एक राजनीतिक पार्टी जो राम मंदिर और सबरीमाला जैसे संवेदनशील मसलों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न मानने का भी इशारा कर देती है, वो आज अपने व्याप्त भ्रष्टाचार के छुप जाने से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर जश्न मना रही है...
ऋशव रंजन की विस्तृत रिपोर्ट
आखिर सरकारी भ्रष्टाचार के मामले में जांच कब होनी चाहिए? भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में जब इतने तथ्य हों जिससे संदेह गहरा होता जाए और आरोप का सीधा जवाब न मिल पाए, तब न्यायिक जांच की जरूरत और बढ़ जाती है।
जो राफेल डील कारगिल युद्ध के बाद से शुरू हुई हो और पिछले कई सरकारों में इसपर काम हुआ हो, उसमें हड़बड़ी में ‘ऑफ-सेट पार्टनर’ चुना जाना, उसका दाम एकाएक बढ़ जाना और भारतीय वायु सेना के वर्षों की 126 प्लेन की मांग को दबाकर उसकी कमर तोड़ना कई सवाल खड़ा करता है।
सरकारी भ्रष्टाचार कोई सामान्य तरीके से नहीं होता, उसमें कई परतें होती हैं और हर परत में कुछ राज़ छिपे होते हैं, जिसे उघारने के लिए सिर्फ संस्थानों का होना जरूरी नहीं है। बल्कि उन संस्थानों में उस स्तर का हिम्मत और उतनी आज़ादी होनी चाहिए, जिससे वे बेबाक होकर इसकी जाँच कर सकें। अभी की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट भले ही आज़ाद संस्थान है लेकिन इस तरह के फैसले के बाद उसकी इच्छाशक्ति पर सवाल उठाना लाजिमी है।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सहारा-बिरला डायरी केस में भाजपा-कांग्रेस के कई बड़े नेता मंत्रियों का नाम आया था, वो भी सीबीआई जांच के दौरान रेड में पाई गयी दस्तावेजों ने इसका साफ़ सबूत दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे संवेदनशील मामलों में भी जांच करवाना जरूरी नहीं समझा।
अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने भी आत्महत्या के बाद “मेरा सफ़र” नामक डायरी छोड़ न्यायपालिका और सरकारी तंत्र की धांधली को उजागर किया था। उस पर भी सुप्रीम कोर्ट का व्यवहार न्याय की पूर्ति करता नहीं दिखा। ऐसे कई वाकयों से सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के खारिज करने के बाद भी जांच का कोई रास्ता बचता है?
2G घोटाले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपित लोगों को बरी कर दिया तो इसका मतलब ये समझा जाए की 2G घोटाला कभी हुआ ही नहीं था। हमें ये समझने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार खुद में इतना बड़ा दानव है, जिसका मुकाबला देश के सर्वोच्च संस्थान भी अपनी सीमा की वजह से नहीं कर पाते।
वैसे ही सुप्रीम कोर्ट की सीमा है ‘जुडिशियल रिव्यु (न्यायिक पुनरावलोकन)’। हालांकि इस केस में याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण ने कहा है कि वे रिव्यू याचिका के लिए भी जा सकते हैं ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गौर से देखने की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ‘जगदीश मंडल ब. ओडिशा सरकार और अन्य’ (पारा 7) के केस जैसे अन्य फैसलों और जॉन एल्डर और ग्राहम एल्डस के किताब (पारा 10) का हवाला देकर कहा है, कारोबार-व्यवसाय या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े रक्षा सौदों के मामलों में प्रशासनिक फैसलों पर न्यायिक हस्तक्षेप की ताकत खुद को बहुत सीमित कर देता है।
ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय लेने की प्रक्रिया, दाम और ‘ऑफ़-सेट’ पार्टनर-चयन; इन तीन मसलों में बहुत संकुचित तरीके से अपना फैसला दिया है। जैसे निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोर्ट इसीलिए दखल नहीं देना चाहती है क्योंकि डिफेंस प्रोक्योरमेंट पॉलिसी धारा 72, सरकार को ज्यादा देर होने पर एक अलग समझौता करने की अनुमति देती है।
वहीं पारा 51 (डीपीपी 2013) ये अनिवार्य करता है की किसी भी बाहरी समझौते से पहले, किसी भी स्थिति में कॉन्ट्रैक्ट नेगोसिएशन कमिटी (सीएनसी) को एक सतही और वाजिब दाम को अपने मीटिंग में स्थापित करना पड़ेगा।
डिफेंस सर्विस के वित्तीय सलाहाकार (अक्टूबर 2015- मई 16) सुधांशु मोहंती, जिनके कार्यकाल में 36 विमानों का समझौता हुआ था, वो कहते हैं कि फ़्रांस के द्वारा दी गयी आश्वासन की चिट्टी (लेटर ऑफ कम्फर्ट) कोई आराम नहीं देती है।
सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकार ने यह माना था कि फ़्रांस के द्वारा इस डील में ‘सॉवरेन गारंटी’ नहीं दी गयी है, जिसका मतलब अगर यह डील पूरी नहीं होती है तो उसकी भरपाई करने का या उसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के लिए भारत के पास कोई मजबूत रास्ता नहीं है। इसके बचाव में सरकारी वकील ने कहा था कि फ़्रांस से उन्हें बस आश्वासन की चिट्टी (लेटर ऑफ कम्फर्ट) मिली है।
लेखक रवि नायर नवंबर महीने में और द कारवां के संपादक हरतोष सिंह बल अपने एक लेख में बताते हैं कि दाम और प्रक्रिया के पेंच को सुलझाने के लिए इंडियन नेगोसिएशन टीम (आई.एन.टी) का गठन हुआ, जिसकी कुल 74 मीटिंग हुई। इन मीटिंगों में रक्षा मंत्रलय के कॉस्ट सलाहकार एम.पी.सिंह ने सतही दाम 5.2 बिलियन यूरो बताया था और उनके दो साथी राजीव वर्मा (जॉइंट सेक्रेटरी एंड एक्वीजीशन मैनेजर) और अनिल सुले (वित्तीय मैनेजर) ने इस पर अपना साथ दिया।
आई.एन.टीके चेयर राकेश कुमार सिंह भदौरिया ने इस पर अपनी असहमति जाहिर की थी। ये मसला आई.एन.टीमें सुलझ नहीं पाया और वे सभी अफसरों को या तो छुट्टी पर भेज दिया गया या उनका तबादला हो गया।
28 मार्च 2015 को डस्सौल्ट के प्रमुख एरिक ट्रैपियर ने कहा कि राफेल डील एक बहुत जरूरी कदम है और इसमें एच.ए.एल. उनके साथ है। नए डील होने से दो दिन पहले तक देश के विदेश सचिव ने बताया कि डील की प्रक्रिया जारी है और हिंदुस्तान एरोनौटीकल्स लिमिटेड उसका हिस्सा है। अनिल अम्बानी ने अपने कम्पनी की स्थापना पुराने डील के खारिज होने से सिर्फ 12 दिन पहले की थी, वाकई वे बहुत दूरदर्शी थे।
सुधांशु मोहंती ये भी बताते हैं कि जिस तरह डिफेंस एक्वीजीशन कौंसिल (डीएसी) ने ये केस बिना लिए कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्यूरिटी (सीसीएस) को दिया वो अन्यन्त आश्चर्यजनक था। प्रक्रिया की बात करें तो सवाल यह भी है की जब डसौल्ट के प्रमुख एरिक ट्रापियर ने 28 मार्च 2015 को कहा था की 126 विमानों के सौदे में 95% समझौता हो गया था तो डीपीपी की धारा 72 का इस्तेमाल करने की जरुरत सरकार को क्यूँ पड़ी?
साथ ही रक्षा मंत्री मनोहर परिकर और विदेश सचिव जयशंकर का इस प्रक्रिया में न होना अजीब संदेह पैदा करता है, जो कि जांच का विषय था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले को भी अपनी सीमाओं के कारण इसे अनदेखा किया।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के दावों को फैसले में लिखकर सिर्फ बताया है कि 36 विमानों को खरीद देश को फायदा हुआ है, लेकिन रक्षा एक्सपर्ट अजय शुक्ल के हिसाब से यह डील 40% और महँगी पायी गयी है। सरकार के इस दाम वाले मसले पर जवाब के बाद सुप्रीम कोर्ट वापस अपनी उस मुद्रा में चली जाती है जहाँ वो दाम को लेकर कोई दखल नहीं देना चाहती।
सरकार ने ये सभी जवाब सुप्रीम कोर्ट में किसी प्रकार के एफिडविट में नहीं दिया है। इसका मतलब साफ़ है कि सरकार अपने द्वारा दिए जवाबों को लेकर कोई जिम्मेदारी तय नहीं करना चाहती है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक और जगह समझने में गलती कर दी। कोर्ट पारा 30 में ‘रिलायंस इंडस्ट्रीज’ जो मुकेश अम्बानी की थी, उसे फैसले में ‘पैरेंट कम्पनी’ बताया गया। जबकि अभी जो डील हुई है वो अनिल अम्बानी की कम्पनी के साथ हुई है और इतना ही नहीं ये भी पता होना चाहिए की अनिल अम्बानी की कम्पनी का कोई रक्षा सौदों में तजुर्बा नहीं है और अनिल अम्बानी खुद कर्ज में डूबे हुए हैं।
डिफेंस प्रोक्योरमेंट पालिसी (डीपीपी) के पॉइंट 8.6 में ये साफ़ लिखा है कि ‘ऑफ़-सेट’ पार्टनर के लिए आवेदन एक्वीजीशन मैनेजर से पास होकर रक्षा मंत्री से अनुमोदन किया जाना चाहिए चाहे वो कितने भी कीमत का हो या कैसे भी चुना गया हो।
सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकारी वकील वेणुगोपाल ने कहा की ये प्रक्रिया होने से पहले ही रक्षा मंत्री की सहमति ले ली गई थी। इससे सवाल ये उठता है कि बिना रक्षा मंत्री के सहमति के भारत सरकार डील में आगे कैसे बढ़ी? और डील बाद में हुई तो सहमति पहले कैसे? सुप्रीम कोर्ट के जजों को इन सभी सवालों पर गौर फरमाना चाहिए था।
दाम के मामले में सीमित दखलंदाज़ी के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के पारा 25 में यह कह दिया कि वायुसेना के मार्शल या प्रमुख ने दामों को लेकर कुछ भी बताने से खुद को रोका है।
जबकि सुप्रीम कोर्ट में बहस के वक़्त हमारे न्यायधीशों ने वायुसेना के दो सीनियर अफसरों को बुलाया था जिसमें दो एयर मार्शल मौजूद थे और उन्होंने दामों के अंतर को छोड़ राफेल विमान की जानकारी ली थी। राफेल और वायुसेना की जरूरत को लेकर सीमित सवालों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे दाम से कैसे जोड़ दिया?
राफेल विमान की विशेषता और उसे गुप्त रखने की जरूरत पर हमारे रक्षामंत्री के दावे बिलकुल खोखले नज़र आते हैं। अमेज़न प्राइम पर राफेल विमान पर पूरी फिल्म बनी है जिसको आम नागरिकों के साथ साथ सभी देशों के डिफेंस एक्सपर्ट भी देख सकते हैं। ऐसा कोई राज़ शायद ही छूटा हो जिसका जिक्र उस फिल्म में नहीं हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर राफेल सौदे के ब्यौरे को गुप्त रखना सेना ही नहीं बल्कि देश की जनता के साथ भद्दा मजाक है।
सीएजी रिपोर्ट और पीएसी का चक्रव्यूह
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पारा 25 में सरकारी जवाब के आधार पर एक अनोखी चीज़ लिखी है. कोर्ट ने कहा है कि दामों की जानकारी सीएजी के साथ साझा की जा चुकी है. और साथ ही सीएजी ने अपने रिपोर्ट का परीक्षण करने के लिए (पीएसी)पब्लिक एकाउंट्स कमिटी को भेजा है. पीएसी ने रिपोर्ट का एक भाग संसद में दिया है और वो रिपोर्ट सामान्य नागरिकों के लिए उपलब्ध है।
13 नवंबर 2018 को 60 रिटायर नौकरशाहों या कहें सरकारी अफसरों ने सीएजी को एक चिट्ठी लिखी और राफेल डील पर सीएजी रिपोर्ट न आने पर नाराजगी जाहिर की थी। उन्होंने सीएजी पर सवाल उठाते हुए कहा कि कहीं वे सरकार को बचाने के लिए रिपोर्ट पेश करने में देरी तो नहीं कर रहे हैं। 14 नवंबर को सीएजी के अफसरों ने ये साफ़ किया कि वे राफेल डील पर रिपोर्ट संसद के शीतकालीन सत्र में देंगे. अभी तक ऐसे किसी सीएजी रिपोर्ट की जानकारी किसी पत्रकार या किसी नेता को नहीं है।
कांग्रेस के नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा है की वे खुद पीएसी (पीएसी) के अध्यक्ष हैं, जिसे सरकार दावा कर रही है कि सीएजी ने रिपोर्ट भेज दिया है। इस पूरे घटना से कई गंभीर सवाल उठते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने किन दस्तावेजों के आधार पर अपने फैसले में सीएजी रिपोर्ट का हवाला दिया और अगर ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है तो सरकार द्वारा सील लिफाफे में दिए गए जवाब और जानकरी का क्या अस्तित्व होगा? इस केस में जितने भी याचिकाकर्ता थे उन्हें इस सील लिफाफे में बंद सरकारी जवाब की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
एक राजनीतिक पार्टी जो राम मंदिर और सबरीमाला जैसे संवेदनशील मसलों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न मानने का भी इशारा कर देती है, वो आज अपने व्याप्त भ्रष्टाचार के छुप जाने से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर जश्न मना रही है.
यह बहुत चिंताजनक है कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट से डर नहीं लगता। सरकार ने लिखित झूठ से ये साबित कर दिया है कि निजी फायदे के लिए वो सर्वोच्च न्यायलय जैसे संस्थान का भी आदर नहीं करती। सुप्रीम कोर्ट को खुद इस फैसले के पीछे सरकारी झूठ का जांचकर आत्ममंथन करना चाहिए।
यह अत्यंत दुखद है कि सुप्रीम कोर्ट जो बीसीसीआई (BCCI) के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थी वो आज राफेल डील जो हमारी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना की जरूरत के लिए महत्वपूर्ण है, उसमें सारे संदेहजनक तथ्य होने के बावजूद न्यायिक रिव्यू की सीमा और दबाव तले दब गयी है।
न्यायपालिका के इतिहास में यह बेशक एक काला दिन है जिसमें सवाल गहरे हैं और गंभीर भी पर इसे संवैधानिक प्रक्रियाओं से, बेख़ौफ़ संस्थानों के सहारे और जागरुक नागरिकों के जरिए सुलझाया जा सकता है।
(ऋषव रंजन लॉयड लॉ कॉलेज में कानून के विद्यार्थी हैं और यूथ फॉर स्वराज के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)