में जेट खरीदने के लिए औपचारिक रूप से स्वीकृति दी थी। बाद के छह महीनों में राफेल करार से संबंधित वास्तविक बातचीत हुई थी। जनवरी 2016 में, कॉन्ट्रैक्ट वार्ता समिति ने वित्तीय शर्तों को छोड़कर नए सौदे के सभी पहलुओं को अंतिम रूप दे दिया।

राफेल डील को लेकर सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि इसे क्यों इतनी महंगी राशि में खरीदा जा रहा है। अगस्त 2016 में मंजूरी के लिए सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (सीसीएस) के पास ले जाया गया।

दरअसल राफेल सौदे में एचएएल की अनदेखी करके अनिल अम्बानी की कागजी कम्पनी को ऑफ-सेट पार्टनर का चुना जाना, विमान का दाम एकाएक बढ़ जाना और भारतीय वायु सेना द्वारा वर्षों से की जा रही 126 जहाज की मांग के बावजूद केवल 36 विमान खरीदा जाना तथा निर्धारित प्रक्रियाओं के उल्लंघन से सौदे में भ्रष्टाचार की गंध आने लगी। यह समझौता भारत के लिए 47 फीसद ज़्यादा महंगा है।

अनिल अंबानी की कंपनी का रक्षा क्षेत्र में कोई पूर्व तजुर्बा नहीं है और अनिल अंबानी स्वयं 45 हजार करोड़ के कर्ज में डूबे हुए हैं। रक्षा ख़रीद नीति (डीपीपी) के बिंदु 8.6 में यह साफ़ लिखा है कि ‘ऑफ़सेट पार्टनर’ के लिए आवेदन को, एक्वीजीशन मैनेजर द्वारा पास होने के बाद, रक्षा मंत्री का अनुमोदन मिलना चाहिए, चाहे उसकी कुछ भी कीमत हो या उस पार्टनर को कैसे भी चुना गया हो।

उच्चतम न्यायालय में बहस के दौरान सरकारी वकील वेणुगोपाल ने कहा की यह प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही रक्षा मंत्री की सहमति ले ली गई थी। इससे सवाल यह उठता है कि बिना रक्षा मंत्री की सहमति के, भारत सरकार इस समझौते के साथ आगे कैसे बढ़ी? और अगर यह समझौता बाद में हुआ तो सहमति पहले कैसे ली गयी?

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