वैज्ञानिक तेवर और संघर्ष में तपी युवा कवि रेवन्‍त दान बारहठ की कविताएं

Update: 2018-10-10 15:21 GMT

कविता के लिए संवेदनशीलता के साथ जो बात जरूरी है वह है कवि के भीतर एक सच्‍ची जिद का होना, जो उसकी संवेदना को उसके सही संदर्भों में रूपाकार दे सके। युवा कवि रेवन्‍त दान बारहठ की कविताओं में वह सच्‍ची जिच बारहा अभिव्‍यक्‍त होती है। अपनी कविता अरदास में वे मां से कहते हैं -

''मेरे लिए कुछ मत माँगना

मत करना अरदास मूक भगवानों के सामने

... धूप ही धूप माँगना मेरे लिए।''

दर्शन का जो वैज्ञानिक पक्ष है उसे भारतीय संदर्भों में उदात्‍त ढंग से कविताओं में लाते हैं रेवन्‍त और सत्‍ता के अहम को चुनौती देते उसकी सीमाएं बतलाते हैं -

''कि सारे समंदर किसी का

चुल्लूभर पानी हैं ...।''

कवियों के कवि शमशेर ने खुद को 'हिंदी और उर्दू का दोआब' कहा है। यह दोआब रेवन्‍त के यहां भी जगह बनाता उनकी भाषा को धार देता है -

''... अना की गिरहों वाली

शोहरतें, वज़ारतें, मोहब्बतें।

ये भार यहीं बिछुड़ जाना है ...।''

आइए पढते हैं रेवन्‍त दान बारहठ की कविताएं - कुमार मुकुल

रेगिस्तान

वे वीरान नहीं होते

अबाध और आबाद होते हैं

अपने विशाल मन

और ऊंडे काळजै में

छिपाए रखते हैं

धरती के अनमोल ख़ज़ाने

ऊपर से दिखने में होते हैं

बड़े रूखे और नीरस

लू जितने बळबळते

तूस जितने तल्ख़

टूळो बावळीयों भूरट जितने कँटीले

पर अपने कवच के नीचे

रखते हैं मामोलिया जैसा मन।

रेगिस्तान से प्रेम करने वाले

उसी के हो जाते हैं

विलीन हो जाते हैं उसमें।

सदियों पहले की बात है

एक नदी थी

जो मैदानों,पहाड़ों में इठलाकर बहती थी

फिर खारे समंदर से मिला करती थी

उसने रेगिस्तान से प्रेम किया

और समा गई उसके भीतर

उसके बाद कहीं नज़र नहीं आई

रेगिस्तान के वाशिंदे जानते हैं

कि साठ पुरस ऊंडे पानी का स्वाद

कितना निर्मल और मीठा होता है।

ग़ज़ल

ग़ुमनाम बनकर यहाँ जीना होगा,

समंदर हो तुम ओक से पीना होगा।

आपके ख़ज़ाने में ये कैसी ख़ुशबू,

किसी मेहनकश का पसीना होगा।

सिर्फ़ इंसानियत का मज़हब होगा,

न मन्दिर होंगे यहाँ न मदीना होगा।

कलन्दरों को कल की फ़िक्र नहीं,

कहाँ जीने का उनको करीना होगा।

तुमने ग़र मुरादों में माँगा है मुझे,

सावन मेरे आने का महीना होगा।

कवि का जाना

किसी कवि का जाना

शब्द का जाना नहीं होता

कलम का जाना नहीं होता

पर हाँ समय का जाना होता है

क्योंकि

तुमने ही निर्धारित की थी

कि जाना सबसे खौफ़नाक क्रिया है

अगर हो सके तो लौट आओ

शब्दों में,कलम में,समय में

ये समय सबसे खौफ़नाक है

जिसमें हम जी रहे हैं (केदारनाथ सिंह को याद करते हुए)

ब्लैक होल को पढ़ते हुए

वह सृष्टा है,नियंता है

स्वामी है संसाधनों का

दौलत,शोहरत और सियासत

उसके चरणों की चेरियाँ हैं

सब कुछ सदा ही रहना है

सोचता है वह

पृथ्वी का प्रज्ञावान प्राणी

आत्म मुग्ध,अहं के नशे में चूर

दहाई के आंकड़े में सिमटा

उसका मूत्र-सिंचित जीवन-वृत

काल-गति में उसकी उपस्थिति

बुलबुले जितनी है क्षणभंगूर।

मैं जब भी किसी को

तुच्छ चीज़ों पर इतराते हुए देखता हूँ

तो याद आता है मुझे

भूगोल का नवें दर्जे का वो सबक

जिसमें हमारे गुरु ने

-ब्लैक बोर्ड पर चॉक से बिन्दु बनाते हुए

बताया था कि

ब्रह्मांड में अपनी पृथ्वी की स्थिति

इतनी भी नहीं है

आकाशगंगाएँ और भी हैं

अभी कई सूर्य खोजने बाकी हैं

और एक ब्लैक हॉल भी है

जिसमें समा सकते हैं सभी।

मैं अक्सर सोचता हूँ

कि मनुष्य का अपरिमित अहंकार

क्या ब्लैक हॉल में समा पाएगा?

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